जंगलों की विनाशक आग


जंगलों में आग लगना एक स्वचालित ज्वलन की क्रिया है जो आग लगने के स्थान से सभी दिशाओं में एक बैंड के रूप में आगे बढ़ती है और जला हुआ जंगल पीछे छोड़ जाती है। समतल मैदानी भूमि और समान वृक्षों वाली भूमि में आग की अग्र रेखा का विशेष आकार एक नाशपाती के रूप जैसा होता है। जिसका दीर्घ अक्ष हवा की दिशा की ओर इंगित करता है।

अनंत काल से विश्व के उपोष्ण एवं शीतोष्ण कटिबंधीय पारितंत्रों में मनुष्य के पास अग्नि एक उपयोगी शक्ति रही है, अग्नि को एक अच्छा सेवक परन्तु बुरा मालिक कहा गया है, जंगलों तथा झाड़ियों से भरे क्षेत्रों में आग लगने-लगाने की घटनाएँ हजारों वर्षों से घटित होती रही हैं।

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार, भारत के पचास प्रतिशत जंगल आग से त्रस्त होने वाली स्थिति में हैं। जंगलों की आग न केवल इन्हें त्रस्त कर सकती है, यदि उचित प्रबंध न हो तो आस-पास की अन्य सम्पत्ति को भी नष्ट कर सकती है।

आग लगने के पश्चात उगी हुई घास अधिक पोषक तत्वों से भरपूर होती है जो घास खाने वाले वाले जन्तुओं का प्रिय भोजन है। अनेक बीजों की ऊपरी, अधजली एवं कठोर सतह उनके अंकुरण में सहायक होती है। जंगली आँवला के बीजों के कठोर कवच आग के सम्पर्क में आने से उनका प्रस्फुटन आसान हो जाता है।

यदि भूमि में जल की मात्रा 30 प्रतिशत से कम हो तो वाष्पोत्सर्जन द्वारा निकलने वाले जल की कमी से वृक्ष सूखने लगते हैं। ऐसी परिस्थिति में इथेन एवं इथिलीन गैसें वातावरण में मुक्त होती हैं, जो ज्वलनशील हैं।

जंगलों की आग तीन-प्रकार की होती है :

भूमिगत आग


बिना सड़े-गले करकट के नीचे पीट के जलने की विरल घटनाओं को ‘भूमिगत आग’ कहते हैं।

धरातलीय आग


धरातलीय आग को ‘रेंगने वाली’ आग भी कहते हैं। यह भूमि की सतह पर फैले हुए करकट को जलाती है। इसकी तीव्रता भूमि पर बिछे हुए कूड़े-करकट तथा साधारण घास और झाड़ियों की बहुलता पर आधारित है।

क्राउन आग


एक वृक्ष की चोटी से सीधे अन्य पड़ोसी वृक्षों की चोटियों तक फैलने वाली आग को क्राउन आग कहते हैं। हिमालय के चीड़ के जंगलों में फैलने वाली यह आग भयावह रूप ले लेती है क्योंकि इन वृक्षों के सभी अंगों में ज्वलनशील रसायन पाये जाते हैं। इसे कूदने वाली आग भी कहा जाता है, क्योंकि यह सड़कों, छोटे नदी नालों तथा फायर ब्रेक को लाँघकर आगे बढ़ सकती है। भूमि के ढलान तथा वनस्पति की ज्वलनशीलता के आधार पर इस आग के फैलने की गति वायु की गति की 3 से 8 प्रतिशत आँकी गई है। भारतवर्ष के जंगलों के आग की घटनाओं से ग्रसित होने में जलवायु तथा विशेष वृक्षों का होना बहुत महत्त्व रखता है। चीड़ की विभिन्न प्रजातियाँ, बाँस तथा पर्णपाती वृक्ष जिनकी पत्तियाँ प्रतिवर्ष सूखे मौसम में भूमि पर गिर जाती हैं, आग को प्रोत्साहन देते हैं। उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में कोनीफर प्रजाति के जंगलों का बाहुल्य है जिनकी पत्तियों में ज्वलनशील रसायन होते हैं।

