जरूरत है पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता

इन दिनों अमेरिका के कई राज्यों मे पतझड़ शुरू हो गया है। नियम है कि हर पेड़ से गिरने वाली प्रत्येक पत्ती और यहाँ तक कि सींक को भी उसी पेड़ को समर्पित किया जाता है। समाज के कुछ लोग पुराने पेड़ों के तनों की मर गई छाल को खरोंचते हैं और इसे भी पेड़ की जड़ों में दफना देते हैं। पेड़ों की पत्तियों को ना जलाने और उन्हें जैविक खाद के रूप में संरक्षित करने के कई नियम व नारे तो हमारे यहाँ भी हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल महज किसी को नीचा दिखाने या सबक सिखाने के लिये ही होता है। यहाँ तक कि कई-कई सरकारी महकमें भी अलसुबह पेड़ों से गिरी पत्तियों को माचिस दिखा देते हैं।

असल में हम अभी तक पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का पाठ अपने समाज को दे नहीं पाये हैं और अपने परिवेश की रक्षा के नाम पर बस कानून का खानापूर्ति करते हैं, इसमें वाहनों का प्रदूषण परीक्षण भी है और नदी-तालाब को सहेजने के अभियान भी।

पिछले 60 वर्षों में भारत में पानी के लिये कई भीषण संघर्ष हुए हैं, कभी दो राज्य नदी के जल बँटवारे पर भिड़ गए तो कहीं सार्वजनिक नल पर पानी भरने को लेकर हत्या हो गई। खेतों में नहर से पानी देने को हुए विवादों में तो कई पुश्तैनी दुश्मनियों की नींव रखी हुई हैं। यह भी कड़वा सच है कि हमारे देश में औरत पीने के पानी की जुगाड़ के लिये हर रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हैं।

पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। इसके बावजूद देश के हर गाँव-शहर में कुएँ, तालाब, बावड़ी, नदी या समुद्र तक को जब जिसने चाहा है दूषित किया है। अब साबरमति नदी को ही लें, राज्य सरकार ने उसे बेहद सुन्दर पर्यटन स्थल बना दिया, लेकिन इस सौन्दर्यीकरण के फेर में नदी का पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट कर दिया था।

नदी के पाट को एक चौथाई से भी कम घटा दिया गया, उसके जलग्रहण क्षेत्र में पक्के निर्माण कर दिये गए। नदी का अपना पानी तो था नहीं, नर्मदा से एक नहर लाकर उसमें पानी भर दिया। अब वहाँ रोशनी है, चमक-धमक है, बीच में पानी भी दिखता है, लेकिन नहीं है तो नदी, उसके अभिन्न अंग, उसके जल-जीव, दलदली जमीन, जमीन की हरियाली, व अन्य जैविक क्रियाएँ।

सौन्दर्यीकरण के नाम पर पूरे तंत्र को नष्ट करने की कोशिशें महज नदी के साथ नहीं, हर छोटे-बड़े कस्बों के पारम्परिक तालाबों के साथ भी की गई। तालाब के जलग्रहण व निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसका आमाप समेट दिया गया, बीच में कोई मन्दिर किस्म की स्थायी आकृति बना दी गई। व इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर दिया गया।

बलिया का सुरहा ताल तो बहुत मशहूर है, लेकिन इसी जिले का एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैंकड़ों निजी तालाबों के कारण पड़ा था, सर यानि सरोवर से ‘सड़’ हुआ। हर घर का एक तालाब था, वहाँ, लेकिन जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी व घरों में नल लगे, फिर गुसलखाने आये, नालियाँ आई, इन तालाबों को गन्दगी डालने का नाबदान बना दिया गया। फिर तालाबों से बदबू आई तो उन्हें ढँककर नई कालेानियाँ या दुकानें बनाने का बहाना तलाश लिया गया।

साल भर प्यास से कराहने वाले बुन्देलखण्ड के छतरपुर शहर के किशोर सागर का मसला बानगी है कि तालाबों के प्रति सरकार का रुख कितना कोताही भरा है। कोई डेढ़ साल पहले एनजीटी की भोपाल बेंच ने सख्त आदेश दिया कि इस तालाब पर कब्जा कर बनाए गए सभी निर्माण हटाए जाएँ। अभी तक प्रशासन मापजोख नहीं कर पाया है कि कहाँ-से-कहाँ तक व कितने अतिक्रमण को तोड़ा जाये। गाजियाबाद में पारम्परिक तालाबों को बचाने के लिये एनजीटी के कई आदेश लाल बस्तों में धूल खा रहे हैं।

