किसानों की बदहाली की समाधान


बुन्देलखण्ड में सूखे की स्थिति आज चर्चा का विषय बनी हुई है। बुन्देलखण्ड के किसानों और यहाँ के आम लोगों को राहत देने के बजाय केन्द्र की मोदी सरकार और अखिलेश यादव सरकार राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश में हैं। इस क्षेत्र में पानी की ट्रेन भेजने के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है वह एक राजनीतिक नाटक के अलावा और कुछ नहीं है। यह क्षेत्र कई सालों से सूखे और गम्भीर जल संकट से जूझ रहा है, लेकिन राज्य सरकार ने संकट से निपटने के लिये कुछ नहीं किया।

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में इन दिनों किसानों की हालत बद-से-बदतर होती जा रही है। आज किसान न सिर्फ मौसम की मार झेल रहे हैं, बल्कि घटते भूजल की समस्या, उचित योजनाओं का अभाव, बढ़ते ऋण का बोझ, बीज-खाद माफिया व सरकारों के उपेक्षापूर्ण रवैये ने जैसे किसानों की कमर ही तोड़ कर रख दी है। शायद यही कारण है कि पूरे देश में से किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं।

इतना ही नहीं, जो योजनाएँ किसानों के लिये बनाई जाती हैं, उनका पूर्णतः लाभ भी उन्हें मिल पाता। यह बेहद दुखद व शर्मनाक है कि जो किसान पूरे देश को भरपेट भोजन कराता है, उसे स्वयं के लिये दो जून की रोटी जुटाना भी बेहद मुश्किल होता जा रहा है। इस मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति चिन्ता में डालने वाली है। यह प्रदेश आज केन्द्र सरकार और राज्य की अखिलेश यादव सरकार, दोनों की बेरुखी का सामना कर रहा है। बुन्देलखण्ड में सूखे की स्थिति आज चर्चा का विषय बनी हुई है।

कितना दुखद है कि बुन्देलखण्ड के किसानों और यहाँ के आम लोगों को राहत देने के बजाय केन्द्र की मोदी सरकार और अखिलेश यादव सरकार राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश में हैं। इस क्षेत्र में पानी की ट्रेन भेजने के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है वह एक राजनीतिक नाटक के अलावा और कुछ नहीं है।

बुन्देलखण्ड पिछले कई साल से सूखे और गम्भीर जल संकट से जूझ रहा है, लेकिन राज्य सरकार ने इस संकट के निदान के लिये कुछ भी नहीं किया। यह स्थिति पूर्ववर्ती बसपा शासन से पूरी तरह भिन्न है जब मुख्यमंत्री मायावती जी ने बुन्देलखण्ड को विकास के लिये पूरी ताकत लगा दी थी।

वह इस क्षेत्र के संकट से गहरे से परिचित थीं इसीलिये उन्होंने पृथक बुन्देलखण्ड के पक्ष में विधानसभा से प्रस्ताव पारित किया था। तत्कालीन केन्द्र सरकार ने इस प्रस्ताव पर इसलिये ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि बुन्देलखण्ड जैसे पिछड़े क्षेत्रों का ठीक उसी तरह विकास हो जैसे राज्य के कुछ अन्य विकसित क्षेत्रों का हुआ है।

इस साल जब देश के अधिकतर प्रान्त सूखाग्रस्त घोषित किये जा चुके हैं, तब भी केन्द्र किसानों के प्रति आँखे मूँद कर बैठा है। केन्द्र सरकार के सूखे रवैए को देखकर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी जमकर क्लास लगाई थी। शीर्ष अदालत का कहना था कि सूखे के कारण एक बड़ी आबादी परेशानी झेल रही है और केन्द्र सरकार उनकी ओर नजर-ए-इनायत नहीं कर रही है।

ऐसे में अधिकतर समय केवल बहस व योजनाएँ बनाने में ही निकल जाएगा और जब तक सूखाग्रस्त लोगों व किसानों तक सहायता पहुँचेगी तब तक छह-आठ महीने बीत जाएँगे। इतना ही नहीं, पीठ ने सूखाग्रस्त इलाके में मनरेगा सही तरीके से लागू न होने को लेकर भी केन्द्र सरकार से जवाब माँगा था।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से यह तस्वीर बिल्कुल साफ हो गई कि सबसे पहले तो सरकार किसानों की ओर बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं है और जो योजनाएँ किसानों के लिये बनाई जाती हैं, उसका भी उन्हें फायदा नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त सूखाग्रस्त घोषित हो जाने के बाद भी कई राज्यों ने अपने यहाँ खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू नहीं किया।

गुजरात ने भी शीर्ष अदालत से फटकार मिलने के बाद यह अधिनियम लागू किया। सरकार न तो किसानों के लिये कुछ कारगर कदम उठा पा रही हैं और न ही जल संकट से निपटने के लिये उसके पास कोई प्रभावी योजनाएँ है। ऐसे में किसानों पर मुश्किलों के बादल मँडराते ही जा रहे हैं। आपको शायद न पता हो लेकिन भारत के 256 जिले सूखाग्रस्त हैं और तकरीबन 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं।

