जंगल की बात या हाथी के दाँत

8 Oct 2018
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फिरोजदीन चौहान
फिरोजदीन चौहान

गुरुचरन- कुनाऊ चौड़ (जिला पौड़ी गढ़वाल) सेः पीढ़ी-दर-पीढ़ी जंगलों में विचरने वाले पशु पालकों को ‘वन गूजर’ या ‘जंगल गूजर’ के रूप में पुकारा जाता है। ये किस जंगल में कब तक रहेंगे, उसके बाद किस जंगल में जाएँगे, ये सब पहले से तय रहता था। ये जंगलों में यूँ ही नहीं विचरते थे। जंगलों में रहने के लिये ये एक नियत राशि अदा करके परमिट हासिल करते थे। पूर्वजों की ब्रिटिश काल की रसीदें इनके पास आज भी हैं।

ये आज भी कबीले में रहते हैं। इनका एक प्रमुख होता है। जिसे आज की भाषा में ‘नेता’ पुकारा जाता है। कबीला उसका ‘हुकुम’ मानता है। बग्गूदीन के बाद से उनके पोते फिरोजदीन ‘नेता’ हैं। नेता के पद पर परिवारवाद के सवाल पर वे सफाई देते हुए बोले कि ये पद उन्हें दादा से जरूर मिला है लेकिन उनके पिता या बड़े भाई तो कभी नेता नहीं रहे। जिम्मेदारियाँ निभाने की क्षमता होना एक बहुत जरूरी शर्त है।

ये रहने के लिये ‘डेरा’ खुद तैयार करते हैं। जो एक ऐसा बड़ा सा छप्पर होता है, जिसे मकान से कहीं ज्यादा मुश्किल बनाना इसलिये होता है क्योंकि मकान के लिये ईंट, बजरी, पत्थर व सीमेंट आदि मिल जाता है लेकिन ‘डेरा’ बनाने के लिये अन्दर जो पेड़ खड़ा करना होता है, वह ही आज की सबसे बड़ी मुश्किल है। डेरा में खिड़कियाँ होती हैं, मुख्य द्वार का दरवाजा नहीं रहता।

कुनाऊ चौड़ में स्थित वन गूजर कबीला नेता श्री फिरोजदीन के डेरे पर ‘उत्तराखण्ड पॉजीटिव’ के सम्पादक गुरुचरन ने उनसे लम्बी बातचीत की जिसमें बिजली, पीने का पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित इस समुदाय की जीवनशैली में आये बदलाव, वनों से जुड़ी जिन्दगी व भविष्य की चिन्ताओं की चर्चा हुई।

‘हम पहले ही अच्छे थे’ कहते हुए नेता ने बातचीत में साफ गोई से अपने मन की बातें रखी। जब वे घूमंतू थे तो इन्हें जबरन -कुुनाऊ चौड़ में लाकर टिकाया गया। जब ये यहाँ बसे तो इन्हें जबरन हटाया जा रहा है। एक तरफ सबको आवास देने की बात कही जा रही है, दूसरी तरफ इनके आवास तोड़ने की मुहिम चलाई जा रही है। प्रस्तुत है, फिरोजदीन के साथ हुई लम्बी बातचीत के प्रमुख अंश।

उत्तराखण्ड और कुनाऊ चौड़ में पहुँचने का सफर

‘जम्मू कश्मीर के राज घराने की बेटी सिरमौर के राज घराने में ब्याही थी। उसकी तबीयत बिगड़ती चली गई। उसे वहाँ का दूध-घी रास नहीं आया होगा, हमारे बुजुर्गों को जम्मू कश्मीर से सिरमौर के जंगलों में मवेशियों के साथ भेजा गया था,’ अपने समुदाय के अतीत और उत्तराखण्ड तक पहुँचने का संक्षिप्त विवरण पशु पालक वन गूजर समुदाय के नेता फिरोजदीन ने सुनाया।

