किसानों की मुसीबत बढ़ रही है

2 Jan 2015
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farmers in crisis
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इन दिनों किसानों की मुसीबतें कम होने के बजाय बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ किसानोें को धान का समर्थन मूल्य भी नहीं मिल रहा है, बोनस नहीं मिल रहा है। दूसरी तरफ गेहूँ के लिए खाद और खासतौर से यूरिया की किल्लत से किसान परेशान हैं। मध्य प्रदेश में तो कई जगह यूरिया को पुलिस निगरानी में वितरित किया जा रहा है।

केन्द्रीय खाद्य मन्त्रालय ने राज्य सरकारों को निर्देश जारी कर दिया है कि इस साल गेहूँ व धान पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस की घोषणा न करें। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सरकारें पिछले वर्षों में 100 से 200 रु. प्रति क्विण्टल का बोनस देती रही हैं। अब उन्हें भविष्य में ऐसा नहीं करने को कहा गया है। यदि वे ऐसा करती हैं तो केन्द्र इन राज्यों में खाद्यान्न खरीदी के काम को रोक देगा।

छत्तीसगढ़ में धान का एक-एक दाना खरीदने का वादा करने वाली भाजपा सरकार ने किसानों से अपना पल्ला झाड़ लिया है। सरकार ने निर्णय लिया है कि इस वर्ष प्रति एकड़ 10 क्विण्टल धान खरीदी होगी। जब इस निर्णय का व्यापक विरोध हुआ तो इसे बढ़ाकर प्रति एकड़ 15 क्विण्टल धान कर दिया। लेकिन उसकी भी पूरी खरीदी नहीं हो रही है। जबकि सरकार ने पिछले साल धान का समर्थन मूल्य बढ़ाने का वादा किया था।

मध्य प्रदेश में इस वर्ष सामान्य धान प्रति क्विण्टल 1360 रु में और ग्रेड ए धान 1400 रूपए में खरीदी का निर्णय लिया गया है। समर्थन मूल्य पर पूरी खरीदी भी नहीं हो रही है। बोनस भी नहीं दिया जा रहा है। बाजार मण्डी में धान के भाव गिर गए हैं, जिससे किसान परेशान हैं। बासमती धान को बाजार में बहुत कम दाम मिल रहे हैं। जिन किसानों ने बाजार से प्रभावित होकर बासमती लगाई थी अब वे बाजार के आगे असहाय महसूस कर रहे हैं। गेहूँ के लिए खाद-बीज की व्यवस्था नहीं है। यूरिया की बहुत मारामारी है। किसानों को सोसाइटियों में खाद नहीं मिल रहा है।

आज किसानों पर चौतरफा हमला हो रहा है जिससे उनमें हाहाकार मचा हुआ है। पानी-बिजली का गहराता संकट, आधुनिक खेती में खाद-बीज, बिजली, डीजल की बढ़ती लागतें, जहरीली और बंजर होती जमीन और खुली बाजार में माटी मोल बिकती फसलों ने किसानों की मुसीबतें बढ़ा दी हैं।

अब पिछले कुछ सालों से मौसम के बदलाव ने किसानों का संकट और बढ़ा दिया है। कभी अधिक बारिश से फसल चौपट हो रही है तो कभी कम बारिश से सूखे के कारण फसल नहीं हो रही है। इस कारण किसान लगातार कर्ज में डूबता जा रहा है। और सरकार ने असहाय और लाचार को बाजार के हवाले छोड़ दिया है जिस विश्व व्यापार संगठन से भारत सरकार का एजेण्डा तय हो रहा है उसके सदस्य धनी देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी दे रहे हैं और उससे उलट भारत समेत तीसरी दुनिया के देशों में सब्सिडी खत्म करने पर जोर डाल रहे हैं।

विश्व व्यापार संगठन का जो रूख पिछले सालों में रहा है वह विकसित देश व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हित में रहा है। धनी देशों व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में दखल बढ़ता जा रहा हैै। इससे भारत जैसे गरीब देशों की खेती बर्बाद हो रही है और इससे जुड़ी बड़ी आबादी खेती छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रही है। और इसी कारण कई इलाकों में किसानों के जान देने की खबरें आती रही हैं।

हमारे खेती का स्थानीय संकट किस तरह विश्व व्यापार संगठन जैसे अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों से जुड़ा हुआ है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में सोयाबीन की खेती की शुरुआत हुई। पहले इसे फैलाने और बढ़ाने के लिए मुफ्त में बाँटा गया। जब कोई चीज मुफ्त में मिलती है तो सभी लोग ले लेते हैं। ऐसा सोयाबीन के साथ भी हुआ और सोयाबीन यहाँ तेजी से फैला। इससे समृद्धि भी दिखाई दी।

कहा यह गया कि भारतीय भोजन में प्रोटीन की कमी है, जिसकी पूर्ति सोयाबीन से होगी। लेकिन सोया खली, जिसमें प्रोटीन रहता है, उसे निर्यात किया गया। यहाँ सिर्फ सोया तेल की आपूर्ति की गई। चूँकि यही समय है कि जब भारत की नीतियों की दिशा भी बदली। विश्व व्यापार संगठन के सदस्य बनने के बाद खुले बाजार की नीति अपनाई गई। कृषि में भी खुले आयात को छूट दी गई। अब बड़ी मात्रा में खाद्य तेल बाहर से आ रहा है। वहाँ से कृषि उत्पाद खरीदे और हमारे किसानों का अनाज माटी मोल भी नहीं खरीदा गया। पूरी तरह किसानों को बाजार के हवाले छोड़ दिया जबकि उन्हें सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए था।

