कावेरी विवाद : समाधान की तलाश


लगभग 124 सालों से कावेरी नदी के पानी के बँटवारे को लेकर दक्षिण भारत के हितग्राही राज्य खासकर तमिलनाडु और कर्नाटक बुरी तरह उलझे हुए हैं। उल्लेखनीय है, आजादी के पहले मैसूर रियासत और मद्रास प्रेसीडेंसी और अब कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी असहमति की बिसात पर भले ही आमने-सामने हैं लेकिन कर्नाटक और तमिलनाडु की असहमति देशव्यापी चिन्ता का कारण है।

कावेरी नदी तंत्र का पानी मुख्य रूप से खेती, पेयजल, औद्योगिक आवश्यकताओं और पनबिजली पैदा करने के काम में आता है। राज्यों के बीच पानी का बँटवारा हो चुका है पर जिस साल मानसून धोखा देता है या नदी तंत्र में पानी की कमी हो जाती है विवाद उग्र हो जाता है। मानसून की भूमिका या पानी की कमी के कारण लम्बे समय से यह विवाद अन्तहीन असहमति का शिकार है।

कावेरी नदी में पानी का मुख्य स्रोत बरसाती पानी है। उसका कैचमेंट कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी में फैला है। कावेरी नदी इन्हीं राज्यों से होकर बहती है इसलिये ये चारों राज्य उसके पानी पर अपनी-अपनी नैसर्गिक अधिकारिता जताते हैं। अधिकारिता जताने के पीछे प्राकृतिक और सदियों पुरानी जल उपयोग की परम्परा है।

कावेरी नदी घाटी का लगभग 42 प्रतिशत इलाका कर्नाटक राज्य में स्थित है। इसके अतिरिक्त कावेरी घाटी का लगभग 63 प्रतिशत इलाका सूखा प्रभावित इलाका है। उसे केवल दक्षिण-पश्चिमी मानसून से पानी मिलता है। दूसरी ओर कावेरी नदी घाटी का लगभग 54 प्रतिशत इलाका तमिलनाडु राज्य में स्थित है। उसे उत्तर-पूर्व मानसून से भी पानी मिलता है। इस पानी में कर्नाटक की भागीदारी नहीं है। यह अन्तर प्राकृतिक है।

अनुमान है कि कावेरी के पानी पर आश्रित इन राज्यों की सकल आवश्यकता लगभग 1100 बिलियन क्यूबिक फीट (कर्नाटक - 425, केरल -100, तमिलनाडु - 566 और पुदुचेरी - 10 बिलियन क्यूबिक फीट) है। उस आवश्यकता के विरुद्ध कावेरी नदी-तंत्र में औसतन 730 बिलियन क्यूबिक फीट उपयोग योग्य पानी उपलब्ध है। यह माँग और पूर्ति के अन्तर का मामला है।

मामला आजीविका से जुड़े होने के कारण बेहद संवेदनशील है। उसका स्थायी हल खेती में लगने वाले पानी की कमी को पूरा करने में छुपा है तर्कों, आँकड़ों, इतिहास, भूगोल या परिपाटी में नहीं इसलिये विवादों को सुलझाने और अमन कायम के लिये ऐसी व्यवस्था आवश्यक होगी जो पानी की कमी को पूरा करती है। यह निरापद खेती और आजीविका का मसला है।

सम्भवतः इसी कारण संवैधानिक प्रावधान या नीतिगत निर्णय समाज की उस असहमति को खत्म नहीं कर पा रहे हैं जिसका सीधा-सीधा सम्बन्ध समाज की आजीविका से उपजी आवश्यकता से है। इसी कारण आवश्यकता के मार्ग में आने वाली छोटी सी रुकावट भी दावानल बन जाती है।

कावेरी पर गठित प्राधिकरण पानी की उपलब्ध औसत मात्रा के बँटवारे को, जो निम्नानुसार है, दर्शाता है-

 

 

तमिलनाडु

419 बिलियन क्यूबिक फीट

कर्नाटक

270 बिलियन क्यूबिक फीट

केरल

30 बिलियन क्यूबिक फीट

पुदुचेरी

7 बिलियन क्यूबिक फीट

 

कर्नाटक के मंड्या और मैसूर जिले एवं तमिलनाडु में तंजावुर, तिरुवरुर, नागपट्टनम और इरोड जिलों में कावेरी के पानी का सिंचाई में सर्वाधिक उपयोग होता है। उल्लेखनीय है कि कावेरी ही देश की एकमात्र ऐसी नदी है जिसके पानी की लगभग 95 प्रतिशत मात्रा उपयोग में लाई जा रही है।

इस पानी का काफी बड़ा हिस्सा अधिक पानी चाहने वाली फसलों को सींचने के काम में लाया जाता है। कुछ लोग नदी की सेहत और उसकी प्राकृतिक भूमिका के निर्वाह को ध्यान में रख इसका विरोध करते हैं पर किसानों सहित अनेक लोगों की नजर में वह अनुचित नहीं है।

