कैसे रुके बाढ़


जल भोजन है और अग्नि भोजन का भक्षक है!
अग्नि जल में और जल अग्नि में विद्यमान है।


.तैत्तरीय उपनिषद की इन पंक्तियों का अर्थ समझने के लिये हमें 2008 में बिहार की कोसी में आई बाढ़ और जुलाई 2005 में मुम्बई में हुई मूसलधार बारिश के बाद मची तबाही को देखना होगा।

पानी शीतलता का प्रतीक होता है, लेकिन हाल के दिनों में हुई बाढ़ की तबाही की ये घटनाएँ हमारी स्मृतियों में अब भी चुभन पैदा कर देती है। इस चुभन को इस साल भी महसूस किया जा रहा है, जब देश के अधिकांश हिस्से अब भी मानसूनी बारिश की बाट जोह रहे हैं, असम के तेजपुर जिले के कुछ हिस्से बाढ़ जून की तपती दोपहरी में डूबने के लिये मजबूर हो गए।

भारत जैसे देश को अपनी तमाम तरह के पारिस्थितिकीय इलाके हैं, कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की समस्या से हर साल जूझना पड़ता है। लेकिन उत्तर और पूर्वी भारत के लिये सूखे का साल छोड़ दें तो तकरीबन हर बार बाढ़ की विभीषिका झेलने की आदत ही पड़ गई है।

गर्मी की मार झेल रहे उत्तर भारत को मानसून की दरकार है, लेकिन यह भी सच है कि अगर मानसून ने सामान्य तौर पर भी कृपा कर दी तो कई इलाके बाढ़ में डूबते नजर आएँगे। हालांकि हर साल बाढ़ को रोकने के लिये कोशिशें की जाती हैं, उससे निबटने के लिये उपाय किये जाते हैं, लेकिन जब उससे सामना होता है, तब जाकर पता चलता है कि इन उपायों की जमीनी हकीकत क्या है।

आजादी के पहले बाढ़ की विभीषिका से दो-चार होते रहे लोगों को उम्मीद थी कि सुराजी शासन में कम-से-कम सदियों पुरानी इस समस्या से छुटकारा दिलाने में सरकार जरूर मदद करेगी। लेकिन आजादी के 62 साल बाद भी इस पर कारगर लगाम नहीं लगाई जा सकी।

आज भी बिहार की कोसी नदी और गंगा के किनारे वाले इलाकों के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के गंगा किनारे वाले इलाके में हर दूसरे-तीसरे साल बाढ़ आ ही जाती है। यही हाल ब्रह्मपुत्र बेसिन का भी है। दक्षिण भारत में कावेरी और कृष्णा नदी के इलाके भी इससे अछूते नहीं है।

मध्य प्रदेश में नर्मदा और छत्तीसगढ़ की कुछ नदियाँ भी सरकारी उदासीनता के चलते दो-तीन साल में एकाध बार अपना रौद्र रूप दिखा ही जाती हैं।

बहरहाल बाढ़ की समस्या पर निगरानी रखने और उस पर काबू पाने के लिये जरूरी उपाय सुझाने के लिये भारत सरकार ने 1978 में केन्द्रीय बाढ़ नियंत्रण आयोग का गठन किया था। इस आयोग के मुताबिक देश में हर साल करीब 4000 बिलियन घनमीटर बारिश होती है। इसमें मानसूनी बारिश के साथ ही बर्फबारी के बाद बनने वाला पानी भी शामिल है।

भारत का भारत में बाढ़ की विभीषिका का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि भारत के कुल भौगोलिक इलाका 329 मिलियन हेक्टेयर में से केन्द्रीय बाढ़ नियंत्रण आयोग के मुताबिक बाढ़ के खतरे वाला इलाका 40 मिलियन हेक्टेयर है, हालांकि योजना आयोग का अनुमान है कि यह क्षेत्रफल करीब 45.64 मिलियन हेक्टेयर है।

आजादी के बाद से ही बाढ़ से प्रभावित होने वाले इन इलाकों को बचाने की कोशिशें शुरू हो गई थीं, लेकिन खुद बाढ़ नियंत्रण आयोग के ही आँकड़े गवाह हैं कि बाढ़ पर काबू पाने में सरकारी योजनाएँ कितनी कारगर रही हैं। आयोग के मुताबिक अभी तक बाढ़ के खतरे वाले 40 मिलियन हेक्टेयर इलाके में से सिर्फ 16.45 हेक्टेयर को ही संरक्षित किया जा सका है।