बदलते मौसम और बढ़ती खेती की लागत के चलते किसान फसल परिवर्तन करता है लेकिन मौसम की मार से फिर हार जाता है। जैसे होशंगाबाद जिले में पिछले साल अधिक बारिश से सोयाबीन की फसल बर्बाद हो गई तो इस बार धान से किसानों की उम्मीदें थी। लेकिन इस बार लेट मानसून और अब बाजार ने उसकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। धान का बाजार में भाव नहीं मिलने से किसान रो रहे हैं।

आयात-निर्यात नीति के तहत् जिन वस्तुओं को मुक्त आयात के लिए खोला गया है उनमें कई खेती-किसानी आधारित उद्योगों से जुड़ी हैं। हरित क्रान्ति से जुड़े संकट से जूझ रहे किसानों का संकट खुली स्पर्धा ने और बढ़ा दिया है। किसान बर्बाद हो रहे हैं। खुली स्पर्धा के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि उपभोक्ता को जो माल सस्ता मिले उसे खरीदने में क्या हर्ज है? लेकिन सवाल यह भी है कि इससे हमारी खेती पर दीर्घकालीन क्या असर होगा, इसे नजरअन्दाज कर दिया जाता है। फिर बाजार में सस्ता माल कब तक मिलेगा, यह भी निश्चित नहीं है। इस साल होशंगाबाद जिले में धान की खेती के लिए नए-नए ट्यूबवेल खुदवाए। इसी प्रकार पहले गन्ना के साथ यही हुआ। गन्ने का उभार आया लेकिन पानी बिजली की समस्या और अन्तरराष्ट्रीय बाजार में शक्कर की मांग घट-बढ़ होने से किसानों को घाटा उठाना पड़ा। इसी दुष्चक्र में किसान फंसा हुआ है।

कुछ लोग किसानों के संकट को प्राकृतिक कहते हैं, जो कभी सूखा, अकाल और अधिक वर्षा के रूप में दिखाई देता है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। सच यह है कि जब किसान की फसल बिगड़ती है तब तो वह नुकसान में रहता ही है लेकिन जब उसकी फसल अच्छी होती है तब भी बाजार में दाम गिरने से वह नुकसान में रहता है।

आधुनिक खेती में लगातार लागतें बढ़ते जाना और फसलों का सही दाम न मिलना किसानों के संकट का बड़ा कारण है। नकदी फसलों का भी यही हश्र होता है। मूंगफली, कपास, गन्ना या सोयाबीन जैसी नकदी फसलों के शुरुआत में तो अच्छे दाम मिलते हैं फिर धीरे-धीरे माटी मोल भी नहीं बिकती।

किसान कर्ज के जाल में फँसते जाता है। यदि किसी कारण से फसल बिगड़ गई तो किसान उसका नुकसान नहीं सह पाता। लागत के कर्ज की भरपाई नहीं कर पाता और यदि लगातार दो-तीन फसल बिगड़ गई, जैसा कि कई प्रान्तों से खबरें आती रहती हैं, किसान के लिए कर्ज चुकाना मुश्किल हो जाता है। इन सब संकटों से घिरे किसान जान देने को मजबूर हैं।

दरअसल, आयात-निर्यात नीति के तहत् जिन वस्तुओं को मुक्त आयात के लिए खोला गया है उनमें कई खेती-किसानी आधारित उद्योगों से जुड़ी हैं। हरित क्रान्ति से जुड़े संकट से जूझ रहे किसानों का संकट खुली स्पर्धा ने और बढ़ा दिया है। किसान बर्बाद हो रहे हैं। खुली स्पर्धा के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि उपभोक्ता को जो माल सस्ता मिले उसे खरीदने में क्या हर्ज है? लेकिन सवाल यह भी है कि इससे हमारी खेती पर दीर्घकालीन क्या असर होगा, इसे नजरअन्दाज कर दिया जाता है। फिर बाजार में सस्ता माल कब तक मिलेगा, यह भी निश्चित नहीं है। दूसरा जिसे सस्ता माल बताकर गरीब देशों में बेचा जा रहा है वही कहीं घटिया माना जाता है। कुल मिलाकर, प्रकृति, सरकार, विश्व व्यापार संगठन, सेठ, साहूकार, व्यापारी सबके सब किसान को तबाह करने में लगे हैं।

इस सबके मद्देनजर जरूरत इस बात की है कि इस संकट को गम्भीरता से समझकर किसानों की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जाए। समर्थन मूल्य पर उनकी उपज खरीदी जाए। खाद-बीज की समय पर उपलब्धता सुनिश्चित की जाए। साथ ही जरूरी है कि इसके लिए जरूरी है कि हम प्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाली तकनीकें न अपनाएँ। जिनसे मिट्टी का उपजाऊपन खत्म हो, जिनसे जलस्रोतोें में रसायन घुलें, जिनसे पर्यावरण का संकट न बढ़े, ऐसे प्रयास करने चाहिए।

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