जरूरत जो बन गई मुसीबत

5 Jul 2011
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रोजमर्रा की जिंदगी में प्लास्टिक इस तरह रच-बस गया है कि उससे पूरी तरह छुटकारा पाना कठिन है। यह जितना उपयोगी है उतना ही नुकसानदेह। प्लास्टिक की व्यापकता और इससे मुक्ति के उपायों का जायजा ले रही हैं गायत्री आर्य।

प्लास्टिक का इतने लंबे समय तक न गलना सबसे बड़ी परेशानी का कारण है। इसी कारण इसे न तो जमीन में गाड़ा जा सकता, न ही हवा में उड़ते छोड़ा जा सकता, न ही पानी में तैरते छोड़ा जा सकता, न ही जलाया जा सकता है, क्योंकि इसे जलाने से जहरीले तत्त्व हवा में घुलते हैं। प्लास्टिक का यह लगभग ‘अमर रूप’ न सिर्फ इंसानों का जीवन संकट में डाल रहा है बल्कि जानवरों को भी मौत के घाट उतार रहा है।

बारिश के कारण 2009 में मुंबई में जो तबाही मची थी उसके लिए काफी हद तक पॉलिथीन से अटी पड़ीं नालियां और नाले जिम्मेदार थे। इंसानी सभ्यता की वाहक नदियां अब पॉलिथीन और दूसरे प्लास्टिक के कचरे से अटी पड़ी हैं। इंसानों और जीवों के जीवनदायी नदी, झील, तालाब, समुद्र प्लास्टिक के कचरे को ढोने वाले बनकर ही रह जाएंगे। सस्ता, हल्का, टिकाऊ, मजबूत, कम जगह घेरने वाला, लोचदार, हर तरह के सामान को ले जा सकने वाला, तापरोधी जैसी खासियतों के साथ प्लास्टिक एक बहुउपयोगी और बहुउद्देशीय वस्तु की तरह जहन में आता है। फिर ऐसा क्या है कि पूरी दुनिया में इस बहुउपयोगी चीज के प्रति लोगों, संस्थाओं, व्यवस्थाओं का गुस्सा फूट रहा है। असल में बहुउपयोगिता प्लास्टिक का एक पक्ष है जो कि बहुत खूबसूरत है। लेकिन प्लास्टिक का दूसरा पक्ष यह है कि यह न केवल पर्यावरण के लिए खतरनाक है बल्कि इसके निर्माण में प्रयोग होने वाले कई जहरीले रसायन इंसानों के लिए भी बेहद हानिकारक हैं। प्लास्टिक वापस गलकर मिट्टी में मिलने के लिए कम से कम एक हजार साल लेती है। मतलब कि एक व्यक्ति की कम से कम दस पीढ़ियां एक पॉलिथीन को बरत सकती हैं, यदि वह ना फटे तो! असल में विज्ञान ने यह एक ऐसी चीज पैदा की है जो प्रकृति के नियम के विरुद्ध काम करती है।

