कहाँ खो गया बुन्देलखण्ड का पानी

13 Mar 2009
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अजय भान सिंह सागर से
पिछले कुछ सालों से सब कुछ बदला हुआ है.

जिस बुन्देलखण्ड में कुंओं की खुदाई के समय पानी की पहली बूंद के दिखते ही गंगा माई की जयकार गूंजने लगती थी, वहां एक अरसे से कुंओं बावड़ियों से गंगा माई नदारद हैं. जिस गऊ की, माता कहकर पूजा की जाती थी,चारे पानी के अभाव में उसको तिलक करके घरों से रूख्सत करना पड़ रहा है. सूखे खेतों में ऐसी मोटी और गहरी दरारें पड़ गई हैं, जैसे जन्म के बैरियों के दिलों में होती हैं.

पूरे साल पानी से लबालब जलाशयों , नदियों और नालों वाले इस इलाके में जेठ का महीना खत्म होते ही लाखों कातर निगाहें मेघराज की ओर टकटकी लगाये देखने लगती हैं और पिछले एक दशक से मेघराज यूं ही झूठमूठ बरसकर चले जाते हैं. लेकिन कुदरत की इस लम्बी बेवफाई से करोड़ों लोगों और प्राणियों का सब्र अब छलकने लगा है. पूरे इलाके के हर शहर, कस्बे, गांव और हर घर आंगन में गरीबी का असंतोष, भूख और प्यास अब व्यापने लगी है, खटकने लगी है.

मध्यप्रदेश,खासकर बुन्देलखण्ड के जलसंकट की यह एक बानगी भर है, हकीकत तो कहीं अधिक खून के आंसू रूला रही है. लेकिन इस हकीकत से बा-खबर होने के बावजूद सत्ता में सबसे ऊपर बैठा तबका मिनरल, बॉटल में मस्त है. सैकड़ों करोड़ रूपये की योजनाएं बनी, फाइलों में जलसंग्रहण हुआ, मेघराज बरसे, प्यारे लाल, अच्छेलाल की खुशहाली की कहानी भी छपी. बस इतने भर से सरकारी योजनाओं का क्रियाकर्म संपन्न होता रहा. जमीन पर जो हुआ वह ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है.

दिलचस्प यह है कि मध्यप्रदेश की औसत वर्षा करीब 11 सौ मिलीमीटर है, लगभग इतना ही बुन्देलखण्ड का भी है. अगर इतने पानी को रोक लिया जाये तो पूरा बुन्देलखण्ड एक साल तक पांच मीटर पानी में डूबा रहे.

कवियों ने “ इत चम्बल उत ताप्ती” कहकर बुन्देलखंड का भौगोलिक परिचय दिया है, जहां केन ,बेतवा, सोन , मंदाकिनी , धसान , सुनार , कोपरा , व्यारमा , बेबस जैसी कई छोटी-बड़ी नदियां हैं. फिर भी अगर यह धरती प्यासी है तो व्यवस्था की कोई तो कमी रही होगी.

केन्द्रीय जल आयोग के आंकड़ों पर भरोसा करें तो चंबल और मालवा क्षेत्र के 11 जिलों में खारे पानी की तो मंडला समेत इन्हीं दोनों क्षेत्रों के करीब दस जिलों में फ्लोराइड की विकट समस्या है. इससे निजात पाने के लिए करोड़ों रूपये खर्च हुए लेकिन नतीजा ढाक के वही तीन पात.

आयोग के आंकड़े बताते हैं कि करीब 24 विकासखण्डों में भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हो रहा है, 5 की स्थिति अति गंभीर है और 19 की गंभीर. इसका यह मतलब भी हुआ कि भूमिगत और नदी जल के विवेकपूर्ण इस्तेमाल के लिए 1986 में बने मध्यप्रदेश पेयजल परिरक्षण अधिनियम का इस्तेमाल करने में सरकारी मुलाजिमों को दिक्कतें पेश आ रही हैं. यानी यहां भी लाठी वालों को भैंस ले जाने से नहीं रोक पाई सरकार.

राज्य में जहां औसत वार्षिक भूमिगत जल उपलब्धि 34.33 है, वहीं इसका दोहन मात्र 17.12 है. यानी भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन में मप्र अभी भी पंजाब, हरियाणा , राजस्थान और उप्र जैसे राज्यों से पीछे है.

योजना आयोग ने अपनी दसवीं योजना की मध्यावधि समीक्षा रिपोर्ट में भी मप्र को अत्याधुनिक दोहन से मुक्त माना है. लेकिन किसी अच्छे नतीजे पर पहुंचने से पहले यह भी देखना होगा कि इन राज्यों में जल और योजना दोनों आयोगों ने अकूत भूमिगत जल स्त्रोत माने हैं. उस अनुपात से मप्र में जो दोहन हो रहा है वह बहुत है. हां इतना अवश्य है कि विंध्य क्षेत्र में चूना पत्थर की विशाल श्रृंखला के नीचे अकूत मात्रा में शुध्द जल की सैकड़ों किलोमीटर लम्बी चौड़ी धाराएं हैं, जिनका दोहन अगर किया जाये तो पूरे राज्य की पेयजल की आवश्यकता सालों तक पूरी की जा सकती है. लेकिन जितना धन इसमें लगेगा उतना कोई भी सरकार कम से कम पानी के लिए तो नहीं खर्च कर सकती है.