पीढ़ियों से घुमन्तू जिन्दगी जीने के आदी रहे ये लोग मस्ती से रहते थे। सरकार ने वनों को ‘सुरक्षित वन’ घोषित करते समय इनसे कहा कि ये अपनी आजीविका के लिये मवेशियों के साथ अपने परिवारों को बेवजह जंगलों में न भटकाते फिरें, अन्य समुदायों की तरह शान्त व आरामपूर्ण जिन्दगी जिएँ। बात सुनने में बहुत अच्छी और समझदारी पूर्ण लगी।

कुनाऊ चौड़ में बसाने के लिये सरकार ने हर परिवार को उसके मवेशियों के हिसाब से यहाँ जमीन दी। जैसे नेता के पिता को 200 भैसों के हिसाब से साढ़े 32 बीघा जमीन का पट्टा मिला। ताकि उस पर चारा उगा कर अपने मवेशी पाल सकें। कुनाऊ चौड़ में इन्हें बसाने का कारण था कि ये पहले से गौहरी रेंज के जंगलों में थे और ये जगह उसी रेंज में थी।

फिरोजदीन ने बताया कि इस जमीन के बदले सरकार ने वर्ष 1990 से इनके मवेशियों को जंगलों में चुगान के परमिट बन्द कर दिये थे। वर्ष 2005 से सरकार के वन विभाग ने हमें हमारी ही जमीन पर चारा उगाने से रोकना शुरू किया। ये रोक आज तक जारी है। आरोप है, ‘सरकार ने ऐसे अधिकारियों को यहाँ लगाती रही, जो लट्ठ से हमें यहाँ से खदेड़ने की बात करते रहे। यहाँ हम पैदा हुए, उत्तराखण्ड राज्य पाने के आन्दोलन में लड़े ये ही हमारा वतन है, हम यहीं रहेंगे, यहीं मरेंगे।’

जीवनचर्या पहले और अब

जंगलों में रहते हुए सुबह सवेरे उठकर सब पुरुष अपने मवेशियों को लेकर जंगलों में अन्दर निकल जाते। औरतें घर का काम जैसे रोटी बनाने, कपड़े धोने, टूटी हुई लकड़ियों को जंगलों से इकट्टा करके लाती व भैंसों का दूध निकालती। अचानक अपनी बात रोककर नेता ने इस बात पर जोर दिया, ‘तब दूध की बिक्री नहीं होती थी, इसलिये हमें दूध से दही जमाना होता था, मक्खन निकालकर घी बनाते और बेचते थे।’

‘अब पहले की तरह दूध से मक्खन निकालकर घी बनाने का काम तो खत्म हो गया है। अब हम सारा दूध बेचते हैं, हमारे अपने घरों के बच्चे अब दूध को तरसते हैं, घरों में भी चाय पीकर रहते हैं, ये मत समझिएगा कि इससे कि हमारी कोई मोटी कमाई हो रही है, हमें अपना सारा दूध इसलिये बेचना पड़ रहा है क्योंकि हमने दूध बेचने वालों से काफी कर्जे ले रखे हैं, हम कर्जों से लगातार दबते जा रहे हैं।’

‘हम पीढ़ियों से इस काम में हैं। इसके बावजूद ये बात हमारी समझ से परे है कि आज बाजार से जितना चाहो उतना दूध मिलेगा। लोगों के पास ऐसी कौन सी भैसें हैं जिनसे जितना चाहो दूध पाओ। हम जानते हैं हमारी भैंस आज 8 लीटर दूध दे रही है तो कल 18 लीटर दूध किसी भी तरह नहीं देगी। अब हमें भी सरकार को बताना चाहिए कि बाजार में इतना दूध जिन भैसों से आ रहा है वह कहाँ और कौन सी हैं?