प्रकृति का नियम है जन्म, विकास और मृत्यु। जो पैदा हुआ है वह शीघ्र ही खत्म हो जाएगा। ताकि फिर किसी दूसरे को नया जन्म मिले। लेकिन प्लास्टिक अपनी बहुउपयोगिता के कारण निरंतर नए-नए रूप में जन्म तो ले रही है लेकिन खत्म नहीं हो रही। धरती पर उसकी संख्या हर क्षण बढ़ती ही जा रही है और इस निरंतर बनते जाने और नष्ट न होने ने एक भयावह रूप लिया है। घर के कूड़ेदान से निकलकर प्लास्टिक बैग गली-मोहल्ले, पार्क, नालियों, नालों, नदियों, समुद्र तट, वन, जानवरों के शरीर में....हर जगह फैलती जा रही है। यह कल्पना कितनी खौफनाक है कि आज नदियों, समुद्र तटों पर जो पॉलिथीन पड़ी है वे सदियों बाद तक ऐसे ही पड़े-पड़े इंसानों की कई पीढ़ियों को मुंह चिढ़ाती रहेगी। प्लास्टिक का इतने लंबे समय तक न गलना सबसे बड़ी परेशानी का कारण है। इसी कारण इसे न तो जमीन में गाड़ा जा सकता, न ही हवा में उड़ते छोड़ा जा सकता, न ही पानी में तैरते छोड़ा जा सकता, न ही जलाया जा सकता है, क्योंकि इसे जलाने से जहरीले तत्त्व हवा में घुलते हैं। प्लास्टिक का यह लगभग ‘अमर रूप’ न सिर्फ इंसानों का जीवन संकट में डाल रहा है बल्कि जानवरों को भी मौत के घाट उतार रहा है। डॉल्फिन, व्हेल, पैंग्विन, जैसे लगभग एक लाख समुद्री जीव हर साल प्लास्टिक बैग खाने से मर रहे हैं। उससे भी खौफनाक यह है कि पशुओं के सड़ने के बाद भी उनके भीतर जो पॉलिथीन है वह सड़ता या गलता नहीं। भारत में सिर्फ उत्तर प्रदेश में सौ गाएं प्रतिदिन पॉलिथीन खाने से मरती हैं। ऐसी ही एक गाय के पेट में 35 किलो प्लास्टिक पाई गई थी। यह पॉलिथीन महानगरों में ‘नकली बाढ़’ का भी प्रमुख कारण बनती है।

प्लास्टिक कचराप्लास्टिक कचराप्लास्टिक का एक और बेहद खतरनाक रूप प्लास्टिक के खिलौनों और बच्चों के प्लास्टिक के सामान के रूप में सामने आ रहा है। थैलेट्स नामक एक जहरीला रसायन प्लास्टिक के खिलौनों को नरम और मुलायम बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। शोध में पता चला है कि इस रसायन के इस्तेमाल से बने खिलौने प्रयोग करने पर नंपुसकता, पुनरुत्पादन संबंधी बीमारियां, असमय जन्म, समय पूर्व प्रौढ़ता, दातों संबंधी बीमारी या फिर मष्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव वगैरह बीमारियों की आशंका काफी बढ़ जाती है। जर्मनी के गुटनबर्ग विश्वविद्यालय के एक शोध में सामने आया है कि बच्चों के लिए बनने वाली प्लास्टिक की तीन चीजों में से एक चीज में खतरनाक रसायन मौजूद हैं। खासतौर से दूध की बॉटल, निप्पल, तरल चीजें पाने वाले कप में बीपीए नामक खतरनाक रसायन पाया जाता है जो कि बच्चों के मस्तिष्क विकास में बाधा डालता है।

बच्चों, मनुष्यों, पर्यावरण और जीवों के लिए खतरनाक साबित हो रहे प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने के लिए दुनिया भर में कोशिशें चल रही हैं। एशिया में बांग्लादेश पहला देश था जिसने 2002 में प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध लगाया था। 2002 में डब्लिन में प्लास्टिक बैग पर कर लगाकर इसके प्रयोग को 95 फीसद तक कम किया है। 2009 में अमेरिका ने भी प्लास्टिक के नरम खिलौनों पर प्रतिबंध लगाया। इसी प्रकार यूरोपीय संघ और डेनमार्क ने भी अनुत्पाद रसायनों से बनी बच्चों की दूध की बोतलों को प्रतिबंधित किया। इसी कड़ी में भारत में भी पॉलिथीन के निर्माण, प्रयोग और वितरण पर प्रतिबंध लगाया गया। लेकिन राजस्थान और असम जैसे कुछेक राज्यों को छोड़कर बाकी जगहों पर अभी भी धड़ल्ले से पॉलिथीन का प्रयोग जारी है। हम अपने सुविधाजनक वर्तमान के लिए भविष्य को भयावहता की तरफ धकेल रहे हैं।

