कितनी जीवनदायिनी रह सकेगी गंगा

गंगा भारतवासियों की आस्था का प्रतीक है। देश का चौथाई क्षेत्र और 43 प्रतिशत से अधिक आबादी किसी न किसी रूप में इस नदी पर आश्रित हैं। लोक-परलोक दोनों के सुधार से यह सम्बद्ध है। लेकिन क्या इसकी शुचिता को बनाये रखने की चिन्ता सभी को है? गंगा के स्वरूप में निरन्तर क्षरण और इसके अस्तित्व को बचाने के पिछले तीन दशकों के सरकारी प्रयास के हश्र को देखते हुए सवाल उठ रहा है कि हाल ही में शुरू की गई ‘नमामि गंगे’ नामक योजना में ऐसा क्या है कि इसका हश्र पुरानी योजनाओं-जैसा नहीं होगा?
.ब्रह्मवैवर्त पुराण की कथा है कि एक बार भगवान विष्णु की तीनों पत्नियाँ - लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा उनके साथ बैठी हुई थीं। गंगा बाकी दोनों से बेखबर विष्णु को निरन्तर निहार रही थीं। वह उन पर कटाक्ष भी कर रही थीं। लक्ष्मी ने गंगा की इस धृष्टता पर ध्यान नहीं दिया। मगर सरस्वती से यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने गंगा को तो भला बुरा कहा ही, विष्णु पर भी कठोर वचनों के प्रहार किए। हालाँकि फिर भी विष्णु बीच में नहीं पड़े। वह वहाँ से उठ कर चले गए।

विष्णु के जाते ही सरस्वती को लक्ष्मी और गंगा से हिसाब बराबर करने का समय मिल गया। उन्होंने गंगा का विपरीत आचरण देख कर भी वृक्ष और नदी की भाँति शान्त बने रहने और कुछ भी नहीं कहने के कारण लक्ष्मी को नदी और वृक्ष बन जाने का शाप दे दिया। गंगा ने लक्ष्मी का साथ दिया। उन्होंने रोष भरे शब्दों में सरस्वती से कहा कि जिसने भी लक्ष्मी को शाप दिया है, वह स्वयं भी नदी-रूप हो जाए और नीचे मृत्युलोक में, जहाँ पापियों का समूह रहता है, वहीं निवास करे। वह कलियुग में उनके पापांशों का भोग भी करे। इतना सुन कर सरस्वती ने गंगा को भी शाप दे दिया कि वह भी पृथ्वी पर जाएगी और पापियों के पाप को प्राप्त करेगी। इस तरह तीनों एक-दूसरे के शाप से ग्रस्त हो गईं।

इस बीच विष्णु वापस लौट आए। उन्होंने सारी कथा सुनी। उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि तुम पृथ्वी पर जाकर धर्मध्वज की पुत्री तुलसी हो जाओ। मेरे ही अंश शंखचूड़ से तुम्हारा विवाह होगा। दैववश तुम इसी नाम का वृक्ष बनोगी और पद्मावती (नारायणी) नाम की नदी के रूप में विख्यात होगी। उन्होंने गंगा से कहा कि तुम भी शापवश पापियों के पापों का नाश करने के लिए विश्व पावनी नदी बन कर रहो। भगीरथ की तपस्या के कारण तुम्हें मृत्युलोक जाना पड़ेगा। वहाँ लोग तुम्हें भागीरथी कह कर पुकारेंगे। तुम मेरी आज्ञा से मेरे ही अंश से उत्पन्न समुद्र और मेरे ही अंश से उत्पन्न राजा शान्तनु की पत्नी बनना। कथा के अनुसार इन देवियों ने पूजा-अर्चना के सहारे विष्णु को प्रसन्न करने का बहुत प्रयास किया। तीनों ने बहुतेरे प्रयास किए कि उनके शापों का शमन हो। मगर विष्णु ने केवल इतना कहा कि कलियुग में पाँच सहस्त्र वर्ष बीत जाने के बाद तुम लोग नदी-भाव से मुक्त हो जाओगी और फिर मेरे पास लौट आओगी।

