कैसे क्रियान्वित हो रहा है वनाधिकार कानून

वनाधिकार
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आदिवासियों पर होने वाले ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को समाप्त करने की खातिर करीब दस साल पहले संसद द्वारा पारित किया गया वनाधिकार कानून आज किस हालत में है? मध्य प्रदेश का करीब पाँचवाँ हिस्सा वनों का है जिनमें आमतौर पर आदिवासी ही पीढ़ियों से बसे हैं। क्या वनाधिकार कानून ने उनकी जिन्दगी में कोई बदलाव किया है?

वनाधिकारवनाधिकार (फोटो साभार - स्क्रॉल)आदिवासियों की परम्परा में सम्पत्ति की व्यक्तिगत, निजी अवधारणा की बजाय सामूहिक मालिकाना हकों के रीति-रिवाज हैं इसलिये आधुनिक भारत में संसाधनों पर उनके अधिकार भी नकारा हो गए हैं। यही वजह है कि बड़े पैमाने पर आदिवासियों के संसाधन नष्ट हुए हैं और पीढ़ियों से वन में रहते आये आदिवासी कानून की नजर में अतिक्रमणकारी या घुसपैठिए मान लिये गए हैं।

वर्ष 1927 का ‘भारतीय वन अधिनियम’ वनोपज के दोहन और परिवहन को नियंत्रित करने के लिये बनाया गया था। यही कानून आज भी वनों के प्रबन्धन का सरकारी माध्यम बना हुआ है। अंग्रेजी हुकूमत और स्वतंत्र भारत की सरकारों ने वन में निवास करने वाली आदिवासी जातियों और आजीविका के लिये वनों पर निर्भर परम्परागत वनवासियों के अधिकारों को अमान्य कर उनके साथ ऐतिहासिक अन्याय किया था।

इस अन्याय की क्षतिपूर्ति के लिये संसद ने ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 एवं नियम 2008’ और ‘संशोधित नियम-2012’ पारित किया था। इस कानून में 13 दिसम्बर 2005 के पूर्व वनभूमि पर काबिज व्यक्तिगत तथा गाँवों से लगे वनों पर सामुदायिक अधिकार देने का प्रावधान किया गया था।

कानून की धारा 3 (1)(झ) में स्पष्ट किया गया है कि समुदाय को ऐसे किसी सामुदायिक वन संसाधन के संरक्षण, पुनर्जीवित करने, संरक्षित करने और प्रबन्धन करने का अधिकार है जिसका वे सतत उपयोग के लिये परम्परागत रूप से संरक्षण कर रहे हैं। इस कानून के क्रियान्वयन का दायित्व नोडल एजेंसी की हैसियत से ‘जनजातीय कार्य मंत्रालय’ को सौंपा गया था।

मध्य प्रदेश में 22 हजार 600 गाँव या तो जंगल में बसे हुए है या जंगल की सीमा पर। 30 जून 2017 तक की जानकारी के अनुसार आदिवासियों द्वारा 4 लाख 21 हजार 790 तथा गैर-आदिवासियों द्वारा 1 लाख 53 हजार 639 व्यक्तिगत दावे लगाए गए थे। इन दावों को ग्रामसभा तथा उपखण्ड स्तरीय समिति के अनुमोदन के बाद जिला स्तरीय समिति भेजा गया था, परन्तु जिला स्तरीय समितियों ने आदिवासियों के 2 लाख 1 हजार 589 तथा गैर-आदिवासियों के 1 लाख 50 हजार 479 दावे अमान्य कर दिये।

निरस्त किये गए 90 प्रतिशत से अधिक दावों के दावेदारों को कानून के अनुसार निरस्त होने की विधिवत सूचना नहीं दी गई इसलिये वे अपील के अधिकारों से वंचित रह गए। बहुत बड़ी संख्या में निरस्त दावों का परीक्षण करने और वंचित दावेदारों से नवीन दावे प्राप्त करने हेतु 18 फरवरी 2016 को प्रदेश के मुख्य सचिव कार्यालय द्वारा समस्त कलेक्टरों एवं वन मण्डलाधिकारियों को विस्तृत कार्ययोजना भेजी गई थी।

24 फरवरी से 30 जून 2016 तक टीम का गठन कर गाँव-गाँव अभियान चलाने हेतु चरणबद्ध कार्यक्रम तय किया गया, परन्तु ये प्रयास भी केवल टोटके साबित हुए। वन भूमि पर सामन्ती हक जमाने वाली मानसिकता के साथ वन विभाग काम कर रहा है। दावों को कैसे अमान्य किया जाये यह सोच वन विभाग के सभी कर्मचारियों पर हावी है। ‘जनजातीय कार्य विभाग’ की भूमिका मूकदर्शक की बनी है। राजस्व विभाग की भूमिका भी सकारात्मक नहीं दिखती। ऐसे में कानून की जानकारी सभी पात्रों तक नहीं पहुँच पाई।

‘आदिम तथा अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग’ द्वारा 10 जून 2008 को पत्र लिखकर समस्त कलेक्टरों को राजस्व ग्राम के बाजिबुल अर्ज एवं निस्तार पत्रक तथा वन विभाग की निस्तार पुस्तिका में अधिसूचित वन में जो भी अधिकार परम्परा से चले आ रहे हैं, उन्हें ग्रामवार तैयार कर ग्रामसभा या ग्राम पंचायत को उपलब्ध कराने के निर्देश दिये गए थे।

इस पहल से निर्धारित प्रपत्र में सामुदायिक अधिकारों के दावे प्रस्तुत किये जा सकते थे, परन्तु इस तरह की कोई जानकारी ग्रामसभा या ग्राम पंचायत को उपलब्ध ही नहीं कराई गई। नतीजे में 39 हजार 828 सामुदायिक जमीन के दावों में से 27 हजार 727 दावे ही मान्य किये जा सके। सरकार अन्याय झेलने वाले से ही पूछ रही है कि बताओ तुम्हारे पास हमारे अन्याय का क्या प्रमाण है?

