‘जोड़ने’ में न टूटें लक्ष्मण रेखाएं

9 Apr 2012
0 mins read
river
river

हिमालय का नक्शा ऊपर से देखें तो गंगा और यमुना का उद्गम बिल्कुल पास-पास दिखाई देगा लेकिन यह पर्वत का भूगोल ही है कि दोनों नदियों को प्रकृति ने अलग-अलग घाटियों में बहाया और फिर बहुत धीरज के साथ पर्वत को काट-काटकर प्रयाग तक पहुंच कर इनको मिलाया। न्याय देने वाला पक्ष-विपक्ष की लंबी-लंबी दलीलें सुनता है और तब वह नीर, क्षीर, विवेक के अनुसार फैसला सुनाता है। दूध का दूध और पानी का पानी। लेकिन नदी जोड़ो प्रसंग में अदालत ने दोनों बार दूध भुला दिया और पानी को पानी से जोड़ने का आदेश दे दिया है।

लगता है लक्ष्मण रेखाएं तोड़ने का यह स्वर्ण-युग आ गया है। जिसे देखो वह अपनी मर्यादाएं तोड़कर न जाने क्या-क्या जोड़ना चाहता है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने नदी जोड़ने के लिए सरकार को आदेश दिया है। एक समिति बनाने को कहा है और उसकी संस्तुतियां भी एक निश्चित अवधि में सरकार के दरवाजे पर डालने के लिए कहा है और शायद यह भी कि सरकार संस्तुतियां पाते ही तुरंत सब काम छोड़कर देश की नदियां जोड़ने में लग जाए! यह दूसरी बार हुआ है। इससे पहले एनडीए के समय में बड़ी अदालत ने अटलजी की सरकार को कुछ ऐसा ही आदेश दिया था, तब विपक्ष में बैठी सोनिया जी और पूरी कांग्रेस उनके साथ थी। एनडीए के भीतरी ढांचे में आज की तरह किसी भी घटक ने इसका कोई विरोध नहीं किया था। सबसे ऊपर बैठे राष्ट्रपति भी इस योजना को कमाल का मानते थे।

प्रधानमंत्री जी ने भी देश भर की नदियों को तुरंत जोड़ देने के लिए एक भारी-भरकम व्यवस्थित ढांचा बना दिया था और उसको चलाए रखने के लिए एक भारी-भरकम राशि भी सौंप दी थी। इसके संयोजक बनाए गए थे सुरेश प्रभू। नदी जोड़ना प्रभू का काम है। लेकिन प्रभू के बदले सुरेश प्रभु इसमें पड़े। सब कुछ होने के बाद भी अटलजी के समय में यह योजना लगातार टलती चली गई। इतनी टली कि यूपीए-1 और फिर निहायत कमजोर यूपीए-2 को भी पार करके वापस बड़ी अदालत के दरवाजे पर पहुंच गई। अब बड़ी अदालत ने फिर से वह पुलिंदा सरकार के दरवाजे पर फेंका है।

देश का नक्शा, देश का भूगोल इसकी इजाजत नहीं देता। यदि यह कोई करने लायक काम होता तो प्रकृति ने कुछ लाख साल पहले इसे करके दिखा दिया होता। आज के रेल मंत्रियों की तरह प्रकृति के नदी मंत्री ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक सीधी, सुंदर नदी बना दी होती। लेकिन उसने ऐसा कोई काम इसलिए नहीं किया क्योंकि कुछ करोड़ साल के इतिहास में देश का उतार-चढ़ाव, पर्वत, पठार और समुद्र की खाड़ी बनी है। उसमें देश के चारों कोनों से नदियों को जोड़कर बहाने की गुंजाइश ही नहीं है।

ऐसा नहीं है कि प्रकृति खुद नदी नहीं जोड़ती है। जरूर जोड़ती है लेकिन उसके लिए कुछ लाख साल धीरज के साथ काम करना होता है। हिमालय का नक्शा ऊपर से देखें तो गंगा और यमुना का उद्गम बिल्कुल पास-पास दिखाई देगा लेकिन यह पर्वत का भूगोल ही है कि दोनों नदियों को प्रकृति ने अलग-अलग घाटियों में बहाया और फिर बहुत धीरज के साथ पर्वत को काट-काटकर आज के इलाहाबाद तक पहुंच कर इनको मिलाया। समाज भी प्रकृति के इस कठिन परिश्रम को समझता था, इसलिए उसने ऐसी जगहों को एक्स, वाई, जेड जैसा अभद्र नाम देने के बदले तीर्थ की तरह, प्रयाग मन में बसाया। देश भर की सभी नदियों को देख लीजिए, उसमें जहां कहीं भी दूसरी नदी आकर मिलती है, उस जगह को बड़ी कृतज्ञता से तीर्थ की तरह याद रखता है।

कचहरियों का काम अन्याय सामने आने पर न्याय देने का होता है। यह काम भी किसी भावुकता के आधार पर नहीं होता। न्याय देने वाला पक्ष-विपक्ष् की लंबी-लंबी दलीलें सुनता है और तब वह नीर, क्षीर, विवेक के अनुसार फैसला सुनाता है। दूध का दूध और पानी का पानी। लेकिन नदी जोड़ो प्रसंग में अदालत ने दोनों बार दूध भुला दिया और पानी को पानी से जोड़ने का आदेश दे दिया है। बिना दलीलें सुने।

यह संभव है और यह स्वाभाविक भी है कि अदालत का ध्यान पानी की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों और नागरिकों की तरफ जाए। और वह उन तक तुरंत पानी पहुंचाने के लिए सरकार को खींचे। लेकिन इसमें ऐसे आदेशों से किन्हीं और इलाकों पर कैसा अन्याय होगा, लगता है कि इसकी तरफ अदालत का ध्यान गया ही नहीं है। अदालत अगर अपने यहां चले मुकदमों के रजिस्टरों की धूल को झाड़कर देखे तो उसे पता चलेगा कि उसी के यहां नदियों के पानी के बंटवारों को लेकर अनेक राज्य सरकारों के मामले पड़े हैं। इनमें से कुछ पर अभी फैसला आना बाकी है और जिन भाग्यशाली मुकदमों में फैसले सुना दिए गए हैं, उन फैसलों को कई राज्य सरकारों ने मानने से इंकार कर दिया या यदि यह अवमानना जैसा लगे तो उसे ढंग से लागू नहीं होने दिया है। ये सूची बहुत लंबी है और इसमें सचमुच कश्मीर से कन्या कुमारी तक विवाद बहता मिल जाएगा।

हमारे देश में प्रकृति ने हर जगह एक सा पानी नहीं गिराया है। एक सा भू-जल नहीं दिया है। जैसलमेर से लेकर चेरापूंजी तक वर्षा के आंकड़ों में सैकड़ों या हजारों मिलीमीटर का अंतर पड़ता है। इन सब जगहों पर रहने वाले लोगों ने उन्हें जितना बरसात और पानी मिला, उसी में अपना काम बखूबी करके दिखाया था। लेकिन अब विकास का नया नारा सब जगह एक से सपने बेचना चाहता है और दुख की बात यह है कि इसमें न्याय देने वाले लोग भी शामिल होना चाह रहे हैं। नदी जोड़ो प्रसंग में अदालत ने दोनों बार दूध भुला दिया और पानी को पानी से जोड़ने का आदेश दे दिया है। ऐसे लोगों और संस्थाओं को अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाओं के भीतर रहना चाहिए और कभी रेखाओं को तोड़ना भी पड़े तो बहुत सोच-समझकर ऐसा करना चाहिए।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading