कारों का होता डीजलीकरण देश को महंगा पड़ेगा

25 Jul 2012
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डीजल
डीजल
जबसे सरकार ने पेट्रोल कीमतों पर अनुदान कम किया और उसे नियंत्रण मुक्त रखा तब से कारों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हो रही है। इस समय देश की जनसंख्या की वृद्धि दर में कमी आई है लेकिन कारों की संख्या में विस्फोट हुआ है। डीजल कारें देश की कुल डीजल खपत का 15 फीसदी निगल रही हैं और ट्रकों के बाद दूसरे नंबर का डीजल उपभोक्ता बन गयी हैं। बढ़ रहे कारों के डीजलीकरण के बारे में बता रहे हैं सुनील।

पेट्रोलियम पर बनी किरीट पारिख समिति ने भी फरवरी 2010 में अपनी रपट में डीजल कारों पर 81 हजार रुपये का अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाने का सुझाव दिया था। लेकिन जयपाल रेड्डी के पत्र की जानकारी मिलते ही भारी उद्योग मंत्री प्रफुल्ल पटेल तुरंत इसके विरोध में सामने आ गये। मंत्रिमंडल के इस सबसे अमीर अरबपति सदस्य का कहना है कि इससे कार उद्योग पर बुरा असर पड़ेगा।

भारत में कोई दूसरी क्रांति हो या न हो, पिछले कुछ समय से कार-क्रांति चल रही है। जो लोग बार-बार इस देश में आबादी की समस्या की चर्चा करते हैं, उनको कोलकाता के मनीषी अशोक सेकसरिया दुरुस्त करते हैं कि देश में जनसंख्या-विस्फोट नहीं, कार-संख्या विस्फोट हो रहा है। जनसंख्या वृद्घि की सालाना दर तो कम होते हुए डेढ़ फीसदी के करीब आ गयी है, किंतु कारों की बिक्री में सालाना 20-25 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हो रही है। मंदी का भी असर नहीं पड़ा है। इधर, कुछ समय से इस कार क्रांति का एक और आयाम सामने आया है, वह है इसका डीजलीकरण। जैसे-जैसे सरकार ने पेट्रोल कीमतों पर अनुदान कम किया और अब उसे नियंत्रण-मुक्त कर दिया है, पेट्रोल व डीजल की कीमतों में अंतर बढ़ता गया है। अब यह अंतर 30 रुपया प्रति लीटर से ज्यादा है। इसलिए देश का कार-उपभोक्ता अमीर तबका तेजी से पेट्रोल कारों की जगह डीजल कारों की ओर मुड़ रहा है। डीजल कारों के नये मॉडल आ रहे हैं। बाजार में 428 तरह की डीजल कारें आ चुकी हैं, जिनकी कीमत पौने चार लाख रुपये से लेकर सवा करोड़ तक है। मर्सिडीज बेंज जैसी महंगी गाड़ियां भी अब डीजल से चल रही हैं।

जब महंगा पेट्रोल इस्तेमाल करते थे, तो कार-मालिक किफायत के बारे में सोचते थे और छोटी कारें रखते थे। डीजल से चलने के कारण बड़ी कारों का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। 2011-12 में मंदी के बावजूद डीजल कारों की बिक्री 34 फीसदी बढ़ी। उनमें भी 2000 सीसी से बड़े इंजन वाली कारों की बिक्री में 41 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। देश में जितनी डीजल कारें इस वर्ष में बिकीं, उनमें 40 फीसदी 1500 सीसी से बड़े इंजन वाली कारें थीं। इससे ईंधन की खपत भी बढ़ रही है और वे सड़कों पर भी ज्यादा जगह घेर रही हैं। कारों का यह डीजलीकरण तीन कारणों से देशहित व जनहित में नहीं है और इसके खिलाफ आवाज उठ रही है। पहला, भारत में डीजल पर अनुदान है। पेट्रोल के मुकाबले उस पर टैक्स कम है और उसकी कीमत भी कम है, क्योंकि उसका उपयोग खेती, सार्वजनिक परिवहन (बस, ट्रक, रेलवे, मोटरबोट) तथा उद्योगों में होता है।

डीजल महंगा होने से इन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा तथा अर्थव्यवस्था में महंगाई का नया चक्र शुरू हो जायेगा। इसीलिए नवउदारवादी सोच के कारण सरकार चाह कर भी डीजल कीमतों को नियंत्रणमुक्त नहीं कर पा रही है। किंतु डीजल कारों के कारण अनुदान का एक हिस्सा अमीरों की जेब में जा रहा है। डीजल कारें देश की कुल डीजल खपत का 15 फीसदी निगल रही हैं और ट्रकों के बाद दूसरे नंबर का डीजल उपभोक्ता बन गयी हैं। वर्ष 2012-13 में कुल डीजल अनुदान करीब एक लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है। यानी 15000 करोड़ रुपये सीधे अमीर कार उपभोक्ताओं की मौज-मस्ती में जाएंगे। दूसरा, सस्ते डीजल के कारण कारों की संख्या बढ़ रही है और उनमें भी ज्यादा तेल खाने वाली बड़ी कारों का हिस्सा बढ़ रहा है। इससे देश की तेल खपत बढ़ रही है, जिसका 80 फीसदी हमें बाहर से आयात करना पड़ता है। देश के आयात-बिल की सबसे बड़ी मद तेल ही है। इसके कारण व्यापार घाटा और भुगतान संतुलन का घाटा दोनों बढ़ रहा है।

