कचरे के ढेर से फूटती लैंडफिल गैसें

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रोजाना घरों से निकलने वाले कचरे और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से गड्ढों को पाटने का काम बिना किसी रासायनिक उपचार के कर दिया जाता है। इस मिश्रित कचरे में मौजूद विभिन्न रसायन परस्पर सम्पर्क में आकर जब पाँच-छह साल बाद रासायनिक क्रियाएँ करते हैं, तो इसमें से जहरीली लैंडफिल गैसें पैदा होने लगती हैं। इनमें हाइड्रोजन परॉक्साइड, नाइड्रोजन ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड वगैरह होती हैं। कचरे के सड़ने से बनने वाली इन बदबूदार गैसों को वैज्ञानिकों ने लैंडफिल गैसों के दर्जे में रखकर एक अलग ही श्रेणी बना दी है।दिल्ली की आबोहवा खराब करने में कचरों के ऐसे ठिकाने बेहद खतरनाक साबित हो रहे हैं, जिनसे लैंडफिल गैसें हवा और जलस्रोतों को एक साथ प्रदूषित करते हैं। अवैज्ञानिक तरीके से दिल्ली में कचरों के ठिकानों से फूटती लैंडफिल नामक इन शैतानी गैसों से दिल्ली की एक बड़ी आबादी का जीना मुश्किल हो गया है। इन ठिकानों को हटाने और कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करने के लिये विभिन्न संस्थाएँ राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा चुकी हैं, लेकिन नतीजा ढाँक के तीन पात रहा।

दिल्ली में गाजीपुर, भलस्वा तथा ओखला में लैंडफिल ठिकाने हैं। इनमें रोजाना 14,100 टन कचरा डाला जाता है। इसके वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण के कोई तकनीकी इन्तजाम नहीं हैं। एनजीटी ने पिछले साल एक समिति का गठन कर उससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कचरे से बिजली पैदा करने की सम्भावना तलाशने को कहा था, लेकिन दिल्ली सरकार, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड किसी परिणाम तक नही पहुँच पाये।

इसी साल अक्टूबर माह में गाजीपुर में कूड़े का पहाड़ अचानक ठह जाने से 2 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इन ढेरों में अचानक आग भी लग गई, इस कारण समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण जानलेवा साबित होने लगा। पर्यावरणीय मामलों के प्रमुख वकील गौरव बंसल का कहना है कि ये लैंडफिल कचरों के ठिकाने नहीं हैं। क्योंकि ऐसे ठिकानों के लिये विशेष डिजाइन और कायदे-कानून का प्रावधान है। कचरा डालने से पहले इन मैदानों में मिट्टी, प्लास्टिक, जैव और जैव-चिकित्सा जैसे कचरे को अलग किया जाता है। जबकि इन ठिकानों पर ऐसा कुछ भी नहीं होता है। इसलिये ये ठिकाने वेस्ट डंपिंग ग्राउंड बनकर रह गए है।

दरअसल लैंडफिल गैसें उन स्थलों से उत्सर्जित होती हैं, जहाँ गड्ढों में शहरी कचरा भर दिया गया हो। इस कचरे में औद्योगिक कचरा भी शामिल हो तो इसमें प्रदूषण की भयानकता और बढ़ जाती है। नए शोधों से पता चला है कि नियम-कानूनों को ताक पर रखकर लापरवाही से तैयार किये भूखण्डों पर खड़ी इमारतों में चल रहे सूचना तकनीक के कारोबार में प्रयुक्त चाँदी, तांबा और पीतल के कल-पूर्जों की सेहत लैंडफिल गौसों के सम्पर्क में आकर बिगड़ जाती है। इनका हमला निर्जीव यांत्रिक उपकरणों पर ही नहीं मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर डालता है।

