कीटनाशियों के जैविक विकल्प

4 Jul 2015
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करीब चार दशक पूर्व प्रसिद्ध विज्ञान लेखिका रसेल कार्सन ने एक पुस्तक लिखी थी, 'साइलेंट स्प्रिंग' यानी 'मौन बसंत'। पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने कीटनाशियों द्वारा दुनिया में संभावित भारी तबाही का सजीव चित्रण किया था। इस समय देश में लगभग चार हजार कारखाने विभिन्न किस्मों के कीटनाशक बनाते हैं। इन कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों में से प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक मजदूर कीटनाशकों के दुष्प्रभावों से विभिन्न बीमारियों के शिकार होते हैं तथा इनमें से लगभग 33 श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है।करीब चार दशक पूर्व प्रसिद्ध विज्ञान लेखिका रसेल कार्सन ने एक पुस्तक लिखी थी, 'साइलेंट स्प्रिंग' यानी 'मौन बसंत'। पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने कीटनाशियों द्वारा दुनिया में संभावित भारी तबाही का सजीव चित्रण किया था। बाद में कुछ ऐसा ही दृश्य 2-3 दिसंबर 1984 की रात अपने देश में भोपाल शहर में देखा गया। जहाँ यूनियन कार्बाइड नामक बहुराष्ट्रीय कंपनी से रिसी गैस 'आइसो सायनेट' से आसपास के करीब 3 हजार लोग कुछ घंटों में ही तड़प-तड़पकर मर गए थे। दसियों हजार लोग बाद में मरे तथा लाखों प्रभावित हुए।

कीटनाशकों के दुष्प्रभाव के चलते आज भोपाल जैसे कांड भले न हो रहे हों लेकिन सारी दुनिया में हजारों लोग आज भी इसके कारण मारे जा रहे हैं। इस समय देश में लगभग चार हजार कारखाने विभिन्न किस्मों के कीटनाशक बनाते हैं। इन कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों में से प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक मजदूर कीटनाशकों के दुष्प्रभावों से विभिन्न बीमारियों के शिकार होते हैं तथा इनमें से लगभग 33 श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक प्रतिवेदन के अनुसार पूरी दुनिया में कीटनाशकों के विष फैलने के प्रतिवर्ष बीस लाख प्रकरण होते हैं। इनमें 40000 व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। पशुओं, वन्य जीवन एवं वनस्पतियों और पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्परिणामों के तो अनुमान भी नहीं लगाए जा सकते।

कीटनाशियों के जैविक विकल्पकीटनाशक जहर से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं विकासशील देश। संसार में कीटनाशकों से होने वाली मौतें ज्यादातर विकासशील देशों में होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जिन कीटनाशकों को विकसित देशों में प्रतिबंधित किया जा चुका है निर्धन एवं विकासोन्मुख देशों में उन्हीं का बेरोक-टोक धड़ल्ले से आयात और प्रयोग हो रहा है। पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के प्राकृतिक संतुलन को भी ये जहर बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। भूमि की उर्वरा शक्ति को कीटनाशकों से अपूरणीय क्षति पहुँच रही है। खाद्यान्न, फल-सब्जियाँ आदि प्रदूषण की चपेट में आकर जानलेवा होती जा रही हैं। कीटनाशक दरअसल एक धीमे जहर की तरह पूरे राष्ट्र की रग-रग में घुलते जा रहे हैं। कीटनाशकों के प्रभाव से कैंसर, हृदय रोग, प्रजनन क्षमता का ह्रास, नाड़ी दुर्बलता, गर्भस्थ शिशु में विकृति जैसी गंभीर बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं। यह कीटनाशक शरीर के वसायुक्त क्षेत्रों में संग्रहित होकर जिगर, गुर्दा, गलाग्रंथि और अधिवृक्क को क्षतिग्रस्त करते हैं।

कुछ समय पूर्व हुए एक व्यापक सर्वेक्षण में एक आश्चर्यचकित करने वाली बात प्रकाश में आई कि भारत में स्तनपान कराने वाली अधिकांश माताओं के दूध में घातक मात्रा में डीडीटी मौजूद रहता है। यह न केवल उन माताओं के लिए बल्कि स्तनपान करने वाले शिशुओं के लिए भी अत्यंत खतरनाक होता है। इसकी वजह से बालक बाल्यकाल से ही विविध रोगों का शिकार हो जाता है। उसका मानसिक एवं शारीरिक विकास असंतुलित हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक भारतीय के शरीर की वसा में डीडीटी नामक कीटनाशक का सर्वाधिक अंश पाया जाता है। कुछ वर्षों पूर्व फैले इनसिफेलाइटस नामक रोग के कारणों का विश्लेषण करने पर यह तथ्य प्रकाश में आया कि कीटनाशक दवा से युक्त गेहूँ के आटे का उपयोग करने से यह बीमारी होती है।

