कभी हमारा रिश्ता पानीदार था

9 Jun 2018
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पानी कितना जरूरी है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि पानी नहीं रहा, तो क्या-क्या हो सकता है? प्रदेशों के बीच पानी का विवाद तो हमारे समय की सच्चाई है ही, पानी के लिये हत्याएँ भी होने लगी हैं। भविष्य में यह बड़े विनाश का कारण भी बन सकता है।

पानी के बारे में यों ही नहीं कहा जाता कि पानी जीवन है। पानी जीवन भी है और जीवन शैली का निर्धारक भी। पानी सभ्यता भी है और संस्कृति भी। पानी बसाता भी है और उजाड़ता भी है। पानी समाज को जोड़ना भी जानता है और तोड़ना भी। पानी रोजगार देता भी है और छीन भी लेता है। पानी जीडीपी का भी निर्धारक है और चेहरे पर चस्पा खुशी के हर सूचकांक का भी। पानी सेहत भी देता है और बीमारी भी।

पानी है तो सैर-सपाटा है; खेती है; जंगल है; हवा का सुहानापन है; कुदरत के गीत हैं; संगीत हैं। दुनिया का कोई फैक्ट्री उत्पाद ऐसा नहीं, जिसे बनाने में पानी का उपयोग न होता हो। पानी जीवन और रचना का मूल तत्व है। कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ और सिर्फ पानी की बुनियाद पर टिकी हैं। पानी नहीं, तो कुछ भी नहीं। इसीलिये पानी के साथ जीवन, रचना और विनाश के इतने सारे रिश्तों को आगे रखकर समझ सकते हैं कि रहीमदास जी ने ‘बिन पानी सब सून क्यों कहा’ और ‘पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून’, का क्या मतलब है?

कभी हमारा रिश्ता इतना पानीदार था कि लाडले का गाँव छोड़कर शहर नौकरी करने जाना, गरीब से गरीब माँ-बाप को भी मंजूर न था। आज हर सप्ताह करीब 10 लाख लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वर्ष 2050 तक दुनिया के ढाई अरब लोग शहरों में रहने लगेंगे। वर्ष 2050 तक अकेले निर्माण क्षेत्र में पानी की खपत में 400 गुना इजाफा हो जाएगा। माँग-आपूर्ति का यह असन्तुलन अभी और बढ़ेगा।

दुनिया की आबादी अभी आठ अरब है। वर्ष 2050 में 9.8 अरब हो जाएगी। आज दुनिया के 45 प्रतिशत लोग साल में कम-से-कम एक महीने पानी की कमी से तरस रहे हैं। वर्ष 2050 में साठ प्रतिशत आबादी पानी के लिये तड़पेगी। आज मध्य एशिया और दक्षिण अफ्रीका के करीब 40 देशों के कई करोड़ लोग अपनी जड़ों से उजड़कर दूसरे देशों में विस्थापित, शोषित और पीड़ित परिवार का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस कारण आज दुनिया में अशान्ति और युद्ध का बुरा माहौल तैयार हो रहा है। आने वाले दशकों में पानी के कारण युद्ध और अशान्ति के शिकार भारतीय भी होंगे। क्या यह अच्छा होगा?

गौर कीजिए कि मात्र 25 लीटर प्रति व्यक्ति की जलापूर्ति में जीवन चलाने की मजबूरी की बदनामी, आज सिर्फ केपटाउन शहर के नाम है। वर्ष 2050 से बहुत पहले ही यह बदनामी दुनिया के हर ऐसे शहर के माथे पर होगी, जो अपनी जरूरत के पानी के लिये अपने सिर पर बरसने वाले पानी को संचित करने की बजाय, दूसरों की ओर ताकने को अपनी आदत बना चुके हैं; शिमला, दिल्ली, जयपुर आदि-आदि। दिल्ली की वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र की झुग्गी बस्ती में पानी को लेकर बीते मार्च महीने में विवाद हुआ। विवाद में एक की हत्या हुई। वर्ष 2050 में पानी के लिये ऐसे विवाद और हत्याएँ जनवरी माह में ही शुरू हो जाएँगे।

भारत में आज कावेरी, कृष्णा, महानदी, सतलुज, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, यमुना आदि नदी जल के विवाद हैं। ‘नदी-जोड़’ जैसी परियोजनाएँ जमीन पर उतर सकीं, तो वर्ष 2050 में देश और राज्य नहीं, जिलों के बीच बहने वाली धाराएँ विवाद का केन्द्र बनेंगी। अभी बाँधों के डूब क्षेत्र से विस्थापित हुए लोगों की स्थापना को लेकर संगठन आन्दोलित होते हैं। बुन्देलखण्ड और विदर्भ जैसे इलाकों के माथों पर किसानों की आत्महत्या का कलंक लगता है। कल को पूरा भारत ही पानी के लिये त्राहि-त्राहि कर सकता है। बताइए कि इससे गरीब की मुस्कान का सूचकांक बढ़ेगा कि घटेगा? भारत का गंगा-जमुनी सद्भाव बचेगा या कि नष्ट हो जाएगा?

गौर कीजिए कि उद्योगों में कृषि, वानिकी, मछली पालन, ऊर्जा, संसाधन केन्द्रित निर्माण, इमारती निर्माण, परिवहन तथा वस्तुओं से फिर से उपयोग लायक बनने की आठ श्रेणियाँ ऐसी हैं, जिनका अस्तित्व सीधे-सीधे जल एवं दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर टिका है।

“संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट-2016” कहती है कि दुनिया की कुल कार्यशक्ति का आधा हिस्सा, आठ ऐसे ही उद्योगों में काम करता है। रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में आजीविका के हर चार उपलब्ध अवसरों में से तीन से कुछ अधिक, यानी हममें से 78 प्रतिशत की आजीविका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पानी पर ही निर्भर है। सोचिए कि गर पानी रूठ जाए, तो निवेश और आजीविका के कितने प्रतिशत अवसर रूठ जाएँगे? भारत में बेरोजगारी का बढ़ता ग्राफ क्या और डरावना नहीं हो जाएगा?

