किसानों का हल सत्याग्रह

5 Sep 2015
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kisan andolan
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खेती की लागत बढ़ती जा रही है पर उपज नहीं बढ़ रही है। फसल के दाम नहीं बढ़ रहे हैं। कर्ज बढ़ता जा रहा है। ऊपर से कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी अनियमित बारिश से फसल बर्बाद हो जाती है। फसल का मुआवजा नहीं मिलता। फसल बीमा से भी किसान को बहुत मदद नहीं मिलती। किसान के कंधे पर सरकार का हाथ नहीं है। उसे पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ दिया है, जो उसका शोषण करता है। हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में किसानों का अनूठा हल सत्याग्रह हुआ। जिसमें देश भर के छोटे-बड़े सभी किसान साथ आये और अपनी जिन्दगी, खेत और गाँव को बचाने की लड़ाई की आगाज किया। किसानों ने अपनी माँग, चिन्ता और पीड़ा को अनूठे अन्दाज में व्यक्त की। वे गीतों व ढोल-मंजीरों और नृत्य के माध्यम से इन्द्रधनुषी छटा बिखेरते आये, जिसे देखते ही बनता था।

मैं उस छोटे बच्चे को देखता रहा, जो बिहार के रोहतास जिले के सुदूर गाँव अपनी माँ के लम्बी ट्रेन से साथ आया था। धूप में बैठी माँ ने उसकी अँगुली पकड़ रखी थी और वह कौतूहल से भीड़ को देख रहा था। बुजुर्ग जो चिलचिलाती धूप में मंच की ओर टकटकी लगाए बैठे थे। महिलाएँ जो सिर पर कलश रखकर गीत गाते हुए, गाजे-बाजे के साथ मंच की ओर जा रही थी। बीच-बीच में जय किसान के नारों से माहौल गरमा रहा था।

मैंने बहुत दिनों बाद किसानों के ऐसे अभूतपूर्व समागम को देखा, बरबस ही मुझे टिकैत के आन्दोलन की याद आ गई, जो इसी दिल्ली के वोट क्लब पर हुआ था। हालांकि भीड़ उतनी नहीं थी लेकिन गुणात्मक रूप से फर्क यह था कि इसमें देश के कोने-कोने से किसान आए थे और सभी तबके के किसान थे। इसकी खास बात है कि इसमें दलित, आदिवासी, हिन्दू, मुस्लिम और सिख किसान सभी शामिल थे। स्वराज अभियान के तहत जय किसान आन्दोलन का यह हिस्सा था।

दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर 10 अगस्त को देश के कोने-कोने से आये किसान अपने खेत की मिट्टी के दस हजार कलशों में भरकर लेकर आए थे जिसमें महात्मा गाँधी, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, अन्ना हजारे के गाँव की मिट्टी भी शामिल हैं। कलशों को लाने के पहले खेत से मिट्टी लेने के लिये पूजा-अर्चना भी की गई। इसी पवित्र मिट्टी से वे उन किसानों का स्मारक बनाना चाहते हैं जो असमय खुदकुशी कर चले गए। यहाँ महाराष्ट्र के किसानों की विधवाएँ भी आई थीं जिनके पति खेती से परेशान होकर जान दे चुके हैं।

यहाँ किसानों के मान और सम्मान के प्रतीक रूप में एक विशाल हल को अपने कंधों पर 15 अगस्त तक उठाए रखने का संकल्प लिया। यह हल देश के प्रसिद्ध कलाकारों ने डिज़ाइन किया था। यह भी संकल्प लिया गया कि यह हल या तो रेसकोर्स में रखा जाएगा या फिर आन्दोलन करने वाले किसानों के कंधों पर ही रहेगा। किसानों ने माँग की कि रेसकोर्स वाली ज़मीन जो कभी किसानों से ली गई थी और जहाँ अभी घुड़दौड़ पर सट्टा लगाया जाता है, वहाँ किसानों का स्मारक बने।

करीब डेढ़ क्विंटल के हल को कंधों पर उठाए रखने के लिये बारी-बारी से करीब 10 लोगों की जरूरत होती थी, किसानों ने इसके लिये टोलियाँ बनानी शुरू कर दी। जिन किसानों को वापस लौटना था, वे वहीं रुक गए। लेकिन कुछ ही समय बाद पुलिस का अमला दल-बल के साथ आया और हल समेत वहाँ उपस्थित किसानों को गिरफ्तार कर लिया जिनमें इस आन्दोलन के प्रमुख योगेन्द्र यादव भी थे। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सबको रिहा कर दिया।

