जवान हो गया अपना पंचायती राज

22 Apr 2013
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Panchayati raj
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अतीत की एक सिफारिश ऐसी नहीं, जो पंचायतों को कमजोर देखना चाहती हो। दो राय नहीं कि इनकी बदौलत पंचायती राज गाँवों को सत्ता सौंपने की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ा ज़रूर, लेकिन सत्ता के दलालों का खात्मा नहीं कर सका। बल्कि इसकी भूमिका दलालों को गांव तक उतार लाने वाली बन गई। दलाल और मजबूत हुए। कारण कि हम अधिकारों की मांग तो करते रहे, कर्तव्यों को जैसे भूल ही गए। अन्ना ने दलालों पर लगाम लगाने के लिए जनलोकपाल मांगा, लेकिन वह भूल गए कि मनरेगा के एक्ट ने यह अधिकार पहले ही हर ग्रामसभा को दे रखा है। जरूरत है कि ग्राम सभाएँ उस अधिकार का प्रयोग करें। इसके लिए उन्हें सक्षम बनाया जाए। इस बरस 20 का हो गया अपना नया पंचायती राज। बच्चा जब जवान हो जाता है, तो उसकी गृहस्थी बसाने की चिंता होने लगती है। समय आ गया है कि ग्रामसभा से इसकी सगाई कर दें। लेकिन इससे भी पहले जरूरी है कि हम इसे उस काम पर लगा दें, जिसके लिए इसका जन्म हुआ है। वह काम क्या है? उसे अंजाम देने की क्षमता कितनी है? जन्मकुंडली बताएगी। आइये! जाने।

24 अप्रैल पंचायती राज की जन्मतिथि है। राजीव गांधी सरकार द्वारा पेश 64वें संविधान संशोधन विधेयक को आधार बनाकर नरसिम्हा राव सरकार ने 1992 मे 73वां संविधान संशोधन प्रस्ताव पेश किया था। प्रस्ताव 22 दिसंबर, 1992 को एक विधेयक का रूप में पारित हुआ। 24 अप्रैल, 1993 से इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया। इसके तहत सभी राज्य पंचायती चुनाव कराने को बाध्य हुए। 1994-95 तक ज्यादातर राज्यों में चुनाव संपन्न हो गए। उसके बाद से लगातार हर पांच वर्ष बाद चुनाव हो ही रहे हैं। इन 20 वर्षों में भारत की पंचायतों ने कई मुकाम तय किए हैं। इसके पक्ष और विपक्ष मे कई तथ्य पेश किए जा सकते हैं।

उठती उंगली


इस नए राज पर उंगली उठाना चाहें, तो कह सकते हैं कि यह सत्ता का आधा-अधूरा विकेन्द्रीकरण है। कह सकते हैं कि इसके जरिए सत्ता का कम, भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण अधिक हुआ है। कह सकते हैं कि संवैधानिक मान्यता, ज़िम्मेदारी और हकदारी के बावजूद पंचायतें पंचायती राज के सपने को पूरा करने में असफल रही हैं। कह सकते हैं कि आज पंचायतें दलगत राजनीति की नर्सरी बन गई हैं। कह सकते हैं कि अधिकार तो दे दिए गए, लेकिन उनके प्रति जागरूकता जगाने की कोशिश में आज भी बेहद कमी है। योजनाओं का लाभ लेने की सामर्थ्य दिए बगैर योजनाओं के लिए दिया गया पैसा असल लाभार्थी तक पहुंचा ही नहीं।