देश की कुल आबादी का एक-तिहाई हिस्सा सूखे का संकट झेल रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, ओडिशा, झारखण्ड, बिहार समेत कई राज्यों में सूखा पड़ा हुआ है। ऐसे में जब आम आदमी पानी की मार झेल रहा है तो किसानों को खेती के लिये जल कहाँ से प्राप्त हो।

केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा जल संरक्षण के मोर्चे पर उदासीनता के कारण इस साल किसानों ने अपने खेत देरी से जोते। इतना ही नहीं, कम बारिश की वजह से देश भर में फसल की पैदावार में काफी गिरावट हुई है। 2015 में अनाज उत्पादन पाँच फीसदी गिरकर 25.2 करोड़ टन रहा था। जबकि दाल की पैदावार पाँच साल के निचले स्तर पर आ गई।

केन्द्र सरकार ने भले ही राहत के तौर पर सूखाग्रस्त इलाकों में मनरेगा के तहत नए सिरे से राशि आवंटित की हों लेकिन यह केवल फौरी उपाय है। किसानों की स्थिति में सुधार के लिये व सूखे से निपटने के लिये दीर्घस्थायी कदम उठाने की आवश्यकता है। हालांकि मौसम विभाग ने यह घोषणा की है कि इस साल वर्षा अच्छी होगी लेकिन यह मानकर भी सन्तुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि इस साल मानसून अच्छा होने से समाधान निकल आएगा।

मौजूदा स्थिति में सवाल सिर्फ कम बारिश का नहीं है, बल्कि जल प्रबन्धन में नीतिगत सफलता भी बेहद आवश्यक है। यह हमारे देश की विडम्बना ही है कि आजादी के छह दशक बाद भी हम खेती के लिये मानसून पर निर्भरता कम नहीं कर पाये हैं। आज भी हमारे किसान हताश हैं, परेशान हैं। जिन्हें सिरमौर पर होना चाहिए वे अपने जीवन की भीख माँग रहे हैं। मजबूरी में मौत को गले लगा रहे हैं।

आज जब सूखा के रूप में एक विकराल समस्या हमारे सामने है तो हमें इसके स्थायी समाधान की और सोचना चाहिए। जब सूखा हमारे देश में एक सालाना त्रासदी बन गया है तो क्या उसका स्थायी समाधान निकालना राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शुमार नहीं किया जाना चाहिए। किसान और किसानी हमारी अर्थव्यवस्था के मजबूत स्तम्भ हैं। इन स्तम्भों को कमजोर कर के क्या हम अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत रख पाएँगे। बिल्कुल नहीं। यहाँ सरकार को यह समझना होगा कि सिर्फ किसानों बदतर स्थिति उन्हीं को प्रभावित नहीं करती, बल्कि इसका व्यापक प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है।

मौसम के उतार-चढ़ाव के कारण फसलों की बर्बादी व किसानों का खेती से पलायन आम आदमी से लेकर विदेशों के निर्यात व उससे होने वाली आय को भी प्रभावित करता है। जब एक ओर महंगाई आसमान छू रही है, ऐसे दौर में किसानों की सालाना औसत आमदनी बीस से तीस हजार रुपए है। इतने कम पैसों में उनके लिये अपने परिवार का भरण-पोषण करना बेहद मुश्किल है।

एक रिपोर्ट के अनुसार घाटे का सौदा होने की वजह से हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं और हर दिन कई दर्जनों किसान मौत को गले लगा रहे हैं। एनसीआरबी के पिछले पाँच वर्षों के आँकड़ों के मुताबिक 2009 में सत्रह हजार , 2010 में पन्द्रह हजार, 2011 में चौदह हजार, 2012 में तेरह हजार और 2013 में ग्यारह हजार से अधिक किसानों ने खेती-बाड़ी से जुड़ी तमाम परेशानियों के चलते मौत को गले लगा लिया। यह बेहद दुखद है कि जिस देश में सत्तर प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं, वहाँ किसानों की ऐसी हालत है।

अब समय आ गया है कि किसानों की स्थिति में सुधार के लिये न सिर्फ एक सशक्त रणनीति बनाई जाये बल्कि उसे प्रभावी रूप से लागू भी किया जाये साथ ही सरकारी स्तर पर जल प्रबन्धन के लिये उचित उपाय किये जाएँ। किसानों को मजबूत बनाने के लिये उन्हें नई तकनीक के प्रयोग से परिचित कराया जाये व खेती में उन तकनीकों का प्रयोग भी किया जाये।

किसानों को कम लागत वाली खेती के नुस्खे बताएँ जाएँ। अमूमन किसान बीज-खाद माफिया के चलते भी काफी परेशानी झेलते हैं। इसलिये केन्द्र सरकार द्वारा खाद व बीज का सही समय पर वितरण व सस्ते संसाधन भी उपलब्ध कराए जाएँ। किसानों के उत्पाद को सही मूल्य कैसे मिले इसे सुनिश्चित किया जाये, तभी सही मायने में देश के किसानों की स्थिति में सुधार की अपेक्षा की जा सकती है।

(लेखक बसपा के नेता हैं)

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