इसके पहले, योगेन्द्र यादव के नेतृत्व में ट्रैक्टर मार्च का जत्था भी आया जो पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश होता हुआ जन्तर-मन्तर पहुँचा था। दिल्ली में पुलिस ने इसे रोका और कार्यकर्ताओं का लाठी चार्ज से स्वागत किया गया।

सवाल है कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? खास वजह जो कई अध्ययनों से उभरकर आई है कि खेती की लागत बढ़ती जा रही है पर उपज नहीं बढ़ रही है। फसल के दाम नहीं बढ़ रहे हैं। कर्ज बढ़ता जा रहा है। ऊपर से कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी अनियमित बारिश से फसल बर्बाद हो जाती है। फसल का मुआवजा नहीं मिलता। फसल बीमा से भी किसान को बहुत मदद नहीं मिलती। किसान के कंधे पर सरकार का हाथ नहीं है। उसे पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ दिया है, जो उसका शोषण करता है।

नई भाजपा सरकार से किसानों को बहुत उम्मीदें थी। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था कि हर फसल पर किसान की लागत का डेढ़ गुना दाम देंगे, लेकिन वह अपने वादे से मुकर गई है। इसके उलट उसने समर्थन मूल्य भी नहीं बढ़ाया और राज्य सरकारें जो बोनस दे रही थीं, उस पर रोक लगा दी। यूरिया का आयात घटाकर देश में खाद का संकट पैदा कर दिया। अब सरकार भूमि अधिग्रहण बिल के माध्यम से किसानों से ज़मीन छीनने की कोशिश कर रही है।

किसान चाहते हैं कि ज़मीन हड़पने वाला भूमि अधिग्रहण बिल वापिस लिया जाये। फसल बर्बाद होने पर मुआवजा दिया जाये। किसान परिवार को 15 हजार रुपए माह आय की गारंटी कानून बने। भूमिहीनों परिवारों को 2 एकड़ जमीन दी जाये।

सवाल है कि खेती को बचाना क्यों जरूरी है, गाँव को बचाना क्यों जरूरी है? एक तर्क दिया जाता है कि अगर खेती घाटा का धंधा है तो छोड़ क्यों नहीं देते। गाँव में रोजगार नहीं है तो शहरों में क्यों नहीं आते। खेती के पक्ष में दो-तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं। एक, मनुष्य का पेट अनाज से ही भर सकता है, किसी और चीज से नहीं और अनाज खेत में पैदा होता है। अब तक आधुनिक तकनीक कोई और विकल्प नहीं ढूँढ पाई है और आगे भी इसकी सम्भावना नहीं है।

दूसरा, खेती में वास्तव में उत्पादन होता है, एक दाना बोओ, पच्चीस दाने पाओ। ऐसा किसी और माध्यम से सम्भव नहीं है। उद्योगों में कच्चा माल डालने से उसमें रूप परिवर्तन होता है। इसलिये खेती का महत्त्व हमेशा बना रहने वाला है। फिर किसान जो बड़ी तादाद में खेती को छोड़कर करेगा क्या?

हमारे देश की जलवायु जैव विविधता और खेती के लिये अनुकूल है। पश्चिम में छह माह बर्फ गिरती है। वहाँ ठंडी जलवायु है। हमारी गर्म जलवायु है। हमारे यहाँ फसलों में बहुत विविधता है। हम खेती को ही प्रथम दर्जा क्यों नहीं देते। हमारा कृषि प्रधान देश है, जिसे पढ़ सुन कर बड़े हुए हैं। वह खत्म हुई देश कैसे बचेगा?

इस आन्दोलन में उड़ीसा से एक प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक देवल देव भी आए थे, जो नियमगिरि के पास गाँव में देशी धान की एक हजार प्रजातियों को संरक्षित व संवर्धित कर रहे हैं। सुभाष पालेकर की जीरो बजट प्राकृतिक खेती किसानों की पसन्द बनती जा रही है। किसानों को खेती को बचाने के लिये संघर्ष भी करना होगा, जिसकी राह पर वे चल पड़े हैं और कम खर्चे, कम कर्जे और श्रम आधारित स्वावलम्बी खेती की ओर बढ़ना पड़ेगा तभी खेत, किसान और गाँव बचेंगे।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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