हिमालय के जंगलों में दक्षिणमुखी ढलान के जंगलों को सबसे अधिक वर्षा तथा धूप मिलती है, इसलिये वहाँ घास और अन्य पौधों की बहुतायत होती है। इसके विपरीत उत्तरमुखी ढलान प्रायः सूखे और कम हरे-भरे रहते हैं। फलस्वरूप दक्षिणमुखी जंगलों में आग लगने की घटनाएँ अधिक भीषण रूप ले लेती हैं। घासस्थलों में जल्दी सूखने वाली घास की बहुतायत होती है, इसलिये ये प्रायः जल्दी आग पकड़ लेते हैं। जंगलों के वृक्षों की प्रजातियाँ जिनमें ज्वलनशील रसायन पाये जाते हैं आग को फैलने में सहायता देती हैं। निम्नीकृत जंगलों में आर्द्रता की कमी होती है तथा घास और अन्य अनपघटित पदार्थों का बाहुल्य रहता है जो दावाग्नि को फैलने में सहायता देते हैं।

वायु की नमी और जंगलों में आग का लगना पारस्परिक सम्बन्ध से जुड़े हैं। यदि वायु की आपेक्षिक आर्द्रता 30 प्रतिशत से कम हो तो आग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है। ज्वलनशील पदार्थों में भी अधिक आर्द्रता हो तो ये नहीं जलते। इसलिये हरे-भरे वृक्षों के तने आसानी से नहीं जलते। घास अपनी नमी आसानी से खो सकती है और आग पकड़ लेती है।

हिमालय के दुर्गम जंगलों में आग को वश में करना एक कठिन कार्य है। आग लगने पर उसे यथाशीघ्र बुझाने का प्रयास तो अवश्य किया जाता है परन्तु इसमें कितनी सफलता मिलेगी कहना कठिन है। जंगलों में अग्निरोधकों का निर्माण कर आग को फैलने से रोकना एकमात्र सफल उपाय है। जंगलों में सावधानी से सीमित आग लगाकर ज्वलनशील पदार्थों को नष्ट करना भी एक लाभदायक विकल्प है। अमेरिका, कनाडा तथा अन्य कई देश जंगलों में आग की विभीषिका से जूझने में वायुयानों, हेलिकॉप्टरों, जल के बमों इत्यादि का प्रयोग करते हैं जो एक बार में 40 टन जल उड़ेलने में समर्थ हैं। हेलिकॉप्टरों की सहायता से जल द्वारा आग बुझाने का काम अत्यंत महँगा होता है। 10,000-14,000 फुट की ऊँचाइयों से गिराये गये जल का एक बड़ा भाग वायुमंडल में ही व्यर्थ चला जाता है। उत्तरांचल में यह जल नैनीताल के समीप स्थित भीमताल तथा गढ़वाल में श्रीनगर के जलाशय से लिया जाता है। इस वर्ष जंगलों की आग ने हिमालय के 3500 हेक्टेयर के जंगलों को हानि पहुँचाई है। आग को बुझाने के प्रयास में छः जानें भी गईं और अनेकों वन्य प्राणी तथा पक्षी भी मारे गये।