गिरती दीवारें


इन उठती उंगलियों का मतलब यह नहीं है कि सब कुछ बुरा है। निगाह दौड़ाइये! पंचायती राज के 20 साला अनुभवों ने कई दीवारें गिराई हैं। पंचायतें आज ग्राम विकास की 29 केन्द्रीय योजनाओं की क्रियान्वयन की बड़ी ज़िम्मेदारी है। राज्य की योजनाओं में जो भूमिका है, सो अलग। पंचायती चुनाव में तय आरक्षण का लाभ लेकर ग्रामीण महिलाओं ने कई उपलब्धियाँ रचकर ख्याति अर्जित की है। इस आरक्षण ने समाज की पिछड़ी और अगड़ी जातियों के बीच ‘राजा भोज और गंगू तेली’ जैसी उक्तियों को धूमिल किया है; कई दीवारें गिराईं हैं। सरपंच/प्रधान को वापस बुलाने के प्रावधान ने पंचायतों पर ग्रामसभा के नियंत्रण को मजबूत करने का मौका दिया है। नए पंचायती राज ने यदि पंचायतों को कार्यपालिका की भूमिका में रखा है, तो ग्रामसभा को ‘तीसरी सरकार’ की भूमिका में। इसके मुताबिक हर ग्रामसभा का हर सदस्य की भूमिका सांसद की है। मनरेगा जैसे एक्ट ने निर्णय और निगरानी के अधिकार सीधे ग्राम सभा को सौंप दिए हैं। सच है कि नतीजे अपेक्षा के अनुपात में नहीं आए। सच यह भी है कि नतीजों के नाम पर आंकड़ा शून्य नहीं है। हिंदी वाटर पोर्टल पर ही पंचायती प्रयासों से पानी और हरियाली की लिख दी गई कितनी सफल कहानियां मौजूद हम पढ़ सकते हैं। कम से कम पंचायती राज ने गांव को अपने विकास का सपना खुद लेने और खुद ही उसे क्रियान्वित कर दिखाने की छूट तो दी ही है। यह क्या कम बड़ी बात है! इस बड़ी बात की बुनियाद छोटे-छोटे बयानों ने मिलकर लिखी।

महात्मा गांधी


इस बड़ी बात को सच कर दिखाने का रास्ता दिखाते वक्त गांधी जी ने लिखा था- “हमें उन जनसमूहों को प्रशिक्षित करना चाहिए, जिन्हें देश का ख्याल है और जो चाहते हैं कि उन्हें कोई सिखाए और उनका नेतृत्व करे। बस! थोड़े से प्रबुद्ध लोग और सच्चे स्थानीय कार्यकर्ता मिल जाए, तो समूचे राष्ट्र को बुद्धिमता के साथ कार्य करने के लिए संगठित किया जा सकता है और इनसे लोकतंत्र का विकास किया जा सकता है।” बापू का यह संदेश स्वयंसेवी संगठनों के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत की तरह है।

एक पत्र


आपको जानकर ताज्जुब होगा कि संविधान के मूल दस्तावेज़ में पंचायतों को ताकत देने की यह मंशा कहीं थी ही नहीं। शायद संविधान के निर्माताओं को पंचायतों पर विश्वास ही नहीं था। जिसने पत्र लिखकर महात्मा गांधी को इस विसंगति के बारे में ध्यान दिलाया, उसका नाम हमने याद नहीं रखा। यह हमारी गलती है। खैर! महात्मा गांधी के उस पत्र को अनुकूल टिप्पणी के साथ ‘हरिजन’ में प्रकाशित किया। तब कहीं जाकर 22 नवंबर,1948 को श्री के. संतानम का एक संशोधन डा. अंबेडकर द्वारा स्वीकृत होकर अनुच्छेद-40 के रूप में संविधान में शामिल हुआ। अनुच्छेद-40 में कहा गया कि राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन के लिए कदम उठाएगा और उन्हें ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा, जो उन्हे स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों।

पं नेहरु


पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कहा था - “यह दलील दी जाती हैं कि किसान अधिक जानता नहीं। लेकिन बुनियादी तौर से यह दलील गलत है। अंग्रेज हमारे विरुद्ध यही दलील देते हैं। हम किसानों को तकनीकी व अन्य दूसरी तरह की सहायता दे सकते हैं, लेकिन हमें गाँवों में सत्ता और अधिकार खासतौर पर लोगों को हाथों में सौंप देना चाहिए।’’ राजीव गांधी ने इसी तर्क को सपने के रूप में चुना।

