कहानी तीन नटखट बच्चों की

यह कहानी झाबुआ जिले के जाने माने गाँव जशोदा खुमजी की है। इस गाँव ने पिछले तीन सालों में अपनी एक खास पहचान बना ली है। उन्होंने यह पहचान फ्लोरोसिस के खिलाफ अपने अभियान की वजह से बनाई है। यह एक छोटा सा गाँव है, यहाँ के सभी लोग आपस में मिलजुल कर रहते हैं और एक दूसरे के सुख-दुख में हमेशा साथ देते हैं।

मगर इस गाँव का दुर्भाग्य यह है कि यहाँ हर घर में बच्चे फ्लोरोसिस जैसी एक भयानक बीमारी का शिकार हो चुके हैं। वैसे तो यह बीमारी कई बच्चों को हुई है। मगर हम बात कर रहे हैं उन तीन बच्चों की, जिनका नाम है नीलेश, प्रभु और दीपक। तीनों एक ही परिवार के हैं और आपस में बहुत अच्छे दोस्त भी हैं। इन तीनों की अपनी-अपनी एक ख़ासियत भी है।

नीलेश बहुत ही समझदार है। उसके मन में खिलौनों को लेकर नई-नई तरकीब आती रहती है। वह घर में फालतू पड़ी चीजों से खिलौने बनाने में माहिर है। पुरानी चप्पल से गाड़ी बनाना, साईकल के पुराने टायर से खिलौना बनाना और पुराने तार से रिंग वाली गाड़ी बनाना। और भी कुछ-न-कुछ नीलेश अपने दिमाग से करता रहता है।

प्रभु नीलेश का छोटा भाई है। वह बहुत ही मस्ती खोर है। हमेशा बच्चों के साथ मस्ती करता रहता है और खेलता रहता है। उसे सब कुछ अच्छा लगता है। अगर कोई उससे पूछता है कि प्रभु कैसा लगा तो वह अपनी तोतली भाषा में कहता है अत्ता (अच्छा) है।

दीपक के घर में उसके मम्मी–पापा, उसकी बूढ़ी दादी और उसके भाई बहन हैं। दीपक के घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब है। उसके मम्मी पापा हमेशा मजदूरी के लिये बाहर गाँव चले जाते हैं और घर पर केवल दीपक, उसकी दादी तथा उसकी छोटी बहन रहती है। उसकी छोटी बहन कभी चल नहीं सकती है।

दीपक 9 साल का लड़का है, वह फ्लोरोसिस जैसी बीमारी से तो लड़ ही रहा है, पर साथ ही उसे अपनी दादी और बहन की भी देखभाल करनी पड़ती है, वह घर का सारा काम करता है। दीपक सही ढंग से चल भी नहीं सकता पर क्या करें वो अपनी जिन्दगी से हार भी तो नहीं मान सकता। उसे जीना है।

अपने परिवार के लिये जीना है, यह सोचकर वो अपने घर की जिम्मेदारी को बखूबी निभा रहा है। घर के छोटे-मोटे काम वो खुद ही करता है, जैसे पानी भरना, गोबर डालना, जंगल में गाय बकरी को चराने ले जाना और जंगल से खाना पकाने के लिये लकड़ी बीन कर लाना, साथ में स्कूल भी जाना।

दीपक की यह उम्र खेलने-कूदने की है। पर इस उम्र में दीपक को कई कठिनाइयों और परेशानियों से लड़ना पड़ रहा है। दीपक को हर परेशानी जीने का एक नया रास्ता दिखाती है, वह इतना सारा काम करता है, फिर भी उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट झलकती रहती है। शायद उसे यह लगता है कि जिन्दगी में कितनी भी कठिनाइयाँ और परेशानियाँ आएँ लेकिन हर हाल में मुस्कुराते हुए उनका सामना करना है।

ये तीनों बच्चे आपस में हँसते-खेलते रहते हैं, लेकिन ये तीनों अच्छी तरह से अपना दुख और बीमारी का दर्द समझ सकते हैं, जितना कि उनके मम्मी-पापा भी उन्हें आज तक नहीं समझ पाए। ये तीनों बच्चे फालतू पड़ी चीजों से खिलौना बनाकर अपने लिये हमेशा कहीं-न-कहीं से खुशियाँ तलाश ही लेते हैं और उन खुशियों में इतने खुश हो जाते हैं कि उन्हें फ्लोरोसिस जैसी बीमारी का दर्द भी महसूस नहीं होता है।