अब कलियुग के पाँच सहस्त्र वर्ष बीत चुके हैं। गंगा के स्वरूप में निरन्तर क्षरण और इसके अस्तित्व को बचाने के पिछले तीन दशकों के सरकारी प्रयास के हश्र को देखते हुए सवाल उठ रहा है कि क्या इस पौराणिक कथा की घोषणा के अनुरूप गंगा के स्वर्ग वापस लौट जाने का समय आ गया है? गंगा एक्शन प्लान फेज-1, गंगा एक्शन प्लान फेज-2 और राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकार के प्रयासों का जो निराशाजनक परिणाम सामने है। उससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इन प्रयासों में सफलता आखिर क्यों नहीं मिल सकी? और अब शुरू की गई ‘नमामि गंगे’ नामक योजना में ऐसा क्या है कि इसका भी हश्र पुरानी योजनाओं-जैसा नहीं होगा?

ताकि निर्मल बनी रहे गंगा


सामान्य जन गंगा को शुद्धता के मानक के रूप में देखता है। समय के साथ जनसंख्या में असामान्य वृद्धि, निर्बाध शहरीकरण, नव-धनाढ्यों की जीवन शैली में अपूर्व बदलाव, मध्यवर्गीय आबादी के बीच पानी की खपत में वृद्धि, उद्योगों की स्थापना तथा कृषि के आधुनिकतम तरीकों में पानी की पहले से ज्यादा खपत के कारण जहाँ एक ओर पानी की माँग बढ़ी है, वहीं नदियों और दूसरे जल-स्रोतों पर इस माँग की पूर्ति का दबाव बेतरह बढ़ा है। ताल-तलैयों के अतिक्रमण के कारण उनका न सिर्फ आकार घटा है, वरण ऐसे अनेक स्रोत तो पूरी तरह विलुप्त हो गए हैं। कई तो प्रदूषण के कारण व्यवहार में आने लायक नहीं रहे। इनका उपयोग अगर कपड़े धोने में ही हो जाए तो भी बहुत है। नदियाँ भी इस प्रकोप से मुक्त नहीं हैं। गंगा, जिससे समाज की आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं, अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। शायद इसीलिए गंगा की सफाई की समस्या ने सरकारों का ध्यान पिछले तीस वर्षों से अपनी ओर आकर्षित किया है।

गंगा एक्शन प्लान


राजीव गाँधी की सरकार ने 1985 ईस्वी में गंगा एक्शन प्लान (फेज-1) के नाम से एक योजना शुरू की थी। योजना का उद्देश्य गंगा में आने वाले मल-मूत्र (सीवेज) का शोधन कर उसके पानी की गुणवत्ता में सुधार करना, जहरीला रासायनिक कचरा नदी में डालने वाले उद्योगों की पहचान करना तथा उन्हें ऐसा करने से रोकना, खेती- जन्य प्रदूषण को रोकना, नदी किनारे शौच को प्रतिबंधित करना, जानवरों द्वारा पानी को प्रदूषित करने से रोकना और लाशों (अधजली समेत) को नदी के पानी में बहाये जाने से रोकना था। इस योजना का एक लक्ष्य शोध कार्यों को बढ़ावा देना और नयी तकनीक का उपयोग कर नदी के पानी को शुद्ध करने का एक मॉडल तैयार करना भी था। तब उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के कुल 21 शहरों के मल-मूत्र सीधे गंगा में प्रवाहित होते थे। इनमें उत्तर प्रदेश के कुल 6, बिहार के 4 और पश्चिम बंगाल के 11 शहर शामिल थे। अनुमान किया गया था कि गंगा में प्रतिदिन 134 करोड़ लीटर सीवेज आता है। लक्ष्य निर्धारित किया गया कि इनका शोधन कर साफ जल को गंगा में गिराया जाए। फेज-1 की इस योजना पर कुल 462.05 करोड़ रुपए खर्च हुए।