समितियां


बलवंतराय मेहता समिति ने सत्ता हस्तांतरण के लिए पंचायतों के त्रिस्तरीय ढांचे की स्थापना के साथ-साथ वित्तीय साधन व योजनाओं के क्रियान्वयन का दायित्व सौंपने का सुझाव दिया। अशोक मेहता समिति पंचायतों को ग्रामसभा के प्रति जवाबदेह बनाने की वकालत की। जे पी के राय समिति ने कहा कि राज्य की शक्तियां स्थानीय लोकतांत्रिक संस्थाओं को सौंप दी जाए। डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी समिति ने पंचायतों को स्वशासित इकाई के रूप में संवैधानिक मान्यता देने.... प्रतिष्ठित करने के अलावा संरक्षण और स्थायित्व प्रदान करने के सुझाव दिए।

जे पी


लोकनायक जयप्रकाश का सपना पंचायतों को वास्तविक अर्थों में स्वशासी बनाकर गाँवों को इनके संपूर्ण गौरव और अतीतकालीन सत्ता के साथ पुनर्जीवित करना था।

राजीव गांधी


64वां संविधान संशोधन पेश करते हुए उन्होंने 1989 में कहा था - “जब हम पंचायत को वही दर्जा देंगे, जो संसद और विधानसभाओं को प्राप्त है, तो हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में सात लाख लोगों की भागीदारी के दरवाज़े खोल देंगे।......सत्ता के दलालों ने इस तंत्र पर कब्ज़ा कर लिया है। सत्ता के दलालों के हित मे इस तंत्र का संचालन हो रहा है।...सत्ता के दलालों के नागपाश को तोड़ने का एक ही तरीका है और वह यह है कि जो जगह उन्होंने घेर रखी है, उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा भरा जाए।’’

पद पर रहते हुए सत्ता के बारे में इतना कटु सत्य कहने की हिम्मत आज़ाद भारत के इतिहास में और किसी प्रधानमंत्री ने आज तक नहीं की। उन्होंने यह भी कहा - “सत्ता के गलियारों से सत्ता के दलालों को निकालकर, पंचायतें जनता को सौंपकर हम जनता के प्रतिनिधियों पर अपनी डाल रहे हैं कि वे सबसे पहले उन लोगों की तरफ ध्यान दें, जो सबसे गरीब हैं, सबसे वंचित हैं... सबसे ज़रूरतमंद हैं।.... हमें जनता में भरोसा है। जनता को ही अपनी किस्मत तय करनी है और इस देश की किस्मत भी। भारत के लोगों! आइए! हम अधिकतम लोकतंत्र दें और अधिकतम सत्ता सुपुर्द कर दें। आइए! हम सत्ता के दलालों का खात्मा करें। आइए! हम जनता को सारी सत्ता सौंप दें।’

आइये! सच करें सपना


सी आई आई में भाषण देते वक्त राहुल गांधी ने जो कुछ कहा, उसका लब्बोलुआब भी इसके आसपास ही था। अतीत की एक सिफारिश ऐसी नहीं, जो पंचायतों को कमजोर देखना चाहती हो। दो राय नहीं कि इनकी बदौलत पंचायती राज गाँवों को सत्ता सौंपने की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ा ज़रूर, लेकिन सत्ता के दलालों का खात्मा नहीं कर सका। बल्कि इसकी भूमिका दलालों को गांव तक उतार लाने वाली बन गई। दलाल और मजबूत हुए। कारण कि हम अधिकारों की मांग तो करते रहे, कर्तव्यों को जैसे भूल ही गए। अन्ना ने दलालों पर लगाम लगाने के लिए जनलोकपाल मांगा, लेकिन वह भूल गए कि मनरेगा के एक्ट ने यह अधिकार पहले ही हर ग्रामसभा को दे रखा है। जरूरत है कि ग्राम सभाएँ उस अधिकार का प्रयोग करें। इसके लिए उन्हें सक्षम बनाया जाए। स्वयंसेवी संगठनों को इसी भूमिका में आने की जरूरत है; तब लोकतंत्र की प्राथमिक इकाई के स्तर पर जनलोकपाल स्वतः लागू हो जायेगा..... और एक दिन ऊपरी स्तर पर भी जनलोकपाल लागू कराने की शक्ति भी हासिल हो जाएगी। जवान पंचायती राज तैयारी करे।

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