इस समस्या का दूसरा पहलू यह भी है कि अधिकांश विकासशील देशों में कीटनाशकों का इस्तेमाल करने वाले किसान अनपढ़ हैं। अप्रशिक्षित लोगों से कीटनाशकों के सम्यक इस्तेमाल और सुरक्षा संबंधी प्राथमिक सावधानियाँ बरतने की अपेक्षा करना बेमानी लगती है। अधिकांश कृषक इस बात से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हैं कि कौन-सा कीटनाशक कितना घातक है और उसके इस्तेमाल में क्या सावधानी बरतनी चाहिए। वे लोग न तो निर्धारित मात्रा ही काम में लेते हैं और न ही इनके दुष्परिणामों से बचने का प्रयास करते हैं। बायो साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित एक शोध निबंध में डेविड पाइमेंटल और क्लाइव एडवर्ड्स नामक कृषि वैज्ञानिकों ने कहा है कि जब कीटनाशकों को फसल एवं सब्जियों पर छिड़का जाता है तो उसका मात्र एक प्रतिशत भाग असली लक्ष्य तक पहुँच पाता है और शेष भाग प्रदूषण के रूप में फैल जाता है।

विकसित देशों में तो कीटनाशकों के दुष्परिणामों से बचने के सुरक्षित उपाय विकसित कर लिए गए हैं। वहाँ खतरनाक दवाओं का उत्पादन भी बंद किया जा चुका है। इसके अलावा वहाँ कृषि मजदूरों की कीटनाशक रसायनों के इस्तेमाल के संबंध में बरती जाने वाली आवश्यक सावधानियों के बारे में पूर्ण रूप से प्रकाशित किया जाता है। लेकिन हमारे यहाँ स्थिति भिन्न है। यहाँ किसानों को कीटनाशकों के निरापद इस्तेमाल का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। किसान नहीं जानते कि कौन कीटनाशक कितना विषाक्त है और उसकी विषाक्तता फसलों, साग-सब्जियों और फलों पर कब तक कायम रहेगी? इस अज्ञानता के कारण किसान दूसरे को तो जहरीले खाद्य पदार्थ परोस ही रहा है स्वयं भी इस्तेमाल कर रहा है।

पर्यावरण के लिए कीटनाशक कितने घातक हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके असर लुप्त हो चुका है। घर-आँगन में अभी एक-दो दशक पूर्व तक फुदकने वाली गौरेया भी अब दिखाई नहीं दे रही है। उत्तर भारत में गर्मी के मौसम में आम की अमराइयों को अपनी मधुर बोली में गुंजायमान करने वाली कोयल की आवाज भी अब यदा-कदा ही सुनाई देती है।

साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित एक शोध निबंध में डेविड पाइमेंटल और क्लाइव एडवर्ड्स नामक कृषि वैज्ञानिकों ने कहा है कि जब कीटनाशकों को फसल एवं सब्जियों पर छिड़का जाता है तो उसका मात्र एक प्रतिशत भाग असली लक्ष्य तक पहुँच पाता है और शेष भाग प्रदूषण के रूप में फैल जाता है।आखिर क्या कारण है इस तरह की घटनाओं के? वैज्ञानिकों द्वारा खोजबीन के बाद आखिरकार इन सबके मूल में जो कारण आता है वह है—हवा, पानी, भोजन और पर्यावरण का प्रदूषण। और इस प्रदूषण का एक बड़ा कारण है—कीटनाशक। गिद्ध के लुप्त होने का मुख्य कारण कीटनाशकों को ही बताया गया। उनके अनुसार कीटनाशकों के असर के कारण गिद्ध के अंडों का छिलका इतना कमजोर हो जाता है कि हैचिंग (अंडा सेते समय) के समय अंडा पक्षी के वजन को सह नहीं पाता और फूट जाता है। गिद्ध के शरीर में यह कीटनाशक मृत पशुओं के मांस से आता है। मृत पशुओं के शरीर में कीटनाशक का जमाव उन फसलों के खाने से होता है जिन पर कभी कीटनाशकों का छिड़काव हुआ था और जिसे पशुओं को खिलाया गया।