गंगा एक्शन प्लान का दूसरा फेज 1993 में शुरू किया गया। इस बार इस कार्यक्रम में गंगा के साथ-साथ यमुना, गोमती, महानन्दा और दामोदर को भी शामिल किया गया। तब शहरों की संख्या बढ़कर 64 हो गई थी। 2001 के एक अध्ययन में यह पाया गया था कि इस बीच सीवेज की मात्रा 134 करोड़ लीटर प्रतिदिन से बढ़कर 253.8 करोड़ लीटर प्रतिदिन हो गई है। फेज -1 के मुकाबले यह वृद्धि लगभग 90 प्रतिशत थी। शायद आबादी के बढ़ जाने के कारण ऐसा हो गया होगा। 1995 के बाद से इस योजना की मॉनीटरिंग अनेक संस्थाओं द्वारा कराई गई। सीवेज के शोधन के लिए नदी के पानी में जितनी आॅक्सीजन की जरूरत पड़ती है उसके मुकाबले आॅक्सीजन की मात्रा प्राय: कम पायी गई। ज्यादातर जगहों पर यह कमी जरूरत से तिगुनी कम थी। दोनों फेज में 107.8 करोड़ लीटर प्रतिदिन सीवेज के शोधन की क्षमता अर्जित की गई। 2 करोड़ लीटर प्रतिदिन का औद्योगिक कचरा पानी भी इन संयन्त्रों में शुद्ध किया जा सकता था। इस योजना पर दोनों फेजों में कुल 986.34 करोड़ रुपए खर्च किये गए।

यह उपलब्धि आशा के कतई अनुरूप नहीं थी। इस असफलता के पीछे कई कारण थे। पहला कारण यह था कि आबादी बहुत तेजी से बढ़ी और नदी में आने वाले सीवेज की मात्रा अनुमान से लगभग दुगुनी हो गई। ऐसे में अगर आधा या दो तिहाई सीवेज बिना ट्रीटमेंट के नदी में चला जाए तो ट्रीटमेंट का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। फेज-2 के समाप्त होने तक गंगा के किनारे के 29 शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाये जा चुके थे। हालाँकि कोई भी प्लांट अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहा। इन संयन्त्रों से यह उम्मीद की गई थी कि वह सीवेज का पूरी तरह से शोधन करेंगे, उसमें मौजूद बैक्टीरिया का नाश करेंगे, उपयोगी और पोषक तत्त्वों को अलग कर इस्तेमाल के लायक बनाएंगे और कम से कम बिजली का उपयोग करेंगे। मगर ऐसा हुआ नहीं। अपस्ट्रीम में नदी के पानी का दोहन बहुत बढ़ जाने से नदी में पानी की मात्रा कम हुई। मल-मूत्र के प्रवाह की मात्रा बढ़ते जाने से प्रदूषण पहले से कहीं ज्यादा हो गया।

योजना में प्रस्तावित शोध और अनुश्रवण (मॉनिटरिंग) में कोताही देखने में आर्इं। केन्द्र तथा राज्य की संस्थाओं में सामंजस्य का अभाव, स्थानीय नगर पालिकाओं से जल निगम आदि के मतभेद, बिजली आपूर्ति में अनियमितता, अमला तन्त्र की अकर्मन्यता और जवाबदेही का अभाव-जैसे बहुत से कारणों से कार्यक्रम को लक्ष्य के अनुरूप सफलता नहीं मिल सकी।

राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकार


गंगा एक्शन प्लान की असफलता को देखते हुए 2009 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकार (नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी या एन.जी.आर.बी.ए.) की स्थापना की। इस नयी संस्था का उद्देश्य गंगा नदी से जुड़ी योजनाओं का रूपांकन, उनके लिए आर्थिक संसाधनों की व्यवस्था, कार्यक्रमों का अनुश्रवण और इस काम से जुड़ी दूसरी संस्थाओं के बीच समन्वय करना था। देश के प्रधनमन्त्री को इसका अध्यक्ष बनाया गया। वित्तमन्त्री को इसके लिए संसाधनों की व्यवस्था करने की जिम्मेवारी दी गई। एक स्टीयरिंग कमेटी बनायी गई जिसे केन्द्र और राज्य के विभिन्न विभागों के बीच समन्वयन, योजना की प्राथमिकताएँ तय करने तथा उन्हें स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार दिया गया। रोज-ब-रोज के कार्यक्रम पर नजर रखने के लिए एक मिशन निदेशालय की स्थापना की गई जिसका नाम 'गंगा राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन' रखा गया।

राज्यों में इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुख्यमन्त्री की अध्यक्षता में राज्य नदी संरक्षण प्राधिकार बनाया गया। राज्यों में कार्यक्रम चलाने के लिए राज्य कार्यक्रम प्रबन्धन समूह बनाये गए। बदले हुए नाम के इस राष्ट्रीय प्राधिकार का काम भी लगभग वही था, जो गंगा एक्शन प्लान का था। इस बार आबादी में वृद्धि का विशेष ध्यान रखा गया। उचित तकनीक के उपयोग पर जोर दिया गया। समस्या के सटीक अध्ययन के प्रावधान किये गए। संयन्त्रों के संचालन तथा रख-रखाव के लिए समयबद्ध व्यवस्था की गई। वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था विश्व बैंक, जैपनीज इंटरनेशनल कॉरपरेशन एजेंसी तथा सरकार के अपने माध्यमों से की गई।

इस योजना की उपलब्धियों पर स्वयं प्रधनमन्त्री संतुष्ट नहीं थे। 17 अप्रैल, 2012 को तीसरी राष्ट्रीय गंगा घाटी प्राधिकार की एक बैठक में उन्होंने निराशा व्यक्त की। बैठक में उन्होंने कहा कि गंगा में आज भी 290 करोड़ लीटर गन्दा पानी प्रतिदिन डाला जाता है। इस गन्दे पानी के परिशोधन की क्षमता केवल 110 करोड़ लीटर प्रतिदिन की ही हो पाई है। सीवेज को सही जगह पहुँचाने में राज्यों की भूमिका असंतोषजनक रही है। सीवेज पाइपों को घरों से कनेक्ट नहीं किया गया है। ऐसे में सुविधा रहते हुए भी इन संयन्त्रों की पूरी क्षमता से उपयोग नहीं हो पा रहा है। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि औद्योगिक प्रदूषण भले ही कुल प्रदूषण का केवल 20 प्रतिशत हो, लेकिन इसकी वजह से जहरीले पदार्थ गंगा में आ रहे हैं। इनमें से अनेक अवयवों का जैविक विघटन भी नहीं होता। इस तरह का सारा कचरा गंगा के किनारे लगे चमड़े के कारखानों, डिस्टिलरी, कागज बनाने वाले कारखानों और चीनी मिलों से आता है। उन्होंने स्थिति में सुधार के लिए आवश्यक कदम उठाने पर जोर दिया।

अब देश के पाँच राज्यों से, जिनसे होकर गंगा बहती है (उत्तर प्रदेश और बिहार का विभाजन हो जाने के कारण उत्तराखंड और झारखंड राज्य अस्तित्व में आ चुके हैं। इन राज्यों के 48 शहरों में 76 सीवेज ट्रीटमेंट संयन्त्रों की स्थापना की स्वीकृति दी गई है। इन संयन्त्रों पर जुलाई 2014 तक 4975 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान किया गया था। मगर केन्द्र सरकार 1270 करोड़ रुपए ही निर्गत कर सकी और जून 2014 तक 911 करोड़ रुपए वास्तव में खर्च हुए। इन प्रकल्पों से 66 करोड़ लीटर प्रतिदिन की ट्रीटमेंट क्षमता अर्जित करने और 2470 किलोमीटर का सीवेज नेटवर्क तैयार कर लेने की बात थी। हालांकि जुलाई 2014 तक 11 करोड़ लीटर प्रतिदिन की अतिरिक्त क्षमता अर्जित की जा सकी और सीवेज नेटवर्क में सिर्फ 475 किलोमीटर पाइप लाइनों का इजाफा हुआ। यह वित्तीय व्यय बारहवीं पंचवर्षीय योजना के स्रोतों से किया गया।