अपनी बोली अपने लोग

वन गूजर समुदाय आपस संवाद ‘गूजरी’ में करते हैं। जो पंजाबी व कश्मीरी से प्रभावित है। ये हिन्दी, उर्दू, पंजाबी के साथ स्थानीय बोली को अच्छी तरह बोलते समझते हैं-जैसे गढ़वाल में ‘गढ़वाली’ मोबाइल फोन से पहले ये अपने समुदाय के सन्देश जंगल में जोर की आवाज से लगभग चार-छह किमी तक पहुँचता। वहाँ से उस सन्देश को सुनकर आगे छह-आठ किमी तक आवाज से पहुँचाता। इस तरह से सन्देश पहुँचता था।

सबको शिक्षा की सच्चाई

बस्ती में घूमते हुए बच्चों की पढ़ाई के बारे में नेता ने बताया कि यहाँ बसाते वक्त कहा गया था कि उनके बच्चे पढ़ाए-लिखाए जाएँगे। अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के बारे में सोचकर वे लोग यहाँ बसने पर खुशी-खुशी राजी हो गए थे। लेकिन इनके बच्चों की पढ़ाई के लिये सरकार की ओर से लम्बे अरसे तक कोई कोशिश नहीं हुई।

वर्ष 2010 के आस-पास यहाँ बच्चों की पढ़ाई के 3 सेंटर खुले थे। उनमें बच्चे भी गए। पता नहीं क्यों 2 सेंटर बन्द कर दिये गए। तीसरे में बच्चों के नाम पर आने वाला मिड डे मील उन्हें नहीं दिये जाने की शिकायत पर जाँच में कई बोरी चावल पकड़ा गया। अधिकारियों ने चोरी पकड़वाने की सजा में सेंटर ही बन्द कर दिया।

इसके बावजूद हमने हार नहीं मानी और अपने साधनों से बच्चों को स्कूल भेजा वे गए। वहाँ उन्हें साल के हिसाब से अगली क्लास में चढ़ाया जाता रहा। 5वीं के बाद जब वे 6वीं में गए तो स्कूल बदला गया। जहाँ जाकर पता चला कि पिछले 5 सालों में इन्हें कुछ पढ़ाया ही नहीं गया। इस तरह स्कूलों में धक्के और मास्टरों की मार खाकर हमारे बच्चे स्कूलों से बाहर आ गए नेता ने कहा।

फिरोजदीन बोले, ‘बच्चे पूरी तरह अनपढ़ रह जाते तो गनीमत होती। स्कूलों में कुछ साल जाकर ये पढ़े तो नहीं, नए फैशन के कपड़े पहनने जरूर सीख लिये। अब पहनावे से ये अनपढ़ गूजर के बजाय पढ़े लिखे गाँव वाले दिखते हैं लेकिन पढ़े लिखे वाले काम तो इनसे नहीं हो सकते। दिक्कत ये हो गई कि ये अपना मवेशी पालने का काम भी नहीं सीख पाये कि वही ठीक से कर लें।’

नजरिया और अनुभव

‘आप लोगों के बारे में सरकारी अधिकारी यही कहते हैं कि अपनी अगली पीढ़ी को आप दूसरे पेशों में नहीं जाने देना चाहते?’ इसके जवाब में नेता ने सवाल दागा, ‘मवेशी पालने का हमारा काम बुरा है क्या?’ फिर थोड़ा रुककर बोले, ‘जिनको ये काम नहीं आता, वे इसे सीख-सीखकर अपना रहे हैं। हम इसे पीढ़ियों से करते आये और हमारे बच्चे इस काम को अपनाएँ तो इसमें दूसरों की परेशानी का कारण क्या है समझ नहीं आ रहा?’