कीटनाशकों का कहर आज विश्वव्यापी चिंता का विषय है। इसीलिए आज कीटनाशकों के प्रभावी विकल्पों की जोर-शोर से खोज होने लगी है। अपने यहाँ भी खेती-बाड़ी में समन्वित कीट प्रबंधन के तहत इस तरह के विकल्पों का प्रचार-प्रसार शुरू किया जा रहा है। समन्वित कीट प्रबंधन कीटों की संख्या को नियंत्रित करने के ऐसे मिले-जुले उपाय हैं जिनमें कीटनाशक का इस्तेमाल अंतिम उपाय के रूप में ही किया जाता है।

समन्वित कीट प्रबंधन में प्रथम उपाय के रूप में गर्मी के मौसम में मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई की जाती है। इससे कीटों की विभिन्न अवस्थाएँ तेज धूप के कारण नष्ट हो जाती है। कीटों की इल्लियाँ आदि को चिड़ियां भी खा जाती हैं। बहुत से कीटों की विभिन्न अवस्थाएँ फसलों के अवशेष, डंठल, ठूंठ आदि पर सुषुप्तावस्था में उपस्थित रहती हैं जैसे– गर्डल विटिल। यदि इन अवशेषों एवं ठूंठों को बिनकर जला दिया जाए तो अगली फसलों में होने वाले कीटों के प्रारंभिक प्रकोप को कम किया जा सकता है।

फसलों की अनेक जातियाँ कीटरोधी होती हैं। इन्हें अपनाकर कीटों से छुटकारा पाया जा सकता है। एक ही फसल बार-बार बोने से तथा रबी और खरीफ में ऐसी फसल होने से जिससे कीट को बराबर भोजन मिलता रहे, से कीटों का प्रकोप बढ़ता है। इसीलिए कीट नियंत्रण के लिए उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।

समन्वित कीट प्रबंधन कीटों की संख्या को नियंत्रित करने के ऐसे मिले-जुले उपाय हैं जिनमें कीटनाशक का इस्तेमाल अंतिम उपाय के रूप में ही किया जाता है।हानिकारक कीटों को नष्ट करने के लिए जैविक नियंत्रण एक प्रभावी एवं प्राकृतिक उपाय है। कुछ ऐसे जीवाणु और फफूंद खोजे गए हैं जो फसलों में रोग फैलाने वाले कीड़े-मकोड़ों, जीवाणु और फफूंदी को नष्ट करते हैं। रोग नियंत्रण की इस जैविक पद्धति में ऐसे उपकारी जीवाणुओं और फफूंदों का अधिक मात्रा में उत्पादन करके इनका फसलों पर उपयोग किया जाता है। ट्राइकोडर्मा इसी तरह की फफूंद है जो जड़ों में सड़न पैदा करने वाली फफूंदों को नष्ट कर देता है। इसका उत्पादन भी आसान है। किसान इसका प्रयोग इसके कल्चर को कंपोस्ट के गड्ढे में छिड़ककर खाद में ही मिलाकर आसानी से कर सकते हैं। अरहर, चना जैसी फसलों में 'उकठा' रोग की यह रामबाण दवा है। डेल्फिन, दवा, जो कि जीवाणु होते हैं, अनेक पतंगों की इल्लियों जैसे— चने की इल्ली, पत्तागोभी की इल्ली, कपास की इल्ली तथा तंबाकू की इल्ली में रोग पैदा कर उन्हें मार देती है। यह दवा बाजार में उपलब्ध है। कीट नियंत्रण के लिए वैज्ञानिकों द्वारा फेरोमोन ट्रेप नामक एक नई तकनीक खोजी गई है। फेरोमोन वह यौगिक हैं, जिनमें कीटों के नर को मादा की खुशबू का एहसास होता है और नर उस ओर आकर्षित होता है। कीटों की अनेक प्रजातियों के फेरोमोन विकसित किए गए, जिनका प्रयोग फेरोमोन ट्रेप लगाकर किया जा सकता है जिसके लिए प्रति हेक्टेयर 8-10 फेरोमोन ट्रेप लगाए जाते हैं। ट्रेप में वयस्क नर आकर फंस जाते हैं। इसके द्वारा हमें कीटों के सक्रिय होने के विषय में जानकारी हो जाती है। चने की इल्ली, आलू की इल्ली एवं शकरकंद की व्हीनिस के फेरोमोन विकसित हो चुके हैं।