हमारे देश की महानगर पलिकाएँ और भवन-निर्माता गड्ढों वाली भूमि के समतलीकरण का बड़ा आसान उपाय इस कचरे से खोज लेते हैं। रोजाना घरों से निकलने वाले कचरे और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से गड्ढों को पाटने का काम बिना किसी रासायनिक उपचार के कर दिया जाता है। इस मिश्रित कचरे में मौजूद विभिन्न रसायन परस्पर सम्पर्क में आकर जब पाँच-छह साल बाद रासायनिक क्रियाएँ करते हैं, तो इसमें से जहरीली लैंडफिल गैसें पैदा होने लगती हैं। इनमें हाइड्रोजन परॉक्साइड, नाइड्रोजन ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड वगैरह होती हैं।

कचरे के सड़ने से बनने वाली इन बदबूदार गैसों को वैज्ञानिकों ने लैंडफिल गैसों के दर्जे में रखकर एक अलग ही श्रेणी बना दी है। दफन कचरे में भीतर-ही-भीतर जहरीला तरल पदार्थ जमीन की दरारों में रिसता है। यह जमीन के भीतर रहने वाले जीवों के लिये प्राणघातक होता है। भूगर्भ में निरन्तर बहने वाले जलस्रोतों में मिलकर यह शुद्ध पानी को जहरीला बना देता है। गन्धक के अनेक जीवाणुनाशक यौगिक भूमि में फैलकर उसकी उर्वरा क्षमता को नष्ट कर देते हैं।

आधुनिक जीवनशैली बहुत अधिक कचरा पैदा करती है। इसलिये भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर विकसित और विकासशील देश कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या से जूझ रहे हैं। लेकिन ज्यादातर विकसित देशों ने समझदारी बरतते हुए इस कचरे को अपने देशों में ही नष्ट कर देने की कार्यवाई पर रोक लगा दी है। दरअसल पहले इन देशों में भी इस कचरे को धरती में गड्ढे खोदकर दफना देने की छूट थी। लेकिन जिन-जिन क्षेत्रों में यह कचरा दफनाया गया, उन-उन क्षेत्रों में लैंडफिल गैसों के उत्सर्जन में पर्यावराण बुरी तरह प्रभावित होकर खतरनाक बीमारियों का जनक बन गया।

जब ये रोग लाइलाज बीमारियों के रूप में पहचाने जाने लगे तो इन देशों का शासन-प्रशासन जागा और उसने कानून बनाकर औद्योगिक व घरेलू कूड़े-कचरे को अपने देश में दफन करने पर सख्त प्रतिबन्ध लगा दिया। तब इन देशों ने इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिये लाचार देशों की तालाश की और आपको हैरानी होगी कि सबसे लाचार देश निकला भारत। दुनिया के 105 से भी ज्यादा देश अपना औद्योगिक कचरा भारत के समुद्रीय तटवर्ती इलाकों में जहाजों से भेजते हैं। इन देशों में अमेरिका, चीन, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन प्रमुख हैं।

नेशनल एनवायरमेंट इंजीनियारिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक शोध पत्र के अनुसार वर्ष 1997 से 2005 के बीच भारत में प्लास्टिक कचरे के आयात में 82 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। ये आयात देश में पुनर्शोधन व्यापार को बढ़ावा देने के बहाने किया जाता है। इस क्रम में विचारणीय पहलू यह है कि इस आयातित कचरे में खतरनाक माने जाने वाले ऑर्गेनो-मरक्यूरिक यौगिक निर्धारित मात्रा से 1500 गुना अधिक पाये गए हैं, जो कैंसर जैसी लाइलाज और भयानक बीमारी को जन्म देते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की मुल्यांकन समिति के अनुसार देश में हर साल 44 लाख टन कचरा पैदा होता है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर कॉरपोरेशन एंड डेवलपमेंट ने इस मात्रा को 50 लाख टन बताया है। इसमें से केवल 38.3 प्रतिशत कचरे का ही पुनर्शोधन किया जा सकता है, जबकि 4.3 प्रतिशत कचरे को जलाकर नष्ट किया जा सकता है। लेकिन इस कचरे को औद्योगिक इकाइयों द्वारा ईमानदारी से पुनर्शोधित न किया जाकर ज्यादातर जलस्रोतों में धकेल दिया जाता है।