व्यक्तिगत तथा सामुदायिक (निस्तार हक) दावों की प्रक्रिया को आधे-अधूरे ढंग से आगे बढ़ाया भी गया, परन्तु सामुदायिक वन संसाधन के प्रबन्धन अधिकारों (प्रपत्र-ग) की लोगों को जानकारी ही नहीं दी गई और न ही दावा लगाने की प्रक्रिया चलाई गई। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली तालुके के गढ़चिरौली गाँव के जंगलों के प्रबन्धन का अधिकार ग्रामसभा को दिया गया है।

वन अधिकार कानून के क्रियान्यन हेतु भारत सरकार ने आदिवासी मामलों के मंत्रालय को 12 जुलाई 2012 को विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किये थे, जिसमें वनाधिकार कानून में लघु वन उपज के बारे में स्पष्टता के साथ लिखा गया है। इन दिशा-निर्देशों के मुताबिक तेंदू पत्ता के व्यापार में वन निगमों का एकाधिकार इस अधिनियम की प्रवृति के विरुद्ध है और इसे दूर किया जाना चाहिए।

वनाधिकार प्राप्त व्यक्ति या उनकी सहकारी समितियाँ, फेडरेशन को उक्त लघु वन उपजों को किसी को बेचने की स्वतंत्रता दी जाने की अनुशंसा की गई थी। भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार राज्य सरकार न केवल वनों में रहने वाली अनुसूचित जनजाति व अन्य वन निवासियों को लघु वन उपजों पर निर्बाध अधिकारों को प्रदान करने में सहयोगकर्ता की भूमिका निभाए वरन लघु वन उपजों के परिभाषिक मूल्य दिलाने में भी सहयोग भी करे।

मध्य प्रदेश में इन दिशा-निर्देशों के बावजूद तेंदू पत्ता के कारोबार में वन निगम का एकाधिकार कायम है। अधिनियम की धारा 4(5) के अनुसार किसी भी वन निवासी को, उसकी काबिज वन भूमि से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि सत्यापन की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती, परन्तु प्रदेश की अनेक जगहों पर वन विभाग द्वारा बेदखली की कार्यवाही जारी है तथा वन निवासियों के साथ मारपीट एवं झूठे मुकदमों में फँसा कर परेशान और प्रताड़ित किया जा रहा है।

काबिज वन भूमि को खाली करवाकर उन पर वृक्षारोपण किया गया है। कुछ मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद बेदखली की कार्यवाही रोकी गई है। प्रदेश में बड़े पैमाने पर बेदखली की कार्यवाही वन विभाग द्वारा चलाई जा रही है, परन्तु सुदूर जंगलों से इसकी खबर बाहर नहीं आ पाती।

अधिनियम की धारा 4(2) के अन्तर्गत राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों के वन निवासियों को भी वन अधिकार के दावे लगाने की पात्रता है, परन्तु कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के क्षेत्रों में वन अधिकारों की प्रक्रिया चलाई ही नहीं गई है।

मध्य प्रदेश के 925 वन ग्रामों को इस कानून में राजस्व ग्रामों में परिवर्तित करने का प्रावधान है, परन्तु राज्य सरकार कानून लागू होने के करीब एक दशक बाद, 5 जून 2017 को केन्द्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को पत्र लिखकर दिशा-निर्देश की माँग कर रही है।

वनाधिकार कानून में आदिम जनजातियों को हैबीटेट राइट्स मिलने का प्रावधान है, डिन्डोरी जिले के बैगाचक क्षेत्र में इसके प्रयास भी किये गए, लेकिन नासमझी के कारण गाँव के हैबीटेट राइट्स में जंगलों का क्षेत्रफल दर्शा दिया गया। बैगाओं का इलाका निर्धारित है जिसमें उनके देवी-कुलदेवता, मेला, यात्रा तक जाने एवं पहुँच सुनिश्चित होने का उल्लेख होना चाहिए।

राज्य सरकार द्वारा बाँटे गए व्यक्तिगत वनाधिकार पत्र में काफी विसंगतियाँ हैं, खासकर कम रकबा, कम्पार्टमेंट गलत दर्ज होने तथा नाम गलत टाइप होने कारण लोग इसे ठीक कराने हेतु भटक रहे हैं और दलालों के चक्कर में लुट रहे हैं। वर्ष 2008 से लागू इस कानून के 10 वर्षों बाद यह कहा जा सकता है कि प्रमुख राजनैतिक दलों ने इसके क्रियान्वयन में कोई रुचि नहीं दिखाई, जिसके चलते ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने हेतु संसद से पारित कानून प्रशासनिक अन्याय के दुष्चक्र में फँस गया।

राजकुमार सिन्हा ‘बरगी बाँध विस्थापित एवं प्रभावित संघ’ तथा ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं।

 

 

 

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