प्लास्टिक निर्माण में खतरनाक रसायनों का प्रयोग बंद करके, उपभोग के चरम की जगह संयम से उपभोग करके और जैविक रूप से गलने वाले प्लास्टिक का उत्पादन बढ़ाकर पॉलिथीन के प्रकोप से बचा जा सकता है और प्लास्टिक की बहुउपयोगिता का आनंद लिया जा सकता है।

उपभोगवाद के चरम के दौर में प्लास्टिक के प्रकोप से बचना नामुमकिन है। विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों में उपभोग का दौर अपने चरम पर है। नतीजतन प्लास्टिक का अथाह कचरा पैदा हो रहा है। विकासशील देश पहले ही इस कचरे के व्यवस्थित निपटान में असमर्थ हैं। ऐसे में विकसित देश अपना प्लास्टिक का बेपनाह कचरा विकासशील देशों में भेजकर उन देशों को और ज्यादा मुश्किल में डाल रहे हैं। विकसित देशों का विकासशील देशों के साथ ऐसा ही रिश्ता है। विकास की मलाई उनके हिस्से में आती है विकास के कुपरिणाम हमारे हिस्से में। उपभोग की विलासिता उनके लिए, उपभोग से पैदा कचरा हमारे लिए। छोटे-बड़े मॉल, पिज्जा-बर्गर, पेप्सी-कोला के कंटेनर विकसित देशों के लिए प्लास्टिक के डब्बे, बोतल, टीन-टप्पर हम विकाशशील देशों के लिए। इसी सबको ध्यान में रखकर 1996 में दिल्ली हाईकोर्ट ने जहरीले और खतरनाक कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगाया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस निर्णय को सही ठहराते हुए खतरनाक कचरे के आयात पर प्रतिबंध को जारी रखा। लेकिन अभी भी अवैध तरीके से भारी मात्रा में प्लास्टिक के जहरीले कचरे का (रीसाइक्लिंग) पुनर्चक्रण के नाम पर आयात जारी है।

एशिया महाद्वीप में हांगकांग, फिलिपींस, इंडोनेशिया के बाद भारत सबसे ज्यादा प्लास्टिक का कचरा आयात करने वाला चौथा देश है। ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1998-1999 के बीच 100889 टन खतरनाक कचरे का भारत ने आयात किया। दो वर्ष पूर्व भी अमेरिका द्वारा 9 लाख पाउंड के 23 जहाज भारत भेजे गए जिसमें पेप्सी की प्लास्टिक की बोतलें थीं। ये सारा कचरा यहां पुनर्चक्रण की सस्ती दर के नाम पर भेजा जाता है। लेकिन इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि इस आयातित कचरे में ज्यादा मात्रा उस प्लास्टिक के कचरे की है जिसे पुनर्चक्रण नहीं किया जा सकता। सबसे ज्यादा आबादी द्वारा प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक के कचरे के साथ-साथ हम विकसित देशों का कचरा भी आयात कर रहें हैं। अमेरिका के लोगों और जीवों के प्रति हमारी सरकारों की संवेदना उसके अपने लोगों के प्रति संवेदना से ज्यादा क्यों है?

न गलने, सड़ने वाले प्लास्टिक के स्वस्थ विकल्प के तौर पर (फोटो डिग्रेडेबल) सूर्य की रोशनी में गलने वाले (बायोडिग्रेडेबल) जैविक रूप से सड़ने वाले और रासायनिक रूप से गलाकर दोबारा प्रयोग में लाए जा सकने वाले पॉलिथीन के सफल प्रयोग तो हो चुके हैं। लेकिन इस पर्यावरण अनुकूल पॉलिथीन की निर्माण लागत अभी बहुत ज्यादा है। सूर्य के प्रकाश से खत्म होने वाली पॉलिथीन की उम्र एक से तीन वर्ष है। सूर्य के प्रकाश के संपर्क में आते ही यह धीरे-धीरे भुरभुरी हो कर मिट्टी में मिल जाती है। कागज, जूट, कपड़े के थैले पॉलिथीन का अच्छा विकल्प हो सकते हैं। लेकिन अभी भी इन विकल्पों पर संजीदा तरीके से ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जब तक सूर्य की रोशनी में गलने वाले, जैविक रूप से गलने वाले पॉलिथीन का चलन बढ़ेगा तब तक पता नहीं पृथ्वी के कितने जीव प्लास्टिक बैग की बलि चढ़ चुके होंगे?