कचरा भण्डारों को नष्ट करने के ऐसे ही फौरी उपायों के चलते एक सर्वे में पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन ने पाया है कि हमारे देश के पेयजल में 750 से 1000 मिलिग्राम प्रति लीटर तक नाइट्रेट पानी में मिला हुआ है और अधिकांश आबादी को बिना किसी रासायनिक उपचार के पानी प्रदाय किया जा रहा है, जो लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। एप्को के अनुसार नाइट्रेट बढ़ने का प्रमुख कारण औद्योगिक कचरा, मानव व पशु मल है।

ऐसे ही कारणों से लैंडफिल गैंसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। नतीजतन बच्चों में ब्लू बेबी सिंड्रोम जैसी बीमारी फैल रही है। इन गैसों के आँख, गले और नाक में स्थित श्लेष्मा परत के सम्पर्क में आने से दमा, साँस, त्वचा और एलर्जी की बीमारियाँ बढ़ रही हैं। कचरा मैदानों के ऊपर बने भवनों में रहने वाले लोगों में से, खासतौर से महिलाओं में मूत्राशय का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। लैंडफिल गैसें इन खतरों को चार गुना बढ़ा देती हैं। यह प्रदूषण गर्भ में पल रहे शिशु को भी प्रभावित करता है।

नियमानुसार कचरा मैदानों में भवन निर्माण का सिलसिला 15 साल बाद होना चाहिए। इस लम्बी अवधि में कचरे के सड़ने की प्रक्रिया पूर्ण होकर लैंडफिल गैसों का उत्सर्जन भी समाप्त हो जाता है और जल में घुलनशील तरल पदार्थ का बनना भी बन्द हो जाता है। लेकिन प्रकृति की इस नैसर्गिक प्रक्रिया के पूर्ण होने से पहले ही हम जमीन के समतल होने के तत्काल बाद ही अलीशान इमारतें खड़ी करने का सिलसिला शुरू होता है। जिसका नतीजा उस क्षेत्र में रहने वाली आबादी और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भुगतना होता है।

अब इस औद्योगिक व घरेलू कचरे को नष्ट करने के प्राकृतिक उपाय भी सामने आ रहे है। हालांकि हमारे देश के ग्रामीण अंचलों में घरेलू कचरे व मानव एवं पशु मल-मूत्र को घर के बाहर ही घरों में प्रोसेस करके खाद बनाने की परम्परा रही है। इसके चलते कचरा महामारी का रूप धारण कर जानलेवा बीमारियों का पर्याय न बनते हुए खेत की जरूरत के लिये ऐसी खाद में परिवर्तित होता है, जो फसल की उत्पादकता व पौष्टिकता बढ़ाता है।

अब एक ऐसा ही अद्वितीय व अनूठा प्रयोग औद्योगिक व घरेलू जहरीले कचरे को नष्ट करने में सामने आया है। अभी तक हम केंचुओं का इस्तेमाल खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिये वर्मी कम्पोस्ट खाद के निर्माण में करते रहे हैं। हालांकि खेतों की उर्वरा क्षमता बढ़ाने में केंचुओं की उपयोगिता सर्वविदित है, पर अब औद्योगिक कचरे को केंचुओं से निर्मित वर्मी कल्चर से ठिकाने लगाने का सफल प्रयोग हुआ है।

अहमदाबाद के निकट मुथिया गाँव में एक पायलट परियोजना शुरू की गई है। इसके तहत जमा 60 हजार टन कचरे में 50 हजार केंचुए छोड़े गए थे। चमत्कारिक ढंग से केंचुओं ने इस कचरे का सफाया कर दिया। फलस्वरूप यह स्थल पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से जहर के प्रदूषण से मुक्त हो गया। लैंडफिल गैसों से सुरक्षा के लिये कचरे को नष्ट करने के कुछ ऐसे ही प्राकृतिक उपाय अमल में लाने होंगे, जिससे कचरा मैदानों में बसी आबादी के लोग और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सुरक्षित रहें।

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