उद्योगों द्वारा फैलाये जा रहे प्रदूषण को रोकने तथा गंगा सफाई अभियान की सहायता के लिए भारत सरकार के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने एक प्रकोष्ट की स्थापना की है। बोर्ड के अनुसार उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में गम्भीर रूप से प्रदूषण फैलाने वाले 764 उद्योग लगे हुए हैं। इनमें से अकेले 687 उद्योग सिर्फ उत्तर प्रदेश में हैं। इन सारे कारखानों का कचरा और अपशिष्ट पानी गंगा में आता है। प्रदूषक इकाइयों में सबसे ज्यादा संख्या चमड़े से जुड़े हुए कारखानों की है। कागज या लुगदी बनानेवाले कारखाने सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। उसके बाद रासायन और चीनी उद्योग का नम्बर आता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के 2013 के एक अध्ययन में पाया गया कि बरसात के मौसम में नदी में प्रदूषण का स्तर जैसे-तैसे बर्दाश्त के काबिल हो जाता है, मगर गैर- मानसून महीनों में स्थिति बहुत ही खराब हो जाती है।

असली परेशानी उद्योगों द्वारा बिना परिशोधित कचरे और शहरों द्वारा बिना शोधित मल-मूत्र को सीधे नदी में डाल देने के कारण आती है। ऐसे समय में प्रदूषण का स्तर बेतरह बढ़ता है। सिंचाई के लिए अपर गंगा और लोवर गंगा नहरों से निकाला गया पानी हालात को बद से बदतर बनाता है। गंगा की मुख्य सहायक धाराओं, रामगंगा और काली (पूर्वी) नदी का खास तौर से जिक्र करते हुए रिपोर्ट कहती है कि इस प्रांत में सीवेज के उचित ट्रीटमेंट तथा अशोधित पानी के समुचित विसर्जन की आवश्यकता अब खतरनाक स्तर तक पहुँच गई है। यहाँ जो हालत अभी हैं, उसमें सीवेज का अगर शत-प्रतिशत भी परिष्करण कर दिया जाए तो भी नदी के पानी को नहाने के स्तर पर नहीं लाया जा सकता।

स्थापना के बाद से बोर्ड ने ऐसी 704 इकाइयों का निरीक्षण किया है। प्रदूषण नियन्त्रण के मानकों का पालन नहीं करने के कारण 165 के खिलाफ जून 2014 तक कार्रवाई की गई है। ऐसे 48 उद्योगों को बंद भी किया गया है। वन और पर्यावरण मन्त्रालय के प्रयास से मूल्यांकन और थर्ड पार्टी निरीक्षण कीे भी व्यवस्था की गई है ताकि राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी संरक्षण प्राधिकार के अधीन चल रहे कामों का लगातार अनुश्रवण किया जा सके। इस काम में आइ.आई.टी., दिल्ली तथा रुड़की, एन्वायर्नमेंट प्रोटेक्शन ट्रेनिंग एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट, हैदराबाद, वाटर एंड पावर कंसल्टेन्सी सर्विसेज, नई दिल्ली, और नेशनल एन्वयारनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर-जैसी विख्यात संस्थाएँ मदद कर रही हैं। सात आई.आई.टी. के समूह को गंगा नदी घाटी प्रबन्धन योजना बनने के लिए कहा गया था। इसकी एक रिपोर्ट सरकार को मिल भी गई है जिसे लेकर व्यापक स्तर पर चर्चा हुई है।

