जनजातियों में बढ़ रहे हैं जीवनशैली से जुड़े रोग

मलेरिया के खिलाफ वैज्ञानिकों की जंग
मलेरिया के खिलाफ वैज्ञानिकों की जंग

अभी तक समझा जाता था कि जनजातीय इलाकों में रहने वाले लोग सिर्फ मलेरिया जैसे संचारी रोगों और कुपोषण से ही जूझ रहे हैं। पर, एक ताजा रिपोर्ट में पता चला है कि उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और मधुमेह जैसी गैर-संचारी बीमारियाँ भी अब जनजातीय क्षेत्रों में अपने पैर पसार रही हैं। इसके साथ ही इस अध्ययन में जनजातीय लोगों के मानसिक बीमारियों से ग्रस्त होने के बारे में भी पता चला है।

स्वास्थ्य मंत्रालय और जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा वर्ष 2013 में गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में ये तथ्य सामने आए हैं। इस समिति के अध्यक्ष और ग्रामीण स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. अभय बंग ने यह रिपोर्ट हाल में सरकार को सौंपी है।

एक आम धारणा है कि प्रकृति के करीब होने तथा स्वस्थ खानपान के कारण जनजातीय लोग जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों के खतरे से बचे हुए हैं। लेकिन, इस रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ है कि जनजातीय समुदाय स्वास्थ्य पर तीन तरफ से पड़ने वाली मार झेल रहा है। इनमें संक्रामक रोग (मलेरिया, तपेदिक, कुष्ठ रोग आदि), गैर-संक्रामक रोग (मधुमेह, हृदय रोग एवं उच्च रक्तचाप), मानसिक तनाव तथा अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ शामिल हैं। मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य तथा कुपोषण जैसे स्वास्थ्य संकेतकों में सुधार जरूर हुआ है, पर इससे जुड़ी समस्याएँ अभी बनी हुई हैं।

जनजातीय लोग पहले से ही मलेरिया और कुपोषण जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं। भारत की कुल आबादी में जनजातीय समुदाय या अनुसूचित जनजातियों की हिस्सेदारी करीब 8.6 प्रतिशत है। लेकिन, मलेरिया के कुल मामलों में से 30 प्रतिशत मामले जनजातीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं और इसके कारण होने वाली 50 प्रतिशत मौतें भी यहीं पर होती हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि "वर्ष 2030 तक मलेरिया उन्मूलन का लक्ष्य तब तक पूरा नहीं किया जा सकता जब तक कि आदिवासी स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं दी जाती"

जनजातीय बहुलता वाले दस में से सात राज्यों में जनजातीय लोगों में हृदय रोगों का प्रसार गैर जनजातीय आबादी के बराबर है। जबकि, महाराष्ट्र और अंडमान निकोबार द्वीप की जनजातीय आबादी में आम जनसंख्या की अपेक्षा हृदय रोगों का प्रसार अधिक पाया गया है। वर्ष 2009 में राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (एनएनएमबी) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि प्रत्येक चार जनजातीय वयस्कों में से एक उच्च रक्तचाप से पीड़ित है, जो राष्ट्रीय दर के बराबर है। मध्य प्रदेश में एनआईआरटीएच के एक सर्वेक्षण के अनुसार, बैगा जनजाति में उच्च रक्तचाप का प्रसार मंडला में 10.5 प्रतिशत, डिंडोरी में 20.2 प्रतिशत और बालाघाट में 11.2 प्रतिशत है। छिंदवाड़ा जिले की पातालकोट घाटी के भरिया जनजाति के 21.5 प्रतिशत लोग उच्च रक्तचाप से ग्रस्त पाए गए हैं।

क्रोनिक डिजीज कंट्रोल सेंटर के निदेशक डॉ. डी. प्रभाकरन ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि "उच्च रक्तचाप के प्रसार के कारण स्ट्रोक की दर भी अधिक हो सकती है।”

अधिकतर जनजातीय इलाकों में नक्सल हिंसा जैसी समस्याएँ भी हैं। इसके चलते वहाँ रहने वाले लोग तनाव और मानसिक बीमारियों से भी ग्रस्त हो रहे हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक, “पर्यावरणीय आपदाओं, खनन, भूमि अधिग्रहण और आजीविका के संकट के कारण हो रहे विस्थापन एवं पलायन का असर जनजातीय लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।”

एक तरफ स्वास्थ्य समस्याओं का बोझ जनजातीय आबादी पर बढ़ रहा है तो दूसरी स्वास्थ्य सेवाएँ इन इलाकों में लचर बनी हुई हैं। यह स्थिति चिंताजनक है क्योंकि जनजातीय लोग पूरी तरह सार्वजनिक सेवाओं पर निर्भर हैं और पारंपरिक चिकित्सकों पर उनकी निर्भरता कम हो रही है। इसलिए सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को जनजातीय क्षेत्रों में मजबूत किया जाना जरूरी है। इसके साथ ही समिति का मानना है कि पारंपरिक उपचार पद्धतियों का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जाना चाहिए ताकि जनजातीय चिकित्सा प्रणाली को आधुनिक प्रणाली के साथ एकीकृत किया जा सके।

Twitter handle: @dineshcsharma

भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र

 

 

 

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