शुरुआत में ये तीनों बच्चे अपनी-अपनी मस्ती में मस्त रहते थे। उन्हें यह नहीं पता था कि जो बीमारी उन्हें हो चुकी है उससे उनके जीवन पर क्या असर पड़ेगा। नीलेश और दीपक की बीमारी काफी गम्भीर हो चुकी थी। नीलेश को चलने में भी दिक्कत आती थी। वो अपने दोनों हाथों को अपने पैरों के घुटनों पर रखकर चलता था। मगर ये लोग इस बीमारी के बारे में न सोचकर अपनी जिन्दगी में आने वाले हर दिन हर पल को खुशी से जीना जानते थे।

उसी दौरान गाँव में इनरेम नामक एक संस्था के लोग पहुँचे, जो फ्लोरोसिस जैसी बीमारी की खोज में थे। इनरेम संस्था के लोगों ने इन बच्चों के माता-पिता से इस बीमारी के बारे में बात की तथा यह बीमारी किस कारण से हो रही है, इसके बारे में समझाया। उन्होंने यह भी बताया कि भले ही उनके बच्चों को ये बीमारी हो गई हो पर उसे यहीं पर रोका जा सकता है और वे फ्लोरोसिस जैसी बीमारी से अपने बच्चों को बचा सकते हैं।

यह जानकर इन बच्चों के माता-पिता तथा अन्य लोगों के मन में एक नई उमंग जगी। उनकी आँखों में फिर से सपने सजने लगे, यह सोचकर कि वे अपने बच्चों को किसी भी तरह बचा सकते हैं। उन्हें इनके माता-पिता फिर से चलता-फिरता और दौड़ता देखना चाहते थे। इनरेम संस्था ने धीरे-धीरे अपना काम शुरू किया। सबसे पहले नीलेश और दीपक के घर पर फ्लोराइड निकालने वाला फिल्टर दिया। उसके बाद उनका इलाज और टाइम-टाइम पर दवाइयाँ भी देनी शुरू की।

इन दवाओं से तीनों बच्चों के पैरों में सुधार होने लगा। ये तीनों बच्चे पहले की तुलना में अब बेहतर तरीके से चल फिर रहे हैं। अब ये तीनों अपनी गाय व बकरी को चराने के लिये जंगल तक भी चले जाते हैं। पहले ये केवल अपने घर के आसपास ही रहते थे। इनको लगता था कि दुनिया बहुत छोटी है। वे अपने गाँव से बाहर कभी निकले ही नहीं थे। लेकिन अब सुधार होने के बाद ये बच्चे आस-पास के गाँव तथा शहरों तक भी जाने लगे हैं। बाहर की दुनिया कैसी है, यह भी उन्हें पता चला है।

उनके परिवार के लोग तो इनरेम को एक चमत्कारी संस्था मानने लगे हैं। इन बच्चों के माता-पिता का मानना है कि अगर ये लोग हमारे गाँव में आकर इन बच्चों को नहीं सुधारते तो आज क्या पता इनकी हालत कैसी होती। पहले ये तीनों बच्चे अपने आप को विकलांग समझते थे। यहाँ तक कि उनके मम्मी-पापा भी इन बच्चों को लंगड़ा कह कर बुलाते थे। आज इस गाँव के प्रत्येक घर में नीलेश एक अच्छा उदाहरण बन गया है। सब नीलेश की तारीफ करते हैं।

अब जब भी कोई बच्चा दवाई गोली नहीं लेता है तो उनके परिवार वाले उसके सामने नीलेश का उदाहरण देते हैं। अगर समय पर गोली लोगे तो नीलेश की तरह सुधर जाओगे। इन तीनों बच्चों के माता-पिता भी इस बात को मानते हैं कि दवाई गोली और फिल्टर के पानी से अब उनके बच्चे सुधर गए हैं। इस गाँव के लोग और इन बच्चों के परिवार वाले इनरेम संस्था को अपने लिये वरदान समझते हैं। उन्हें लगता है कि इस संस्था के कारण ही उनके बच्चों में सुधार हुआ है।

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