इस तरह सरकार गंगा सम्बन्धी विभिन्न आयामों को ध्यान में रखते हुए, विभिन्न संस्थाओं का उपयोग करते हुए स्वच्छ गंगा का कार्यक्रम हाथ में लेने को प्रस्तुत है। इसके लिए वर्ष 2014-15 के बजट में बड़ी राशि का प्रावधान किया गया है। उम्मीद की जा रही है की इस वित्तीय वर्ष में गंगा के पानी की गुणवत्ता बढ़ाये जाने के साथ केदारनाथ, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना और दिल्ली में घाटों का उद्धार हो जाएगा। पटना की स्थिति थोड़ी सी विचित्र है। यहाँ गंगा घाट छोड़ कर बहुत आगे खिसक गई है। इसे पहले घाट पर लाना होगा और तभी उसे सुधारा जा सकता है।

अब नमामि गंगे


करोड़ों रुपए के खर्च के बाद भी असफलता, आम आदमी की जरूरतों और जन-मानस की आस्था ने वर्तमान सरकार को नमामि गंगे नाम के एक नये कार्यक्रम को हाथ में लेने के लिए प्रेरित किया है। किनारे बसे 118 शहरी क्षेत्र और 1632 ग्राम पंचायतों का मल-मूत्र भी किसी न किसी माध्यम से अब भी गंगा में ही पहुँचता है। केन्द्र सरकार ने साझा विरासत की गंगा का उद्धार करने के लिए एक 55,100 करोड़ रुपयों की एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई है। इस योजना को 2022 तक पूरा कर लिया जाना है। फिलहाल योजना के कार्यान्वयन के लिए 2037 करोड़ रुपये उपलब्ध हैं। केदारनाथ, हरिद्वार, कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, पटना और दिल्ली के घाटों को दुरुस्त करने के लिए 100 करोड़ रुपए अलग से आवंटित किये गए हैं।

वैसे तो पहले की योजनाओं में यही बातें बार-बार कही जा चुकी हैं, और उपलब्धि के नाम पर केवल निराशा ही हाथ लगी है। देश की आबादी बढ़ती ही रहेगी। योजना बनाने वाले लक्ष्य प्राप्ति की जगह नौकरी बचाने का काम अब भी करेंगे। मॉनीटरिंग का काम कितनी ऊर्जा, ईमानदारी और मेहनत से होगा उसका कोई ठिकाना अभी भी नहीं है। शोध के नाम पर हम अभी भी पश्चिमी देशों के मुखापेक्षी हैं। केन्द्र और राज्य के बीच रस्सा-कशी का बंद होना असम्भव जैसी ही बात है। उद्देश्यों के प्रति जवाबदेही हमारी आदत नहीं है। और सब के ऊपर भ्रष्टाचार है जिसके बारे में बातें तो बहुत होती हैं मगर परिवर्तन कुछ भी नहीं होता।

सच है कि हमारी आस्था को डिगाना आसान नहीं है। गंगा दशहरा, मौनी अमावस्या, सावन मास, अधिमास और कुम्भ आदि में गंगा स्नान के लिए कोई किसी को बुलाने नहीं जाता, कारवां अपने आप बन जाता है। मगर जब गंगा के संरक्षण की बात आती है तो फिर हम उदासीन हो जाते हैं। आस्था का ही संकेत है कि गंगा वापस स्वर्ग जाने की तैयारी में है। मगर, ऐसे में भी आस्थावानों का निरपेक्ष बना रहना क्या आश्चर्यजनक नहीं है! रेलगाड़ी में बैठ कर हम छिलके खिड़की के बाहर न फेंक कर सीट के नीचे ही गिरा देने की सिफत रखते हैं! यही स्थिति अगर बनी रही तो क्या गंगा कभी निर्मल हो पाएगी?

