कार्बन व्यापार और भारत (Carbon trading and India)

6 Jul 2015
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एक मोटे अनुमान के मुताबिक सन 2012 तक कार्बन ट्रेडिंग से कम से कम 150 अरब डॉलर कमाए जा सकते हैं और अगर भारत चाहे, तो खाली पड़ी 15 लाख हेक्टेयर भूमि पर पेड़ लगाकर इस धंधे से खासी कमाई कर सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार एक लाख हेक्टेयर भूमि पर पेड़ लगाकर वातावरण से हर साल 10 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखी जा सकती है। इसमें कोई शक नहीं है कि हम जो पेड़ लगाएंगे, उनसे सिर्फ हमारे ही नहीं, पूरी दुनिया के पर्यावरण की सेहत पर अच्छा असर पड़ेगा।पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से प्रदूषण को थामना इस समय दुनिया के मुख्य एजेंडे में शामिल है। पृथ्वी बचाने के संबंध में 1972 में हुए स्टॉकहोम सम्मेलन, 1979 में जेनेवा में हुए पहले विश्व जलवायु सम्मेलन, 1992 में रियो डि जेनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन से लेकर 1997 में हुए क्योटो सम्मेलन की यही ध्वनि थी कि किसी तरह प्रदूषण की रफ्तार कम की जाए और दुनिया को हरा-भरा बनाने की कोशिशों में तेजी लाई जाए। पर्यावरण सुधार की प्रक्रिया में इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करना है, जिसे लेकर विकसित देश उदासीन बने हुए हैं। उनकी इस उदासीनता का ही तकाजा है कि कोयले का मौलिक रूप ‘कार्बन’ व्यापार और पर्यावरण रक्षा के लिहाज से नई भूमिका में अवतरित हो रहा है। उल्लेखनीय है कि प्रदूषण फैलाने वाला यह कार्बन सीधे तौर पर किसी को बेचा नहीं जाएगा, लेकिन इसकी बचत करवाने वाले देश रातोंरात मालामाल होने का स्वप्न पाल सकते हैं।

कार्बन व्यापार और भारतदरअसल, सारा मामला ग्रीन हाउस गैसों की कटौती से जुड़ा हुआ है। इस समय दुनिया के अमीर एवं विकसित देशों पर शेष दुनिया का यह दबाव है कि वे अपनी औद्योगिक एवं रसायनिक प्रक्रियाओं के जरिए होने वाले प्रदूषण पर रोक लगाएँ और तभी बाकी विश्व को ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने का पाठ पढ़ाएँ। विकसित देशों पर यह आरोप भी है कि उन्होंने वातावरण में अरबों टन कार्बन पहुँचाकर औद्योगिक प्रगति का शीर्ष पा लिया है और अब वे विकासशील एवं गरीब मुल्कों पर गैसों के सीमित उत्सर्जन की शर्तें थोपकर उनका विकास बाधित करना चाहते हैं। जैसे 1997 में हुए क्योटो सम्मेलन की मुख्य शर्त यह थी कि दुनिया के अनेक मुल्क पर्यावरण के लिए घातक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 2008-12 तक इतनी कमी लाएंगे कि वह 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम हो जाए। अमेरिका और रूस जैसे मुल्कों के हठ के चलते ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने का मामला फिलहाल लटका हुआ है।

लेकिन इसी वजह से कार्बन के व्यापार की नई संभावना जन्म ले रही है। इस व्यापार की नींव ग्रीन हाउस गैसों को सोखने की जिम्मेदारी वहन करने पर टिकी हुई है। मोटे तौर पर इस व्यापार की एक रूपरेखा क्योटो सम्मेलन से ठीक पहले ही सामने आई थी। विश्व बैंक ने इस फंड की रूपरेखा बनाई थी और इसे प्रोटोटाइप कार्बन फंड का नाम दिया गया था, लेकिन जी-77 के दशों के विरोध के कारण उस समय इस योजना को गुप्त रखा गया। इस फंड की शुरुआत में अनेक औद्योगिक देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सहयोग से 15 करोड़ डॉलर की राशि जमा करके रखी गई और उम्मीद जताई गई कि 2005 तक यह राशि बढ़कर 200 करोड़ डॉलर हो जाएगी। क्योटो सम्मेलन में इस फंड के बारे में सहमति बनाने की कोशिश की गई, लेकिन मामला सिर नहीं चढ़ पाया। अब प्रोटोटाइप कार्बन फंड का यही विचार कुछ सुधरे रूप में ‘कार्बन ट्रेडिंग’ या ‘कार्बन व्यापार’ के नाम से फिर चर्चा पा रहा है। सिद्धांत रूप में इस बाजार में भी विनिमय होना है, लेकिन यह लेनदेन वस्तुओं अथवा विचारों के बदले धन प्राप्ति का नहीं है, बल्कि इसमें दूसरे देशों को प्रदूषण संबंधी कटौतियों से बचाने के बदले खुद कठोर पर्यावरणीय नीतियाँ लागू करने के बदले में डॉलर अथवा प्रदूषण बचत के सर्टिफिकेट हासिल किए जा सकते हैं। लगभग सभी विकसित देशों पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के दबाव को देखते हुए इस व्यापार की अपूर्व संभावनाएँ भी हैं।