फिरोजदीन ने शान्त होकर कहा, ‘ठीक है कि ये काम करते हुए हम मालदार नहीं बन सके। हमारे पास पैसा नहीं जुटा। लेकिन हम सुख शान्ति से अपना काम करके अपने परिवार तो पालते रहे। हमारे हुनर से जुड़ी योजनाएँ हमारे बच्चों के लिये लाई जानी चाहिए थी ताकि उसे हमारे बच्चे बखूबी अपना सकें। इसके लिये हमारे बच्चों को इसी काम में नए ईजाद और तौर तरीकों से वाकिफ कराना चाहिए।’

सरकार की पशु पालक वन गूजरों के सहयोग से योजनाओं की कार्यान्वयन की सम्भावनाओं की चर्चा करने पर फिरोज बोले, ‘सरकार में मनोज चंद्रन जी जैसे अनेक अधिकारी हमारी जरूरतों और तर्जुबों को जोड़कर देखते और समझते हैं। वे हमारी अगली पीढ़ियों को सही से खड़ा करना चाहते हैं, अच्छे अधिकारियों को सरकार हमारे पुनर्वास के काम में लगाए। इसमें दिक्कत क्या है?’

राहत का रास्ता

‘आपके यहाँ रहने को सरकार का वन विभाग अवैध बता रहा है?’ यह सुनते ही फिरोजदीन बोले, ‘लोक सभा व विधानसभा चुनाव में हमसे बोट डलवाई जाती रही, तब तो हम अवैध नहीं होते’ उन्होंने इस मसले पर आने वाली असल दिक्कत कुछ यूँ बताई, ‘दिक्कत ये है कि चुनाव 5 साल बाद आते हैं। हर साल हो जाएँ तो हम जैसे गरीब ठीक से जिन्दा रह सकेंगे।’

अपने समुदाय के घरों पर वन विभाग द्वारा हाल के हुए हमलों का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया, ‘हादसे के बाद अब तक यहाँ कोई नहीं आया। किसी ने नहीं सोचा कि इनके घर तोड़े गए हैं तो सर्दियों में इनके परिवार और पशु कहाँ रहेंगे? अगर चुनाव हर साल होते तो सारे नेता हमारी हमदर्दी में जरूर आते।’

वफादार व जानकार

वनों में पैदा हुए, पले, बढ़े वन गूजर वन्य जीवों के अच्छे जानकार होते हैं। ये वन्य जीवों के बारे में कभी शिकायत नहीं करते। उनसे इन्हें डर नहीं सताता। वन व वन्य जीव के बीच सह अस्तित्व की सही समझ इनकी जीवनशैली की विशिष्टता है। ये जंगलों में निहत्थे घूमते हैं। दिन-रात जंगलों के बीच रहने वाले इन लोगों पर वन्य जीवों द्वारा जानलेवा हमले की घटनाएँ अपेक्षाकृत नगण्य ही सुनने को मिलती हैं। प्रकृति और वन्य जीवों के बीच सामंजस्य के साथ रहने के सह अस्तित्व के सिद्धान्त को व्यावहारिक स्तर पर स्वीकारना ही समस्या का हल है।

वर्ष 2012 में कुनाऊ चौड़ के सामने के जंगल में मरे टाइगर के मामले में दो वन गूजरों की गिरफ्तारी पर आरोप था कि गिरफ्तारी की जगह गलत दिखाई थी। इस बारे में फिरोजदीन का कहना था कि वनों से लकड़ी, जड़ी बूटियों की तस्करी व वन्य जीवों के मारे जाने सब तरह की वारदातों के बारे में निष्पक्ष जाँच हो तो साफ होगा कि वनों को खतरा किधर से है? उनके अनुसार, ‘हमारे समुदाय को वन विभाग में गार्ड तक की नौकरी नहीं दी गई। उल्टे वनों से पूरी तरह दूर रखने की कोशिशें की गई, वनों को जानने समझने वालों को जंगलों से दूर रखने की वजह क्या है? आश्चर्य है कि सरकार के वन विभाग में इन्हें एक नौकरी देना तक उचित नहीं समझा।’