एक नवजात शिशु जब इस दुनिया में आता है तब उसका स्पर्श जिन दुनियावी चीजों से होता है उनमें से एक प्लास्टिक भी है! बीसीजी का जो टीका बच्चे को जन्म के एक दिन बाद ही दिया जाता है वह इंजेक्शन प्लास्टिक का ही होता है। मां द्वारा बच्चे को दूध न पिला पाने की स्थिति में बच्चे को बिना सुई के इंजेक्शन से ही लेक्टोजन पिलाया जाता है। हम सोच सकते हैं कि ऐन जन्म के वक्त से प्लास्टिक का हमारे जीवन में प्रयोग शुरू हो जाता है, जो कि फिर जीवन भर चलता है। इंसान के जीवन में प्लास्टिक की कितनी व्यापकता है इसका अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि जन्म के समय से लेकर मरने तक हम प्लास्टिक की चीजें प्रयोग करते ही जाते हैं। प्लास्टिक ने लोहा, तांबा, पीतल, स्टील जैसी तमाम धातुओं के साथ लकड़ी को भी पीछे धकेलकर इंसान के जीवन में अपनी बेहद अहम जगह बना ली है। एक दिन का उपवास या मौन व्रत किसी व्यक्ति के जीवन को उतना ज्यादा प्रभावित नहीं करेगा जितना की प्लास्टिक का प्रयोग न करने का व्रत।

प्लास्टिक की इतनी व्यापकता को देखकर सहज ही उस पर इंसान की निर्भरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। प्लास्टिक के इतने दैवीय रूप देखने के बाद प्लास्टिक एक जीवनरक्षक मित्र की तरह सामने आती है। जो कि जब, जहां, जैसे भी इंसानी जरूरत के मुताबिक ढल जाती है।

उदाहरण के तौर पर सबसे पहले हम ब्रश नहीं कर पाएंगे। मंजन और दातून की तत्काल अनुपलब्धता हमारे मुंह का जायका बिगाड़ देगी। टॉयलेट-बॉथरूम के मग और बाल्टी अगर प्लास्टिक के न हो तो भी फ्लश तो प्लास्टिक का ही होगा, बॉथरूम में स्टील की बाल्टी, मग और पटरी नहीं है और साथ ही शॉवर भी नहीं है तो सिर्फ नहाने के लिए ही काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। पहनने के लिए कोई ऐसा कपड़ा चुनना पड़ेगा जिसमें प्लास्टिक के बटन न हों। चप्पल से लेकर मोबाइल तक बहुत सारी चीजों से इंसान महरूम हो जाएगा। टीवी और लैपटॉप को भई सिर्फ दूर से निहार सकते हैं वह भी बंद हालत में। बिना किसी पूर्व तैयारी के सिर्फ एक दिन का प्लास्टिक के प्रयोग का व्रत इंसान की दिनचर्या को पूरी तरह से तहस-नहस कर देगा। क्योंकि सब कुछ सामने होते हुए भी हम सारी चीजों से वंचित रहेंगे।