फिक्की की पाँच वर्ष पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 60 से अधिक प्रतिशत उद्योग पानी की कमी महसूस कर रहे हैं। मोदी सरकार वर्ष 2022 तक किसानों की आय को भले ही दोगुना करने का दावा कर रही हो, किन्तु करीब 53 प्रतिशत फसल भूमि के असिंचित क्षेत्र में आने का आँकड़ा और ‘आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट-2018’ बता रहे हैं कि आगामी वर्षों में भारतीय किसान की आय औसतन 20 से 25 प्रतिशत तक गिर जाएगी। उत्पादन गिरेगा। महँगाई बढ़ जाएगी। गरीबों का जीना मुहाल हो जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ को अंदेशा है कि जलवायु परिवर्तन की मार और पानी की कमी भारत में खाद्य उत्पादन को इतना घटा सकती है कि भारत की जीडीपी को 49.47 अरब डॉलर का नुकसान हो जाये। अनिश्चित होता वर्षा चक्र, घटता वर्षाजल संचयन बढ़ती बाढ़, बढ़ती आबादी, बढ़ता जल दोहन, बढ़ता रेगिस्तान, ऊसर-बंजर धरती का बढ़ता रकबा और बढ़ता प्रदूषण बता रहा है कि हालात इससे भी बुरे हो सकते हैं। सोचिए कि तब दुनिया की महाशक्ति बनने के भारतीय सपने का क्या होगा?

आइए, पानी से सेहत के रिश्ते पर गौर करें। हमारे खून में ही नहीं, दिमाग में भी तीन-चौथाई पानी ही होता है। पानी, शरीर के जहरीले तत्वों को बाहर निकालने का काम करता है। यह पानी ही है कि जो शरीर में तरल पदार्थों के प्रवाह को, मांसपेशियों की लचक को कायम रखता है। पानी, वसा को पचाता है। पानी, वजन को नियंत्रित करता है। पानी, गैस व पेट की जलन को ठीक रखता है। पानी, हमें थकने से बचाता है। पानी, हमारी एकाग्रता बढ़ाता है। पानी, स्वच्छ और स्वस्थ न हो, तो जीव बीमार पड़ जाता है।

संयुक्त राष्ट्र कह रहा है साफ पानी के अभाव अथवा प्रदूषण की वजह से प्रतिदिन 2300 लोगों की मौत हो रही है। डॉक्टरी शोध कह रहा है कि भारत में गुर्दा रोगियों के होने की तेजी से बढ़ती संख्या का मूल कारण प्रदूषित पानी है। हकीकत यह है कि यदि हम समझ जाएँ कि बाँध-तटबन्ध के बनने और भूजल स्तर के नीचे उतरने का मच्छर, मछली, मेंढक, मलेरिया और डेंगू से क्या सम्बन्ध है तो हम बहुत जल्द समझ जाएँगे कि हमें होने वाली 80 प्रतिशत बीमारियों की मूल वजह पानी, मिट्टी, हवा का प्रदूषण, कमी या अधिकता ही है।

उक्त रिश्ते, अगर एक चेतावनी हैं, तो ‘रहिमन पानी राखिए’ की उक्ति, एक सीख। सीख कहती है कि पानी को शुद्ध, संचित और सुरक्षित करके रखना जितना जरूरी है, उतनी ही जरूरी है उसकी बचत। अतः पानी के संकट का सारा दोष, जलवायु परिवर्तन के माथे मढ़कर हम बच नहीं सकते। हमें आईना अपनी स्थानीय कारगुजारियों की ओर भी घुमाना होगा।

गौर कीजिए कि हिमाचल में पानी प्रबन्धन व आपूर्ति का बिजली खर्च 70 करोड़ रुपये है। अमेरिका में बिजली के लिये पानी खपत का आँकड़ा 41 प्रतिशत है। दुनिया में पानी की कुल खपत का 15 प्रतिशत सीधे-सीधे बिजली उत्पादन में खर्च हो रहा है। भारत में 85 प्रतिशत खपत कृषि क्षेत्र में है। ऐसे में यदि पानी की खपत घटानी है, तो जरूरी है कि पानी-बिजली के उपयोग में अनुशासन लाएँ। कम पानी की फसल अपनाएँ। पानी की बर्बादी रोकने तथा कम पानी में अधिक उपज देने वाली तकनीकें अपनाएँ। कम उपभोग करने वाले को सम्मान दें।

अनावश्यक उपभोग करने वाले को कुदरत से जितना लिया, उतना और वैसा वापस लौटाने की राह दिखाएँ। पानी का उचित संचयन-नियोजन, सजीव खेती, मिट्टी, नमी और हरियाली का संरक्षण करके हम उपयोग किये पानी की मात्रा वापस जल तिजोरियों में पहुँचा सकते हैं। कम-से-कम कचरा पैदा करना और उपजे कचरे को उसके उपजने के स्रोत पर ही शोधित करना, कुदरत के दिये पानी की गुणवत्ता कायम रखने की कवायदें हैं। दुनिया की सबसे प्राचीन समृद्ध सभ्यताओं ने यही किया था, आइए, हम भी करें; वरना पानी के मामले में अब असभ्य तो हम हैं ही।

(लेखक ‘पानी आन्दोलन’ से जुड़े हुए हैं)

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