कार मैकेनिक से बना पर्यावरण प्रेमी, खेत में 300 से ज्यादा मोरों का बसेरा

20 Aug 2019
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हिम्मताराम भांबू।
हिम्मताराम भांबू।

बिगड़ता पर्यावरण चक्र दुनियाभर के शहरों ही नहीं गांवों के लिए भी चुनौती बन गया है और हर देश अपने स्तर से पर्यावरण संरक्षण के कार्य में जुट गया है, जिसके लिए वृहद स्तर पर पौधारोपण करने के अलावा कई उपाय किये जा रहे हैं, लेकिन जीवनशैली को सुधारे बिना पर्यावरण संरक्षण के लिए किये जा रहे ये प्रयास अपेक्षाकृत कम कारगर सिद्ध हो रहे हैं। खासकर शहरी क्षेत्रों में बढ़ते प्रदूषण और भीषण गर्मी से लोगों का जीना बेहाल हो रखा है, तो वहीं ग्रामीण इलाकों में आधुनिकीकरण के कारण लगातार कम होती खेती ने सभी की मुश्किले बढ़ा दी हैं और भविष्य के संकट से सभी को आगाह कर दिया है। जिसे समझने वाले व्यक्ति पहले ही पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में जुट गए थे, तो कुछ लोग अब इस दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं। ऐसे ही राजस्थान के एक शख्स हिम्मताराम भांबू हैं, जो पहले तो एक कार मैकेनिक थे, लेकिन फिर पर्यावरण संरक्षण उनका जीवन लक्ष्य बन गया। लक्ष्य के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर ही वें पेड़-पौधे लगाकर मरुभूमि का श्रृंगार कर रहे हैं।

हिम्मताराम के खेतों में सैंकड़ों की संख्या में मोरों ने हिम्मताराम के खेतों में 3 सौ से अधिक मोरों का बसेरा है और सैंकड़ों घायल पशु-पक्षियोंकी मदद कर चुके हैं।  पर्यावरण के अलावा उन्होंने नशे के खिलाफ भी अभियान शुरू किया था और उनसे प्रेरित होकर सैंकड़ों लोग नशा छोड़ चुके हैं। वन्यजीवों को न्याय दिलाने के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया और 28 शिकारियों पर मुकदमा दर्ज करवाया, जिनमें से 16 शिकारियों को जेल भी हो चुकी है। हिम्मताराव कहते हैं इन कामों के लिए उन्होंने किसी को कोई योगदान नहीं लिया। पेड़ पौधें ही उनके जीवन का आधार है। उनके रग रग में वन, वन्यजीव और पर्यावरण को संरक्षित करने का जज्बा भरा है। 

हिम्मताराम भांबू राजस्थान के नागौर जिले के रहने वाले हैं। नागौर जिला पानी की उपलब्धता के हिसाब से डार्क जोन में होने से यहां के लोगों को भारी दिक्कतों को सामना करना पड़ता है। हिम्मताराम भांबू का बचपन इन्हीं परेशानियों से जूझते और कठिनाईयों से निबटने के उपायों को देखते हुए ही बीता था। खेती-किसानी के लिए हिम्मताराम को गांव में कक्षा 6 के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। पैसों की तंगी के कारण बचपन से ही मैकेनिक का काम शुरू कर दिया था और स्थानीय ट्रैक्टर मालिकों को पुर्जे खोलने और मरम्मत करने में सहायता करने लगे। वक्त के साथ-साथ अनुभव बढ़ा तो इलाके में एक कुशल मिस्त्री के रूप में उनकी पहचान बन गई, लेकिन दादी द्वारा दी गई खेती और पर्यावरण की शिक्षा उन्हें हमेशा याद रही, जो दादी ने 1974 में हिम्मताराम से गांव में ही एक पीपल का पेड़ लगवाकर दी थी। 15 साल बाद जब पीपल के छोटे से पौधे ने विशालकाय वृक्ष का रूप ले लिया तो हिम्मताराम को काफी खुशी हुई। जिसके बाद उन्होंने पौधारोपण का कार्य शुरू कर दिया और नागौर, बाड़मेर, जैसलमेर व बीकानेर आदि क्षेत्रों में करीब तीन लाख पौधे लगाए। इन पौधों का वन विभाग और सरकार ने आंकलन भी किया। सरकार और वन विभाग के आंकलन के अनुसार लगभग सवा दो लाख पौधे विशालकाय पेड़ बन चुके हैं। पर्यावरण के प्रति हिम्मताराम का कार्य यहीं नहीं रुका बल्कि नई योजना के साथ आगे बढ़ता रहा। जिसके लिए उन्होंने 1999 में कर्ज लेकर एक सूखाग्रस्त गांव हरिमा में 34 बीघा जमीन खरीदी। उस दौरान इस जमीन पर खेजड़ी के केवल 14 पेड़ थे, लेकिन उन्होंने 16 हजार से अधिक विभिन्न प्रकार के पौधों का रोपण किया और साथ ही खेती भी की। जिस कारण अब खेत में दो हजार से अधिक खेजड़ी के पेड़़ हैं। दरअसल खेजड़ी थार मरुस्थल व अन्य स्थानों पर पाया जाता है, जो जेष्ठ के महीने में भी हराभरा रहता है और रेगिस्तान में जानवरों को छाया प्रदान करने का काम करता है। अपनी विशेषताओं के कारण इसे मरुधरा की जीवन रेखा भी कहा जाता है। साथ ही खेजड़ी के पेड़ों पर जलवायु परिवर्तन का असर भी कम होता है। इसके अलावा 6 बीघा के दूसरे खेत में खेजड़ी और देशी बबूल के करीब चार सौ पौधे, जिन्हें बिना किसी अतिरिक्त खर्चे के, केवल बारिश से पानी से हिम्मताराम ने उगाया था। ये पौधे अब वृक्ष बन चुके हैं। 