जाहिर है, उत्सर्जन बचत के लिए लालायित देशों में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी आदि विकसित देशों के नाम शामिल हैं, जो चंद डॉलरों के बदले मनमाने उत्सर्जन की छूट पा सकते हैं। क्योटो संधि की वर्ष 2001 में हुई समीक्षा में पाया गया था कि अमेरिका प्रतिवर्ष कुल कार्बन प्रदूषण में 36.1 प्रतिशत का योगदान कर रहा है, जबकि रूस 17.4 फीसदी, कनाडा 3.3 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया 2.1 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड अपनी औद्योगिक गतिविधियों के कारण वातावरण में पहुँचा रहा है। एक मोटा अनुमान यह है कि यदि विकसित देश क्योटो जैसी संधियों को मानते हैं, इसके लिए उन्हें प्रतिबंध लगाकर पेट्रोलियम आधारित व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। इस व्यवस्था में ही 45 हजार करोड़ डॉलर से भी अधिक का शुरुआती खर्च आएगी, जिससे विकसित देश भरसक बचना चहते हैं। विकसित देशों के लिए क्योटो संधि के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से पाँच फीसदी की कमी लाना अनिवार्य है। चूँकि पहले से मानी जा चुकी संधियों को लागू करना उनकी मजबूरी है, इसलिए वे विकासशील और गरीब देशों के सामने कार्बन व्यापार का चमचमाता प्रस्ताव रखकर उत्सर्जन बचत में होशियारी दिखाना चाहते हैं। उत्सर्जन बचत संबंधी यह प्रस्ताव क्योटो प्रोटोकाल में क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (सीडीएम) सिद्धांत के रूप में पेश किया गया था।

ऊपरी तौर पर इस व्यापार का सिद्धांत बहुत सीधा-साधा है। इसमें विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी से इस तरह मुक्त हो सकते हैं कि वे गरीब मुल्कों को उन पर्यावरणीय योजनाओं के लिए पैसा दें, जिनसे वातारण में नुकसानदेह गैसों का स्तर कम हो सके। अधिकाधिक वृक्ष लगाकर ग्रीन हाउस गैसों को सोखा जा सकता है, लेकिन इसके लिए खाली जमीन की जरूरत है, विकसित देश अपने औद्योगिक विकास की रफ्तार को मंद करने की शर्त पर वह भूमि अपने बूते नहीं जुटा सकते। इसका सीधा समाधान यही है कि भारत और चीन जैसे विस्तृत भूभाग वाले मुल्कों को खाली जमीन पर पेड़ लगाने के लिए पैसा दिया जाए।