वैसे भारत में बाढ़ आने की वजह कोई एक नहीं है। असम समेत पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ की बड़ी वजह चीन और ऊपरी इलाकों में भारी बारिश का होना है। इसके बाद निचला इलाका होने के चलते हिमालय के ऊपरी हिस्से से पानी नीचे आता है और कई बार भयानक तबाही की वजह भी बन जाता है।

कुछ यही हालत बिहार के कोसी वाले इलाके की भी है। यहाँ बहने वाली कोसी और गंडक जैसी नदियों का उद्गम स्थल तिब्बत और नेपाल की सीमा है। चीन इन दिनों तिब्बत में जमकर निर्माण कार्य करा रहा है। इसलिये वहाँ की नदियों के जरिए भूमि क्षरण की मिट्टी बढ़ती आ रही है। जो इन नदियों के जरिए नेपाल के रास्ते बिहार तक पहुँच रही है।

बिहार में पहुँचते-पहुँचते नदियाँ मैदानी इलाके में प्रवेश कर जाती हैं, जाहिर है कि यहाँ उनकी धारा उतनी तेज नहीं रह जाती, जितनी तिब्बत या नेपाल में होती है, लिहाजा बिहार के मैदानी इलाकों में इन नदियों के पेटे में सिल्ट बढ़ता जा रहा है।

मानसून के दिनों में तिब्बत और नेपाल के साथ बिहार में जब बारिश होती है तो इन नदियों में पानी को सम्भालने की क्षमता नहीं रह जाती और उफनने लगती हैं। कोसी तो अपनी धारा हर दो-तीन साल में बदल देती है।

इसके अलावा बाढ़ के कारणों में से एक बड़ा कारण दुनिया में आ रहा पारिस्थितिकीय बदलाव भी है। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज के अध्यक्ष आरके पचौरी के मुताबिक पूरी दुनिया के तापमान में करीब 0.78 डिग्री की वृद्धि हुई है। इसके चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इन ग्लेशियरों के पिघलने के चलते कुछ नदियों में भी बाढ़ आ रही है तो कुछ सूखने की कगार पर पहुँच गई हैं।

भारत में गंगा पर बाँध बनाए जाने के बाद उसकी धारा में बनावटी ही नहीं, प्राकृतिक रूप से भी कमी आई है। लेकिन ब्रह्मपुत्र की धारा में तेजी आई है। इसका खुलासा अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेयरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों के एक अध्ययन में हुआ है। इस अध्ययन के नतीजे 15 मई के अमेरिकन मेट्योरोलॉजिकल सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित किये गए हैं।

चेन्नई में बाढ़ से तबाहीइस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 1948 से 2004 के बीच धाराओं के प्रवाह की जाँच की है। इस जाँच के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि दुनिया की एक तिहाई सबसे बड़ी नदियों के जल प्रवाह में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इस दौरान अगर किसी नदी का प्रवाह बढ़ा है तो उसके अनुपात में 2.5 नदियों के प्रवाह में कमी आई है।

उत्तरी चीन की पीली नदी, भारत की गंगा नदी, पश्चिम अफ्रीका की नाइजर, संयुक्त राज्य अमेरिका की कोलोराडो प्रमुख नदियाँ हैं, जिनके प्रवाह में कमी देखी गई है। लेकिन दक्षिण एशिया में ब्रह्मपुत्र और चीन में यांग्त्जी जैसी कुछ नदियों के प्रवाह में या तो स्थिरता या वृद्धि दर्ज की गई है।

बहरहाल यह अध्ययन मानता है कि हिमालय के ग्लेशियरों के धीरे-धीरे गायब होने के कारण भविष्य में इन नदियों के प्रवाह में गिरावट आ सकती है और अगर भारी बारिश हुई तो बाढ़ का खतरा भी बढ़ सकता है।

बहरहाल भारत में बाढ़ की समस्या कितनी विकराल है, इसका अन्दाजा लगाना मुश्किल है। 2008 की कोसी की बाढ़ में करीब 1500 करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया गया था।