हिम्मताराम भांबू।

हिम्मताराम केवल पर्यावरण संरक्षण ही नहीं बल्कि पर्यावरण संतुलन बनाये रखने का कार्य भी कर रहे हैं। वर्ष 1996 में वें जापान सरकार की सहायता से संचालित परियोजना के अंतर्गत वन विभाग से जुड़े और इसके बाद पर्यावरण संरक्षण के लिए पूरी तरह से पर्यावरण से ही जुड़कर कार्य करने लगे। दरअसल पर्यावरण चक्र बिगड़ने से मानसून प्रभावित हुआ है और असमय बारिश व हिमपात होने लगा है। गर्मी के दौरान ज्यादातर हिस्से सूख़ा ग्रस्त रहते हैं और मानसून आते ही बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। जिससे केवल इंसानों को ही नहीं बल्कि जानवरों और पशु-पक्षियों को भी दो चार होना पड़ता है। सबसे ज्यादा समस्या जीव-जंतुओं के सामने सूखे के दौरान पानी की आती है। बारिश न होने के कारण जब सूखा पड़ता है तो पक्षी गर्मियों में खेतों के इर्द-गिर्द मंडराने लगते हैं, ताकि फसल को दिए जाने वाले पानी से वे अपनी प्यास बुझा सकें। हिम्मताराम ने पक्षियों की प्यास बुझाने के लिए खेत में पेड़ों पर जगह-जगह मिट्टी के परिंडे (चैड़े बर्तन) लटकाकर रखे हैं। ये पक्षी फसलों से नुकसानदायक कीड़े मकोड़ों को भी खा जाते हैं। अनुकूल वातावरण और बड़ी संख्या में पेडो के कारण हिम्मताराम के खेतों में सैंकड़ों की संख्या में मोरों ने हिम्मताराम के खेतों में 3 सौ से अधिक मोरों का बसेरा है और सैंकड़ों घायल पशु-पक्षियों की मदद कर चुके हैं।  पर्यावरण के अलावा उन्होंने नशे के खिलाफ भी अभियान शुरू किया था और उनसे प्रेरित होकर सैंकड़ों लोग नशा छोड़ चुके हैं। वन्यजीवों को न्याय दिलाने के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया और 28 शिकारियों पर मुकदमा दर्ज करवाया, जिनमें से 16 शिकारियों को जेल भी हो चुकी है। हिम्मताराव कहते हैं इन कामों के लिए उन्होंने किसी को कोई योगदान नहीं लिया। पेड़ पौधें ही उनके जीवन का आधार है। उनके रग रग में वन, वन्यजीव और पर्यावरण को संरक्षित करने का जज्बा भरा है। 

पर्यावरण संरक्षण हर व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है। जन्म से लेकर मुत्यु तक प्रकृति और पर्यावरण इंसान को उसकी आवश्यकता ही हर वस्तु उपलब्ध कराती हैं, लेकिन भौतिकता व आधुनिकता की दौड़ में पर्यावरण इंसानों की जीवनशैली से दूर जाता जा रहा है, जिसने इंसानों के साथ-साथ जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर भी संकट खड़ा कर दिया है। पर्यावरण को बचाने के लिए हिम्मताराम की तरह ही हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यो का निर्वहन करना होगा, तभी हम प्रकृति के उपहारों को आने वाली पीढ़ी तक पहुंचा सकेंगे।

 

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