समाजवादी नेता रघु ठाकुर के अनुसार राजीव गांधी राष्ट्रीय जलग्रहण मिशन में करोड़ों रूपये फूंके गए पर उससे कितना पानी रूका, शायद किसी को नहीं पता.

बुन्देलखण्ड में पिछले साल भयानक सूखे के बाद राज्य सरकार चेती और आनन फानन में उसने बुन्देलखण्ड विकास प्राधिकरण बीडीए का गठन कर दिया. दतिया समेत 6 जिलों के विकास के लिए बने प्राधिकरण का पहले साल का बजट रहा करीब चार करोड़.

बीडीए के अध्यक्ष सुरेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं “ फण्ड सीमित था जितना बन पड़ा , काम किया.”

सुरखी से कांग्रेस के विधायक गोविन्द राजपूत की मानें तो प्राधिकरण है भी या नहीं, उन्हें तो आज तक समझ में नहीं आया. क्षेत्र के नाम पर सरकार मजाक कर रही है. सत्तारूढ भाजपा के प्रदेश महामंत्री भूपेन्द्र सिंह पानी कमी तो स्वीकारते हैं अलबत्ता सरकार द्वारा मंजूर की गई बीना नदी और कपरचंदिया समेत अनेक छोटी छोटी परियोजनाओं को गिनाना भी नहीं भूलते. बीना परियोजना से सागर जिले की बीना, खुरई ,सागर और राहतगढ़ तहसीलों की करीब 2 लाख हैक्टेयर जमीन सिंचिंत हो सकेगी और भूमिगत जलस्तर तो बढ़ेगा ही.

भूगर्भशास्त्री आर के त्रिवेदी के अनुसार गंगा और नर्मदा नदी तंत्र के बीचोंबीच फैले बुन्देलखण्ड के पठार की संरचना ऐसी है कि यहां कोई बड़ी नदी विकसित नहीं हो पाई. क्षेत्र का चट्टानी स्वरूप सैण्डस्टोन, कठोर ग्रेनाइट और नरम वेदर्ड जोन में बंटा है. कठोर चट्टानी इलाके में न तो भूमिगत जल पाया जाता है और न ही वहां जलसंग्रहण के कोई उपाय कारगर होते हैं. सेण्डस्टोन वाले क्षेत्रों में भी अत्यधिक दोहन से पानी 200 फीट से नीचे चला गया है. सो अलग अलग उद्देश्यों के लिए अलग क्षेत्रों की पहचान करके योजनाएं बनानी होगी.

श्री त्रिवेदी के अनुसार जलसंग्रहण के लिए वैदर्ड जोन सबसे माफिक कही जा सकती है, इसी तरह के जोन में क्षेत्र की ज्यादातर नदियां हैं. उनके अनुसार अगर इन नदियों और इनसे लगते नालों को एक के बाद एक चैक डेम से रोका जाये तो न केवल पानी रूकेगा बल्कि भूमिगत जल स्तर बढ़ाने के लिए भी इससे बेहतर कोई उपाय नहीं होगा.

सरकारें जलसंग्रहण के लिए तालाबों की खुदाई में करोड़ों रूपये खर्च कर रही है लेकिन त्रिवेदी इसे व्यर्थ बताते हुए समझाते हैं- “ तालाब पानी को रोकने के लिए होते हैं न कि पानी सोखने के लिए. जल संग्रहण के लिए गहरे इलाकों को चिन्हित करना होगा.”

कांग्रेस के प्रवक्ता राजा पटेरिया का कहना है कि मप्र की भाजपा सरकार केन्द्र की रोजगार गारंटी समेत कई योजनाओं का दुरूपयोग तो कर रही है लेकिन पानी पर खर्च नहीं करती. कई वाहियात योजनाओं में पैसा बहाया जा रहा है जबकि बुन्देलखण्ड में चन्देलक काल के 11 सौ ऐसे तालाब अभी भी जीवित हैं जिनकी इंजीनियरिंग दंग करने वाली है. बस इनमें से सिल्ट निकालने की जरूरत है.

विश्व भूख सूचकांक में भारत का समृध्दतम प्रांत पंजाब जहां वियतनाम, कम्बोडिया और पेरू जैसे देशों से भी पीछे है. वहीं मध्यप्रदेश पूरे भारत में सबसे निचले पायदान पर और विश्व में चाड और सोमालिया जैसे विफल विपन्न राष्ट्रों से भी गया गुजरा है. जाहिर है, मध्यप्रदेश सरकार की दिलचस्पी इन तथ्यों में नहीं है. पानी में भी नहीं और पानी की धार में भी नहीं.

-साभार - रविवार.कॉम
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