अलेक्जेंडर पार्कस ने 1862 में लंदन में एक प्रदर्शनी में पहली बार मानव निर्मित प्लास्टिक का प्रदर्शन किया था। इस खोज के साथ ही प्लास्टिक पर इंसान की अंतहीन निर्भरता के युग की शुरुआत हुई। उसके बाद 150 प्लास्टिक बैग की खोज हुई। आज तेल, मसालों, सब्जी, कपड़ों, किताबों, दवाइयों से लेकर अन्य तमाम जरूरी चीजों तक एक भी समान ऐसा नहीं है जो प्लास्टिक की थैली में न आता हो। पूरी दुनिया में हर साल पांच खरब प्लास्टिक बैग का प्रयोग होता है। राजधानी दिल्ली में ही रोजाना सौ लाख प्लास्टिक बैग प्रयोग होते हैं। निम्न आर्थिक वर्ग से लेकर अमीर से अमीर घर के बच्चे प्लास्टिक के खिलौनों से खेलकर बड़े होते हैं। ऐसा शायद ही कोई उद्योग हो जो अपने उत्पादों की पैकेजिंग के लिए प्लास्टिक का प्रयोग नहीं करते। पहले स्थान पर घरेलू उपकरणों में बसे ज्यादा प्लास्टिक का उपयोग होता है। दूसरे नंबर पर सामान पैक करने से सबसे ज्यादा प्लास्टिक का प्रयोग होता है। बाहर से देखने पर लगता है कि बिल्डिंग निर्माण कार्य में सिर्फ सीमेंट, ईंट, लोहा, स्टील, रेत, बजरी का प्रयोग होता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि इमारत निर्माण क्षेत्र,प्लास्टिक के प्रयोग में तीसरे नंबर पर है।

प्लास्टिक के जोड़, पाइप, बिजली के तार, खिड़की के फ्रेम दरवाजे, यहां तक कि घर की आंतरिक साज-सज्जा में भी प्लास्टिक का इस्तेमाल खूब होने लगा है। इमारत और निर्माण कार्य में प्लास्टिक के प्रयोग के कई कारण है-जैसे प्लास्टिक का तुलनात्मक रूप से सस्ता होना, फिटिंग में आसानी, सर्दी-गर्मी के बेहतर प्रतिरोधी, ऊर्जा का सेवक और साथ ही ध्वनि प्रदूषण कम करने वाला है। परिवहन के क्षेत्र में भई प्लास्टिक ने अपना परचम लहराया है। हवाई हाज, रेलगाड़ी, बस, कार, दुपहिया, नाव आदि हर कहीं प्लास्टिक का प्रयोग आराम और सुविधा के लिए और किफायती होने के कारण किया जाता है। थर्मोप्लास्टिक से बनी कारों को बनाने के लिए प्रयोग चल रहे हैं। बिजली और इलेक्ट्रानिक चीजों के लिए प्लास्टिक एक बुनियादी चीज है। बिजली के तारों से लेकर, मोबाइल फोन, डीवीडी प्लेयर के साथ-साथ लगभग सभी आधुनिक उपकरणों के महत्त्वपूर्ण भाग प्लास्टिक से ही बनाए जाते हैं। प्लास्टिक का लोचदार और हल्का होना इसकी बड़ी खासियत है जिस कारण यह बहुउपयोगी है। यहां तक कि खेती-बाड़ी भी प्लास्टिक के प्रयोग से अछूते नहीं रहे हैं। कुछ शोध में तो यहां तक कहा गया है कि प्लास्टिक के ढांचे के नीचे उगाई जाने वाली सब्जी और फल की गुणवत्ता खुले में गाई फल सब्जियों से ज्यादा बेहतर होती है।