छतरपुर में तालाब से अतिक्रमण हटाने का मामला लोगों को घर से उजाड़ने और निजी दुश्मनी में तब्दील हो चुका है। गाजियाबाद में तालाब के फर्श को सीमेंट से पोतकर उसमें टैंकर से पानी भरने के असफल प्रयास हो चुके हैं। अब हर शहर में कुछ लोग एनजीटी या आरटीआई के जरिए ऐसे मसले उठाते हैं और आम समाज उन्हें पर्यावरण रक्षक से ज्यादा कथित तौर पर दबाव बनाकर पैसा वसूलने वाला समझता है।

दिल्ली से सटे बागपत जिले में ईंट के भट्टों पर पाबन्दी लगाने, हटाने, मुकदमा करने के नाम पर हर साल करोड़ों की वसूली होती है। ईंट भट्टों वालों और उनके खिलाफ अर्जियाँ देकर वसूली करने वाले और साथ ही प्रशासन भी यह नहीं सोचता कि इन भट्टों के कारण जमीन और हवा को हो रहे नुकसान का खामियाजा हमारे परिवार व समाज को ही भोगना है।

दिल्ली में ही विश्व सांस्कृतिक संध्या के नाम पर यमुना के सम्पूर्ण इको-सिस्टम यानि पर्यावरणीय तंत्र को जो नुकसान पहुँचाया गया, वह भी महज राजनीति की फेर में फँसकर रह गया। एक पक्ष यमुना के पहले से दूषित होने की बात कर रहा था तो दूसरा पक्ष बता रहा था कि पूरी प्रक्रिया में नियमों को तोड़ा गया। पहला पक्ष पूरे तंत्र को समझना नहीं चाहता तो दूसरा पक्ष समय रहते अदालत गया नहीं व ऐसे समय पर बात को उठाया गया जिसका उद्देश्य नदी की रक्षा से ज्यादा ऐन समय पर समस्याएँ खड़ी करना था।

लोग उदाहरण दे रहे हैं कुम्भ व सिंहस्थ का, वहाँ भी लाखों लोग आते हैं, लेकिन वह यह नहीं विचार करते कि सिंहस्थ, कुम्भ या माघी या ऐसे ही मेले नदी के तट पर होते हैं, नदी तट हर समय नदी के बहाव से ऊँचा होता है और वह नदियों के सतत मार्ग बदलने की प्रक्रिया में विकसित होता है, रेतीला मैदान। जबकि किसी नदी का जल ग्रहण क्षेत्र, जैसा कि दिल्ली में था, एक दलदली स्थान होता है जहाँ नदी अपने पूरे यौवन में होती है तो जल का विस्तार करती है। वहाँ भी धरती में कई लवण होते हैं, ऐसे छोटे जीवाणु होते हैं। जो ना केवल जल को शुद्ध करते हैं बल्कि मिट्टी की सेहत भी सुधारते हैं। ऐसी बेशकीमती जमीन को जब लाखों पैर व मशीनें रौंद देती हैं। तो वह मृत हो जाती हैं व उसके बंजर बनने की सम्भावना होती है।

नदी के जल का सबसे बड़ा संकट उसमें डीडीटी, मलाथियान जैसे रसायनों की मात्रा बढ़ना है। यह केवल पानी को जहरीला नहीं बनाते, बल्कि पानी की प्रतिरोधक क्षमता को भी नष्ट कर देते हैं। सनद रहे पानी में अपने परिवेश के सामान्य मल, जल-जीवों के मृत अंश व सीमा में प्रदूषण को ठीक करने के गुण होते हैं, लेकिन जब नदी में डीडीटी जैसे रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है तो उसकी यह क्षमता भी चुक जाती है। दिल्ली में भक्तों को मच्छरों से बचाने के लिये हजारों टन रसायन नदी के भीतर छिड़का गया। वह तो भला हो एनजीटी का, वरना कई हजारा लीटर कथित एंजाइम भी पानी में फैलाया जाता। सवाल यही है कि हम आम लोगों को नदी की पूरी व्यवस्था को समझाने में सफल नहीं रहे हैं।

देश के कई संरक्षित वन क्षेत्र, खनन स्थलों, समुद्र तटों आदि पर समय-समय पर ऐसे ही विवाद होते रहते हैं। हर पक्ष बस नियम, कानून, पुराने अदालती आदेशों आदि का हवाला देता है, कोई भी सामाजिक जिम्मेदारी, अपने पर्यावरण के प्रति समझदारी और परिवेश के प्रति संवेदनशीलता की बात नहीं करता है। ध्यान रहे हर बात में अदालतों व कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमें और सामाजिक व्यवस्था जीर्ण-शीर्ण होती जा रही है और अब हर बात डंडे के जोर से मनवाने का दौर आ गया है। इससे कानून तो बच सकता है, लेकिन पर्यावरण नहीं।
 

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