विज्ञान कहता है कि औद्योगिक गतिविधियों से उपजी छह ग्रीन हाउस गैसों—कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रो फ्लोरोकार्बन, परफ्लोरोकार्बन और सल्फर हेक्साफ्लोराइड को पेड़ सिर्फ सोखते ही नहीं हैं बल्कि उन्हें शुगर, स्टार्च एवं सेलुलोज में बदलकर अपने उपयोग में ले लेते हैं।एक मोटे अनुमान के मुताबिक सन् 2012 तक कार्बन ट्रेडिंग से कम से कम 150 अरब डॉलर कमाए जा सकते हैं और अगर भारत चाहे, तो खाली पड़ी 15 लाख हेक्टेयर भूमि पर पेड़ लगाकर इस धंधे से खासी कमाई कर सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार एक लाख हेक्टेयर भूमि पर पेड़ लगाकर वातावरण से हर साल 10 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखी जा सकती है। इसमें कोई शक नहीं है कि हम जो पेड़ लगाएंगे, उनसे सिर्फ हमारे ही नहीं, पूरी दुनिया के पर्यावरण की सेहत पर अच्छा असर पड़ेगा। विज्ञान कहता है कि औद्योगिक गतिविधियों से उपजी छह ग्रीन हाउस गैसों—कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रो फ्लोरोकार्बन, परफ्लोरोकार्बन और सल्फर हेक्साफ्लोराइड को पेड़ सिर्फ सोखते ही नहीं हैं बल्कि उन्हें शुगर, स्टार्च एवं सेलुलोज में बदलकर अपने उपयोग में ले लेते हैं। भारत के लिए इस व्यापार में अच्छी संभावनाएं इसलिए हैं, क्योंकि ऊर्जा संरक्षण प्राकृतिक गैस, वैकल्पिक ऑटो ईंधन और पनबिजली परियोजनाओं आदि में बढ़त के आधार पर उसे कार्बन ट्रेडिंग के लिहाज अति अनुकूल देश माना जा सकता है। हमारे देश में ‘जिंदल विजयनगर स्टील’ नामक कंपनी ने सर्वप्रथम इस कार्बन व्यापर में अपनी रुचि दिखाई है। इस कंपनी ने कर्नाटक स्थित विस्तृत भूभाग में फैले अपने कारखाने के जरिए कार्बन सोखने की गतिविधियाँ लागू करने के लिए प्रतिटन कार्बन सोखने के लिए 12 से 15 डॉलर शुल्क का प्रस्ताव किया है और कंपनी को अनुमान है कि इस तरह वह अगले 10 साल में कार्बन व्यापार के जरिए 22.5 करोड़ डॉलर की पूंजी अर्जित कर सकेगी। ‘इंडियन एल्यूमिनियम’ नामक एक अन्य कंपनी ने भी इस व्यापार में काफी रुचि दर्शाई है।

बहरहाल, कार्बन ट्रेडिंग का एक अंधियारा पक्ष भी है। वह यह कि एक तो दीर्घकालिक विकास की अवधारणा में डॉलर कमाने का यह जरिया विकास की गतिविधियें को चौपट कर सकता है, दूसरे विकसित देशों के शिकंजे में फंसने की आशंका भी साथ रहेगी। पहली आशंका यही है कि आज हमें पर्यावरण सुधार के साथ-साथ डॉलर की खेती का जो नुस्खा खासा लुभावना दिख रहा है, वह आगे चलकर हमारे औद्योगिक विकास की राह का रोड़ा तो नहीं बन जाएगा। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों में बंधे होने के कारण जरूरत पड़ने पर हम उन जंगलों को हाथ भी नहीं लगा पाएंगे, जिन्हें विकसित देशों द्वारा खरीदा जा चुका होगा। हालांकि हमारे देश में खाली और अनुपजाऊ भूमि की कोई कमी नहीं है, लेकिन विशाल जनसंख्या के दबाव के चलते हो सकता है कि कुछ वर्षों बाद औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित करने के लिए जमीन की कमी हमारे लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है। यह आशंका भी अपनी जगह सही है कि जहाँ इस तरह दूसरों को दर्द हम अपने सिर लेंगे, वहीं कुछ देशों को यह कहने का मौका भी मिलेगा कि भारत ने ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने की पश्चिमी कवायद पर रोक लगाने की माँग करने के स्थान पर डॉलरों के मोह में विकसित मुल्कों का ही साथ दिया है। निश्चित ही इस तोहमत से पिंड छुड़ाना आसान नहीं होगा, क्योंकि तब हमसे ही पर्यावरण के छीजने की भरपाई की माँग हो सकती है।

जहाँ तक कार्बन बाजार में हिस्सेदारी पाने और अपने विकास की रफ्तार बढ़ाने का मुद्दा है, तो इसका फौरी उपाय तो यह हो सकता है कि ग्लोब पर हरीतिमा बढ़ाने के एवज में भारत जैसे मुल्क इतने डॉलर तो ले ही लें, जिससे विकास में पिछड़ने का दुख कुछ कम हो सके। चाहें तो हमारे पर्यावरणविद् बीच का कोई रास्ता निकाल सकते हैं, जिससे इस व्यापार में हिस्सेदारी पाने के साथ-साथ विकास की हमारी गति थमे नहीं। साथ ही कार्बन बाजार की माया में फंसने से पहले उन सभी उपायों पर अमल जरूरी है, जिससे भारत एवं पड़ोसी देशों की कतार में खड़ी करने की यूरोपीय साजिश का मकाबला कड़ाई के साथ किया जा सके।

(लेखक नवभारत टाइम्स में सहायक संपादक हैं।)

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