बदलाव और हरा भरापन

समय के साथ वनों में आये बदलावों की चर्चा पर फिरोजदीन बोले कि सच यह है कि वन विभाग ने ही जंगल तबाह किये हैं। जो जंगलों में कभी गए नहीं, उन्हें जंगलों के अंदरुनी हालात कभी ठीक से समझ नहीं आएँगे। सूखे पेड़ जंगल से उठाने के नाम पर जो लोग जंगलों में खड़े हरे-भरे पेड़ों को काटकर ले जाते रहे, वे ही बड़े-बड़े गीले पेड़ों को जला कर कोयला जंगलों से बाहर ले जाते रहे। अपने कामों के लिये सही लेकिन सच है कि जंगलों में आने जाने के रास्ते भी उन्होंने ही बनाए थे।

फिरोजदीन बोले, ‘अब तो जंगल में अन्दर आने-जाने के रास्ते तक नहीं बचे हैं। हर जगह लैंटिना भरा है। इससे जंगली जानवरों तक के लिये मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। अब भैसों को जंगलों में नहीं घुसने दिया जाता। जबकि लैंटिना का मुकाबला हमारी भैसें ही कर सकती हैं। वे लैंटिना के बीच से रास्ता बनाने में कामयाब हो जाती हैं।’ उनके कहने का अर्थ था कि मवेशियों के जंगलों में आने जाने से रास्तों की लैंटिना जैसी झाड़ियाँ हट जाने से एक प्रकार से फायर लाइन कट जाती थी। जो कि जंगलों में आग लगने के समय उस लगी आग को फैलने से रोकने में कारगर सिद्ध होती थी।

‘आपकी बातें सही नहीं लगती क्योंकि अगर जंगलों के हालात खराब हैं तो सामने के जंगल खूब हरे भरे दिख रहे हैं?’ मेरे यह कहने के जवाब में फिरोजदीन ने सवाल किया, ‘हरे-भरे दिखने से क्या मतलब है?’ लैंटिना से भी जंगल में हरा-भरापन दिखता है। पहले जंगल काफी घने होते थे। शीशम, बहेड़, हरड़, बाकली जैसे पेड़ खत्म होते गए। उनकी जगह कंजू पापड़ी जैसे पेड़ लेने लगे। जो लैंटिना की तरह अपने आप से ही उगते जाते हैं। खूब हरे-भरे दिखते हैं। सामने की हरियाली उसी की है। ये किसी काम के नहीं होते। पत्ते मवेशी नहीं खाते। लकड़ी किसी काम में नहीं आती। ऐसे पेड़ों से भरे जंगलों का मतलब क्या है?’

और अन्त में

इतने में एक कार आकर रुकी। नेता फिरोजदीन ने अपने पास खड़े युवक को उनसे आने के बारे में पता करने के लिये भेजा। थोड़ी देर वातावरण में चुप्पी सी रही। युवक ने आकर बताया कि राहगीर हैं छाछ पीना चाहते हैं। नेता ने युवक से कहा, ‘घर में है तो पिलाओ’ घर से छाछ लाकर पिलाई गई। आगन्तुकों ने पैसे पूछे तो जवाब में नेता ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘पानी या छाछ पिलाना हमारा धर्म है। पैसे किस बात के?’

आगन्तुकों के निकलने के बाद मैंने बातचीत को खत्म करते हुए पूछा, ‘नेता, जंगलों में खुश थे या नहीं? फिरोजदीन अतीत की खोह में उतरते गए, उनके चेहरे के भाव बदले, मुस्कराहट आने पर चेहरे की रंगत एक बच्चे में बदल गई। बोले, ‘जंगलों में हम हमेशा खुश रहते थे। वहाँ कभी-कभी कुछ गुनगुना लेते थे। यह पूछने पर जैसे? इसके जवाब में नेता बोले विछोड़े के गीत। दरअसल जीवन का यही पहला और अन्तिम सत्य है- विछोह।’
 

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