खरीफ फसलों में लगने वाले लगभग सभी कीटों की वयस्क अवस्था रात्रि के समय सक्रिय रहती है और प्रकाश की ओर आकर्षित होती है। कीट नियंत्रण में कीटों की इस प्रकृति का प्रयोग हम खेत में प्रकाश प्रपंच लगाकर कर सकते हैं और कीट प्रकोप बढ़ने से रोक सकते हैं। इसके लिए खेत में एक मरकरी लगाकर उसके नीचे मिट्टी का तेल या कीटनाशक दवा का घोल एक ट्रे में रख दिया जाता है। वयस्क कीट बल्ब से टकराकर इस घोल में गिरकर मर जाते हैं। वैसे बने-बनाए प्रकाश प्रपंच लगभग 2000 रुपए में बाजार में उपलब्ध हैं। प्रकाश प्रपंच का प्रयोग कीट के सक्रिय होने की जानकारी तथा कीट प्रकोप की भविष्यवाणी के लिए भी किया जा सकता है। जहाँ बिजली न हो वहाँ लालटेन से प्रकाश प्रपंच बनाया जा सकता है। इसके लिए एक स्टैंड बनाते हैं। स्टैंड में लालटेन लटकाकर उसके नीचे एक चौड़ा बर्तन रखते हैं। बर्तन में पानी भरकर मिट्टी का तेल डाल दिया जाता है। इस तरह सस्ता प्रकाश प्रपंच तैयार हो जाता है।

आधुनिक जहरीले कीटनाशकों की तुलना में नीम एक सर्वोत्तम कीटनाशक है। अनाज के भंडारण, दीमकों से सुरक्षा से लेकर पेड़-पौधों की हर तरह की बीमारी में इसके विविध उपयोग आज भी लोग किया करते हैं। इस क्षेत्र में किसानों को यदि वैज्ञानिकों का सहयोग मिल जाए तो यह अकेला वृक्ष दुनिया भर के कीटनाशकों के कारखाने बंद करवा सकता है।

नीम के कीटनाशक गुणों का सबसे उज्जवल पहलू यह है कि यह सर्वथा हानिरहित है। आधुनिक कीटनाशक जब खेतों में डाले जाते हैं तो वे शत्रु कीटों के अलावा मित्र कीटों को भी मार डालते हैं जिससे प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है और कीटनाशकों की माँग लगातार बढ़ती जाती है। इसके अलावा आधुनिक कीटनाशकों के दीर्घजीवी होने के कारण आज सारी पृथ्वी और उसके जलस्रोत प्रदूषित हो चुके हैं। परंतु नीम ऐसा प्राकृतिक कीटनाशक है, जो अपना काम करने के बाद शीघ्र ही अपघटित हो जाता है तथा पृथ्वी की उर्वरता शक्ति बढ़ा देता है।

आधुनिकतम जानकारियों के अनुसार नीम की पत्तियों से निकाले गए कीटनाशकों से 300 किस्मों की कीट प्रजातियों को नियंत्रित किया जा सकता है। यही नहीं नीम उत्पादों से करीब एक दर्जन किस्म के हानिकारक सूत्र कृमियों एवं कुछ फफूंदियों को भी नियंत्रित किया जा सकता है। केवल भारत में ही 110 से अधिक ऐसी कीट प्रजातियाँ हैं जिनका नियंत्रण नीम से किया जाता सकता है। यह नीम के कीटनाशी गुणों का ही कमाल है कि भारतीय जड़ी-बूटियों एवं औषधिय पौधों में नीम पर सर्वाधिक पेटेंट किए गए हैं। अब तक नीम पर अमेरिका 54, जापान 59, इंग्लैंड 6 तथा भारत 36 उत्पाद एवं प्रक्रिया पेटेंट ले चुका है। इसके बावजूद दुनिया के अनेक देशों में नीम पर अनुसंधान जारी हैं। इसके गुणों को देखते हुए ही ऑस्टेलिया, अफ्रीका, कैरिबियाई द्वीप समूह, प्योर्टोरिको, वर्जिन द्वीप समूह तथा हाइती आदि देशों में नीम के वृक्ष बहुतायत से लगाए जा रहे हैं। भारत से नीम के पदार्थों का निर्यात लगातार बढ़ रहा है।

जैविक खेती में रासायनिक कीटनाशकों से तो परहेज किया जाता है। बदले में कंपोस्ट खाद, हरी खाद, नील हरित शैवाल एवं अन्य जैविक विधियों द्वारा जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाई जाती है। पश्चिम के देशों में जैविक खेती द्वारा तैयार अनाज, फल और सब्जियों की भारी माँग है। हमारे देश में भी इस क्षेत्र में जागरुकता बढ़ रही है। मध्य प्रदेश में तो जैविक खेती एक आंदोलन का रूप ले रहा है। यहाँ इसे सरकार का संरक्षण भी प्राप्त है। मध्य प्रदेश में जैविक खेती के लिए 313 ब्लॉकों का चयन किया गया है जिनमें 239 गाँवों में जैविक खेती शुरू भी हो गई है।

(लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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