प्लास्टिक के इलेक्ट्रानिक कचरा काफी घातक हैप्लास्टिक के इलेक्ट्रानिक कचरा काफी घातक हैप्लास्टिक के पाइपों से होने वाली सिंचाई ने न सिर्फ मानसून पर से खेती की निर्भरता को कम किया है बल्कि रेतीली और बंजर जमीनों में भी फसलें लहलहाने में मदद की है। प्लास्टिक के पाइपों से होने वाली सिंचाई ने काफी हद तक खेती में होने वाली पानी की बेतहाशा खपत को भी नियंत्रित किया है। इस तकनीक में पौधों या फसल को सिर्फ उतना ही पानी मिलता है जितना की उसके उगने और बढ़ने के लिए जरूरी है। खेल के सामान से यों तो प्लास्टिक का पुराना रिश्ता है। लेकिन आधुनिक खेल पूरी तरह से प्लास्टिक पर निर्भर करते हैं। खेल के सामान से लेकर खिलाड़ियों के जूते, किट, हैलमेट, स्टेडियम की सीटें, दौड़ने वाला ट्रैक, घुटने के पैड, प्लास्टिक मिक्स फाइबर के चश्मे वगैरह सभी चीजें प्लास्टिक से बनती हैं। अधिकतर खेलों में अहम भूमिका निभाने वाली, अलग-अलग आकार की गेंदें भी प्लास्टिक की ही देन है। प्लास्टिक न सिर्फ हमारी रोजमर्रा की और मनोरंजन की चीजों के निर्माण में ही सहयोगी है बल्कि इंसानों को कई बीमारियों से बचाने में भी अपनी जादुई भूमिका निभाता है।

चिकित्सा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्लास्टिक ने क्रांतिकारी तरीके से पूरी मानवजाति की मदद की है। सिर्फ एक बार प्रयोग की जाने वाली इंजेक्शन की सुइयां, खून की थैलियां, ग्लूकोज की बोतलें, दवाई की शीशियां, दिल में लगने वाली वॉल्स, सुनने वाली मशीन से लेकर कृत्रिम अंगों तक बार-बार प्लास्टिक एक जीवन रक्षक की तरह इंसानों के जीवन में आती है। विकलांग चिकित्सा संबंधी प्लास्टिक के उपकरण शरीर के भीतर आरोपित होकर इंसानों को कई तरह की विकलांगता का शिकार होने से बचाते हैं। यहां तक कि सिलिकोन से बना नकली कार्निया किसी इंसान की प्राकृतिक दृष्टि को लौटा सकता है, जिसका कार्निया नष्ट हो चुका हो। चिकित्सा के क्षेत्र में सर्जरी ने दुर्घटना का शिकार हुए लोगों की अविश्वसनीय तरीके से मदद की। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि प्लास्टिक सर्जरी बहुत सारे लोगों की जिंदगी में एक दूसरा भगवान बनकर आई है। प्लास्टिक सर्जरी का प्रयोग सौंदर्य प्रसाधन के तौर पर नहीं किया जाता । हां प्लास्टिक सर्जरी का उपयोग सौंदर्यवर्द्धक प्रसाधन के तौर पर किया जरूर जाता है। प्लास्टिक सर्जरी का प्रयोग शल्यचिकित्सा, जले हुए का इलाज करने और सूक्ष्म शल्यचिकित्सा में किया जाता है।

चिकित्सा क्षेत्र में प्लास्टिक सबसे नया और अविश्वसनीय योगदान है ‘प्लास्टिक खून’ का निर्माण! यह प्लास्टिक खून, प्लास्टिक के अणुओं से बनता है जिसमें लौह अणु है जो कि लाल रक्त कोशिकाओं की तरह शरीर में ऑक्सीजन ले जाने का काम करेगा जिसमें वैज्ञानिकों का कहना है कि ये प्लास्टिक खून, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए हल्का है, ज्यादा समय तक चलता है और इसे ठंडी जगह में रखने की जरूरत भी नहीं है। साथ ही इस खून के एचआईवी. से मुक्त होने की सौ प्रतिशत गारंटी है। प्लास्टिक की इतनी व्यापकता को देखकर सहज ही उस पर इंसान की निर्भरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। प्लास्टिक के इतने दैवीय रूप देखने के बाद प्लास्टिक एक जीवनरक्षक मित्र की तरह सामने आती है। जो कि जब, जहां, जैसे भी इंसानी जरूरत के मुताबिक ढल जाती है।

काश कि यही पूरा सच होता!

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