2005 की जुलाई में मुम्बई में हुई मूसलधार बारिश के बाद कितना नुकसान हुआ, उसका अन्दाजा लगाना आसान नहीं है। वैसे भारत में बाढ़ ने सबसे ज्यादा तबाही 1955, 1971, 1973, 1977, 1978, 1980, 1984, 1988, 1998, 2001, 2004 और 2008 में मचाई थी।

बहरहाल बाढ़ नियंत्रण आयोग के अनुमान के मुताबिक 1951 से 2004 तक देश में आई बाढ़ों की वजह से 1590 कार्य दिवसों के अलावा करीब साढ़े आठ सौ करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। वैसे खुद आयोग भी मानता है कि बाढ़ से हुए असल नुकसान का अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि इसके चपेटे में हर साल हजारों जानवरों और सैकड़ों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर अपनी जान गँवानी पड़ती है।

बाढ़ रोकने के लिये सरकारी स्तर पर चार तरह से योजनाएँ चलाई जा रही हैं। पहला और सामान्य तरीका बाढ़ प्रभावित इलाकों में बाँध बनाना है। यह तरीका जमींदारी के दिनों से ही अख्तियार किया जा रहा है। इसके साथ ही नदियों के कटान वाले इलाकों में कटान रोकने के लिये योजनाएँ भी चलाई जा रही हैं। फिर पानी की निकासी वाले नालों की सफाई और उनकी सिल्ट निकालने की योजनाएँ भी बाढ़ रोकने के लिये ही चलाई जा रही हैं। दूसरा काम निचले इलाके के गाँवों को ऊपर उठाया जा रहा है।

अपने देश के अधिकांश शहर नदियों के किनारे हैं। उनका सीवर भी ज्यादातर नदियों में गिरता है। पूरे साल तक तो ये सीवर लाइनें शहर का गन्दा पानी इन नदियों में गिराती हैं, लेकिन बारिश और बाढ़ के दिनों में उनकी राह बदल जाती है और ये सीवर ही शहर की बाढ़ की वजह बन जाते हैं। पटना, वाराणसी, भागलपुर, गोरखपुर और विशाखापत्तनम के साथ कई बार कोलकाता में भी बाढ़ का पानी इन सीवर लाइनों के ही सहारे घुस जाता है।

बाढ़ नियंत्रण आयोग के सुझाव पर इन सीवरों की सफाई का भी काम चल रहा है। लेकिन इतनी सारी योजनाओं के बावजूद अगर भारत में बाढ़ की समस्याओं पर काबू नहीं पाया जा सका है तो इसकी एक बड़ी वजह पानी की संवैधानिक हैसियत भी है। संविधान ने पानी की समस्या को राज्य सूची में रखा है। यानी इस पर भले ही केन्द्र सरकार चाहे जितनी भी योजनाएँ बना ले, उन पर अमल करना या फिर अपने खास राज्य के लिये अलग से जलनीति और योजना बनाना पूरी तरह से राज्य सरकार की जिम्मेदारी है।

इसलिये कई बार एक ही तरह की समस्या से जूझते राज्य अपने स्थानीय राजनीतिक कारणों से बाढ़ रोकने के लिये एक तरह के उपाय भी अख्तियार नहीं कर पाते। इसे देखना हो तो आपको पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे सटे बिहार के इलाकों को देखना होगा। गंगा, घाघरा, राप्ती नदियों के किनारे दोनों ही राज्यों के कई इलाके हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में बाढ़ को एक हद तक रोक लिया है तो बिहार में ऐसा नहीं हो पाया है।

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

फायदेमन्द भी होती है बाढ़

बाढ़ का एक खुशनुमा चेहरा भी है। खासकर मैदानी इलाकों के लोग कुछ एक साल बाद बाढ़ का इन्तजार भी करते हैं। इसकी वजह ये है कि बाढ़ के साथ नदियाँ कई बार नई मिट्टी भी ले आती हैं। ये मिट्टी इतनी उपजाऊ होती है कि बिना खाद-पानी के ही अच्छी फसल तैयार हो जाती है।

इतना ही नहीं खेती के लिये नुकसानदायक कीड़ों आदि को भी बाढ़ मार देती है। इसलिये कुछ साल बाद किसानों के लिये बाढ़ का पानी दोस्त बनकर आता है। इतना ही नहीं बाढ़ के चलते भूजल भी रिचार्ज हो जाता है। इससे भूजल भण्डार में वृद्धि होती है, जिससे पूरे साल पानी की कमी नहीं होती।