तीसरा, डीजल कारों का धुआं पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है। 12 जून को विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान एजेंसी के मुताबिक डीजल के धुएं और फेफड़े के कैंसर में सीधा संबंध है। डीजल धुआं भी तंबाकू, एस्बेस्टस और आर्सेनिक जैसी घातक कैंसरकारक चीजों की श्रेणी में आ गया है। कारों में डीजल के उपयोग को नियंत्रित करने का एक तरीका यह है कि इस पर रोक लगा दी जाये। दूसरा, डीजल कारों के उत्पादन एवं बिक्री पर ही पाबंदी लगा दी जाये। तीसरा, डीजल कारों पर इतना टैक्स लगा दिया जाये कि वे काफी महंगी हो जाएं। डेनमार्क और श्रीलंका जैसे देशों ने यही किया है, हालांकि ब्राजील ने सीधे डीजल कारों पर ही प्रतिबंध लगाना उचित समझा, किंतु भारत सरकार इस तीसरे व आसान तरीके को भी अपनाने को तैयार नहीं है। पिछले दो-तीन बजटों से उम्मीद थी कि डीजल कारों पर अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाया जायेगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि देश में कार निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लॉबी बहुत तगड़ी है।

पिछले दिनों पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री जयपाल रेड्डी ने डीजल अनुदान के दुरुपयोग के बारे में वित्त मंत्री को पत्र लिखा। इस पत्र में छोटी डीजल कारों पर एक लाख 70 हजार रुपये तथा मध्यम व बड़ी डीजल कारों पर 2 लाख 55 हजार रुपये का अतिरिक्त शुल्क लगाने का सुझाव दिया। पेट्रोलियम पर बनी किरीट पारिख समिति ने भी फरवरी 2010 में अपनी रपट में डीजल कारों पर 81 हजार रुपये का अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाने का सुझाव दिया था। लेकिन जयपाल रेड्डी के पत्र की जानकारी मिलते ही भारी उद्योग मंत्री प्रफुल्ल पटेल तुरंत इसके विरोध में सामने आ गये। मंत्रिमंडल के इस सबसे अमीर अरबपति सदस्य का कहना है कि इससे कार उद्योग पर बुरा असर पड़ेगा। ऐसा लगता है कि कंपनियों के हितों को आगे बढ़ाने, एक गलत किस्म के औद्योगीकरण के मॉडल को लेकर चलने और वृद्घि दर के भ्रामक मुगालतों को पालने की जो नवउदारवादी सोच सरकार पर हावी है, उसमें प्रफुल्ल पटेल की ही चलने वाली है।

विडंबना यह है कि पिछले दो दशक से यह राग अलापा जा रहा है कि अनुदानों का बोझ व बजट घाटा बहुत ज्यादा हो गया है, उसे कम करना चाहिए। यह भी कि अनुदानों को लक्षित बनाना चाहिए, यानी अनुदान सिर्फ गरीबों को ही मिले। इसी सोच के तहत गरीबी की हास्यापद रेखाएं खीची गयीं। किंतु डीजल कारों के इस मामले से साफ है कि सरकार को अमीरों की गैरजरूरी विलासिता के लिए भी देश का खजाना लुटाने में कोई परेशानी नहीं है। देश के कार उद्योग और कार उपभोक्ताओं को पहले से कई तरह की सब्सिडी, करों में छूट और सरकारी खर्च पर सुविधाएं मिलती हैं।

कारखाना लगाने के लिए सस्ती जमीन, सस्ती बिजली, सस्ता कर्ज व कर रियायतों से लेकर राजमार्गों, एक्सप्रेस वे, फ्लाईओवरों व पार्किंग स्थलों के ताबड़तोड़ निर्माण पर अरबों-खरबों का खर्च उन्हीं को समर्पित है। यह भी एक तरह का भ्रष्ट आचरण है, देश विरोधी काम है, किंतु नीतिगत होने से यह कानून या लोकपाल की पकड़ में नहीं आता। क्या कोई अन्ना आंदोलन ऐसे देश विरोधी-जन विरोधी कामों के खिलाफ भी सामने आयेगा?

(राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, समाजवादी जन परिषद्)

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