कावेरी के पानी के बँटवारे का मामला भावनात्मक है। भावनात्मक मसले का गणितीय समाधान नहीं होता। इसलिये प्रश्न समाधानों से सम्बद्ध तरीकों को खोजने और उन्हें सफलतापूर्वक जमीन पर उतारने का है। प्रश्न उन समाधानों की सामाजिक स्वीकार्यता का है। प्रश्न राज्यों के बीच समरसता बहाल करने और स्वीकार्यता बढ़ाने का भी है। सामाजिक स्वीकार्यता का सम्बन्ध निरापद खेती से होने वाली सम्मानजनक आय से है। सामाजिक स्वीकार्यता ही हल है।

अब बात समाधानों की। कुछ समाधान तकनीकी विकल्पों पर तो कुछ समाज की सहमति से हो सकते हैं। मुख्य सुझाव निम्नानुसार हैं-

पुराने बाँधों में जमा गाद का निपटान। यह काम बेहद जटिल है। गाद की सम्भावित मात्रा का निपटान कछार में सम्भव नहीं है। उसे कुदरती तरीके से निपटाना होगा। ऐसा करने से जलाशयों की क्षमता बढ़ेगी। अधिक पानी जमा होगा। तनाव कम होगा। इसके अलावा, बिजली उत्पादन का दूसरा विकल्प अर्थात सौर ऊर्जा अपनाया जाये। ऐसा करने से पानी के उपयोग की प्लानिंग में मदद मिलेगी।

कावेरी नदी तंत्र पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों का अध्ययन किया जाये। गणितीय मॉडलों तथा अन्य विधियों से जल संचय की सम्भावित हकीकत का आकलन कर सभी हितग्राहियों को विश्वास में लेकर स्वीकार्य रोडमैप तैयार किया जाये।

कावेरी नदी तंत्र की सभी नदियों में प्रवाह बढ़ाने के लिये प्रयास किये जाएँ। नदी से रेत निकालने के तकनीकी मानक तय किये जाएँ। जल संचय, प्रवाह तथा बाढ़ के नियमन में रेत की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। उसे अनुकूल बनाया जाये।

सितम्बर माह में पानी की कमी से निजात पाने के लिये सतही जल और भूजल का मिलाजुला उपयोग पूरी दक्षता और क्षमता के अनुसार मैदानी इलाकों में करना होगा। भूजल दोहन के लिये उथले कुओं का उपयोग हो। बोरवेल पूरी तरह वर्जित होना चाहिए।

पानी के उपयोग में मितव्ययता को प्रोत्साहित करना चाहिए। ड्रिप, स्प्रिंकलर जैसे साधन जो पानी के अपव्यय को न्यूनतम करते हैं, के लिये राज्यों द्वारा अधिकतम सुविधाएँ जुटाई जानी चाहिए। इस मामले में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PM Krishi Sichayi Yojna) बेहद मददगार सिद्ध हो सकती है।

मौसम के कुप्रभाव से फसलों को बचाने के तरीकों पर अनुसन्धान किया जाये। सफल तरीकों को लागू करना चाहिए। आर्गेनिक फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाये।

कम पानी चाहने वाली फसलें यथा दालें, तिलहन तथा मोटे अनाजों को प्रोत्साहित करना चाहिए। यह काम उचित समर्थन मूल्य द्वारा ही सम्भव है। धान की भी कुछ किस्में हैं जिनमें कम पानी लगता है, को समर्थन मूल्य की व्यवस्था से आगे बढ़ाया जा सकता है। एसआरआई विधि (System of Rice Intensification) बहुत उपयोगी विकल्प सिद्ध हो सकती है। उसे बढ़ावा दिया जाये।

कर्नाटक और तमिलनाडु में सदियों से तालाबों को सामाजिक मान्यता प्राप्त रही है। उनका जल विज्ञान मौजूदा जल विज्ञान से जुदा था। इस कारण वे बारहमासी थे। उनमें बहुत ही कम गाद जमा होती थी। उनकी उम्र लम्बी होती थी।

अनदेखी के कारण अधिकांश तालाबों में गाद जमा हो गई है। उनकी गाद निकालने के लिये प्राकृतिक तरीका अपनाया जाये और उन्हें पुनःजीवित किया जाये। उनकी संख्या बढ़ाई जाये। उनकी गहराई का निर्णय पानी की माँग, रीचार्ज और वाष्पीकरण हानि की गणना के आधार पर किया जाये।

हर ग्राम को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिये माँग और पूर्ति के आधार पर जल संचय किया जाये। पानी के विकेन्द्रीकृत मॉडल को प्रोत्साहित किया जाये। उनमें पानी जमाकर पानी की कमी को दूर करने की पूरी कोशिश की जाये। नदी के पानी का उपयोग उन्हें भरने में किया जाये। इस परम्परा को जीवित किया जाना चाहिए।

ग्राम स्तर पर किसानों के समूह बनाए जाएँ। पानी की उपलब्धता के आधार पर उन्हें फसल लगाने के लिये जागरुक किया जाये। बिना आर्थिक हानि उठाए कैसे कम-से-कम पानी में आजीविका सुनिश्चित की जा सकती है, के लिये नवाचारी कदम उठाए जाएँ।

और भी अनेक सुझाव हो सकते हैं लेकिन समस्या का समाधान समाज को केन्द्र में लाकर ही किया जा सकता है। समाज को अवसर दिया जाना चाहिए।

 

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