लगभग 1000 वर्ष पूर्व मनुष्य ने खेती करना सीखा। जंगलों को जलाकर उस भूमि में मक्का, ज्वार, बाजरा इत्यादि उगाये गये। जंगलों की धरती जो अम्लीय थी, वृक्षों के जलने से बनी राख से मिलकर उदासीन बन गई और उपज में वृद्धि होने लगी। खेती के इस स्वरूप को पूर्वोत्तर भारत में झूम खेती कहा गया। झूम खेती का एक चक्र, जब वह भूमि दोबारा इसी विधि को दोहरायेगी, ‘झूम-चक्र’ कहलाया। आरम्भ में यह चक्र 25 वर्ष का होता था और इतने समय में भूमि की उर्वरता पूर्णतः लौट आती थी। जनसंख्या में वृद्धि के साथ ये चक्र संकुचित होकर 2-3 वर्ष के रह गये। तेज बारिश ने मिट्टी और पोषक तत्वों को बहाकर भूमि की उर्वरता नष्ट कर दी। ‘झूम’ खेती ने पूर्वोत्तर भारत की अद्भुत जैवविभिन्नता को अत्यंत हानि पहुँचाई है। इतना ही नहीं जंगलों को जलाने के बाद आक्रामक घास और वनस्पति ने स्थानीय वनस्पति को पीछे छोड़ दिया है।

लैन्टाना नामक पौधा दक्षिणी और मध्य अमेरिका का एक आक्रामक पौधा है जो इसके रंग-बिरंगे सजावटी फूलों के कारण सबसे पहले उत्तराखण्ड के काठगोदाम नामक नगर में लाया गया था। आज अपने ढेर सारे बीजों की सहायता से यह पूरे देश में फैला हुआ है। लैन्टाना को विश्व के सौ सर्वाधिक आक्रामक पौधों की श्रेणी में रखा गया है। इसकी ज्वलनशील झाड़ियाँ जंगलों के वृक्षों में 20 फुट तक चढ़ जाती हैं और उनमें आग भड़काती हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति विदेशों से लाई गई पार्थीनियम (Parthenium hysterophorus) नामक विषैले पौधे की भी है जिसका पराग एलर्जी देता है और जिसे नष्ट करना अत्यंत कठिन कार्य है।

जंगलों की आग से होने वाले दूसरी मुख्य हानि है, वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का निरंतर बढ़ना जिसके अनेक दुष्परिणाम आज भी पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं हैं। जंगलों में आग लगने पर लगभग पचास प्रतिशत कार्बन के सूक्ष्म कण वायुमंडल में प्रवेश करते हैं। एक अन्य कथानुसार जैवमात्रा को जलाने पर 40 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड तथा ट्रोपोस्फीयर के ओजोन का 30 प्रतिशत उत्सर्जित होता है। इसके अतिरिक्त वायुमंडल में छोड़ी जाने वाली अन्य गैसें हैं- कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बोनिल सल्फाइड, मीथेन तथा नाइट्रिक ऑक्साइड जो रासायनिक रूप से सक्रिय होती हैं।

उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश के चीड़ के जंगलों में ग्रीष्म के आगमन पर प्रायः हर वर्ष आग लगने की घटनाएँ होती हैं जिसका मुख्य कारण है भूमि पर बिछी हुई अत्यंत ज्वलनशील चीड़ की सूच्याकार पत्तियों का ढेर जिनका भार तीन करोड़ मीट्रिक टन आँका गया है। इन पत्तियों का कोई समुचित उपयोग भी नहीं किया जा सका है। अच्छा होता यदि कोई उद्यमी या वैज्ञानिक इस समस्या का हल निकाल सकता। आग को फैलने से रोकने के लिये जंगलों में फायर लाइनों का निर्माण अंग्रेजों के समय किया गया था। कालान्तर में इनके रख-रखाव में ढीलापन आ गया और आज अधिकांश फायर लाइनें वृक्षों, झाड़ियों और सूखी पत्तियों से भरी रहती हैं जो जंगल में लगी आग को सीमित नहीं रख सकतीं। इन फायर लाइनों को प्रभावी बनाने तथा नई फायर लाइनों के निर्माण के लिये नियमों में आवश्यकतानुसार शीघ्रतिशीघ्र फेरबदल करना हमारे जंगलों के हित में है।

सम्पर्क
डॉ. चन्द्रशेखर पांडे, 9598, सी-9, बसंत कुंज, नई दिल्ली 110 070, (मो. : 09971838963)

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