प्रस्तुति- उमेश चतुर्वेदी


आसान नहीं है बाढ़ को रोक पाना

अशोक जेटली
(पूर्व मुख्य सचिव जम्मू एवं कश्मीर, निदेशक, वाटर रिसोर्सेज डिविजन, टेरी)

भारत ही नहीं पूरी दुनिया में जिस तरह से पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाया गया, वनों को काटकर मैदान बनाए जा रहे हैं या कॉलोनियाँ खड़ी हो रही हैं, उससे प्राकृतिक तौर पर पानी का प्रबन्धन खराब हुआ है। वन ना सिर्फ बारिश को आकर्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, बल्कि उनमें पानी को रोकने, मिट्टी का कटाव रोकने की क्षमता रही है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और औद्योगीकरण के चलते वनों को काटा जाता रहा है, पहाड़ों से जंगलों को काटकर नंगा किया जाता रहा है, उससे ना सिर्फ अपने देश में, बल्कि पूरी दुनिया में बाढ़ की समस्या बढ़ी है।

इतना ही नहीं, आम जरूरत के लिये पानी में भी कमी आई है। कोढ़ में खाज यह कि बढ़ती गर्मी के चलते ग्लेशियरों के पिघलने से भी बाढ़ की समस्या बढ़ रही है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि बाढ़ पर काबू पाने का हमारा पूरा-का-पूरा ढाँचा इंजीनियरिंग समाधान पर टीका है।

आजादी के तत्काल बाद भले ही इंजीनियरिंग पर आधारित समाधान ढूँढना अपने देश की मजबूरी रही हो, लेकिन हमें इसके दीर्घकालिक समाधान के लिये भी सोचना चाहिए था। दीर्घकालिक समाधानों में वनों की कटाई रोकने, पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाने के उपाय होने चाहिए थे।

आज नदियों में बाढ़ की एक बड़ी समस्या किनारे वाले इलाकों में बढ़ता कटाव भी है। इसका एक ही उपाय है कि इस कटाव को रोकने के लिये पेड़ लगाए जाएँ। ऐसी झाड़ियाँ लगाई जाएँ, जो ना सिर्फ पानी के बहाव को कमजोर करें, बल्कि उसके साथ बहने वाली मिट्टी के कटाव को भी रोकें।

वैसे हमें इस बात को भी ध्यान रखना चाहिए कि बाढ़ को स्थायी तौर पर रोका नहीं जा सकता। क्योंकि बारिश और सूखा आपके हाथ में नहीं है। प्राकृतिक आपदाएँ आपके हाथ में नहीं हैं। 2005 की जुलाई में मुम्बई में हुई मूसलधार बारिश और 2006 में सूरत में हुई बारिश की घटना को देखा जा सकता है, जहाँ बारिश ने तबाही मचा दी थी।

बारिश को भले ही हम रोक नहीं सकते, लेकिन यह तय है कि हम कटाव रोक सकते हैं, शहरों के सीवेज सिस्टम को साफ कर सकते हैं, नालों और नदियों को साफ कर सकते हैं ताकि भारी बारिश से आई बाढ़ के पानी को वे आसानी से बहा सकें। इसके साथ ही पेड़-पौधों को भारी संख्या में लगा सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने टेरी को दक्षिण पूर्व एशिया में पानी के प्रबन्धन की दिशा में काम करने के लिये नोडल एजेंसी बनाया हैं। इसके तहत हम वाटर मैनेजमेंट पर नॉलेज हब बना रहे हैं, ताकि दक्षिण पूर्व एशिया में पानी के प्रबन्धन से जुड़ी सूचनाएँ, बाढ़ और सूखा से जुड़े अध्ययन और आँकड़े एक मंच पर मौजूद हो।

मेरा मानना यह है कि बाढ़ पर काबू पाने के लिये हमें दो मोर्चों पर काम करना होगा। पहला मोर्चा निश्चित तौर पर इंजीनियरिंग समाधान का है, जिसके तहत प्रभावित होने वाले इलाकों में बाँध बनाना और नदियों के कटाव को रोकने के लिये इंजीनियरिंग उपाय करना है, लेकिन इसके साथ ही हमें लोगों को जागरूक बनाना भी होगा। ताकि वे पारिस्थितिकीय सन्तुलन को बनाए रखने की दिशा में काम कर सकें।


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