इसी वर्ष जनवरी में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से स्पष्टीकरण माँगा था कि गंगा की सफाई का कार्यक्रम कब तक पूरा करेगी? सरकार की तरफ से बताया गया है कि इस काम को 2018 तक पूरा कर लिया जाएगा। हमें कामना करनी चाहिए कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद यह सपना साकार हो जाए।

और साथ में अविरल गंगा भी


निर्मल गंगा के साथ-साथ बंगाल की खाड़ी को नौ-परिवहन द्वारा उत्तराखंड से जोड़ने की योजना बनायी गई है। फिलहाल इसे इलाहाबाद तक पहुँचा देने की कवायद चल रही है। हालाँकि इसके लिए पटना से इलाहाबाद तक नदी का डेप्थ (पानी की गहराई) बढ़ाया जाना आवश्यक है। गहराई बढ़ाने के दो तरीके हो सकते हैं। एक तरीका नदी की खुदाई कर उसकी गहराई बढ़ना हो सकता है। वहीं बराज बना कर भी नदी में पानी की सतह को ऊपर उठाया जा सकता है।

बराज वास्तव में नदी के प्रवाह के सामने फाटकों का एक कृत्रिम अवरोध है जिससे गुजरने वाले पानी को पूर्णत: या आंशिक रूप से रोका या मोड़ा जा सकता है। ऐसा करने से बराज के प्रति-प्रवाह में पानी का लेवेल ऊपर उठ जाता है और नौकाओं तथा जहाजों को आने-जाने में सुगमता होती है। बराज की वजह से नदी के पानी का लेवेल उठता है, उसे नहरों के अन्दर मोड़ने में सहूलियत होती है, और इन्हीं नहरों के माध्यम से जहाज आगे की राह पकड़ते हैं। बराज के नीचे नदी में वापस नौका को लाने के लिए लॉक गेट का इस्तेमाल किया जाता है और यही प्रक्रिया जहाजों को बराज के नीचे से ऊपर लाने में भी दुहराई जाती है।

इस योजना के बारे में ध्यान देने लायक बात यह है कि गंगा में अगर सौ किलोमीटर के अन्तराल पर बराज बन जाएँगे तो नदी अविरल तो बहने से रही। तब वह दो बराजों के बीच एक लम्बी झील का रूप अख्तियार कर लेगी। लॉक गेटों को संचालित करने के लिए अलग से नहर बनानी पड़ेगी जिसके लिए भी जमीन चाहिए। गंगा को झील में तब्दील कर देने से एक अन्य समस्या भी सामने आएगी। नदी के पानी में मौजूद बालू को तल में बैठने का मौका मिलेगा। फलत: नदी की पेटी ऊपर की ओर उठेगी और नदी छिछली होती जाएगी। कहीं-कहीं, खासकर बराज के ठीक नीचे जहाँ बराज का फाटक उठाने की वजह से निकलने वाले पानी का वेग बहुत होगा, ऐसे में वहाँ गड्ढे भी बनेंगे। इस तरह नदी का क्या स्वरूप उभरेगा, उसमें किस तरह के परिवर्तन आएंगे और उसका स्थानीय लोगों पर क्या असर पड़ेगा, कह पाना मुश्किल है।

इस तरह का एक अध्ययन बिहार की कोसी नदी पर बराज बनने (1963) के एक साल पहले (1962) और 11 साल बाद (1974) दिल्ली आई.आई.टी. द्वारा किया गया था। बारह वर्षों के अन्तराल पर किये गए इस अध्ययन में पाया गया कि बराज बनने के पहले नदी अपनी पेंदी को प्राय: पूरी लम्बाई में (सुपौल से महिषी के बीच की 40 किलोमिटर की दूरी को छोड़ कर) खंगाल कर उसे लगातार गहरा कर रही थी। बराज बन जाने के बाद यह प्रक्रिया उलट गई। नदी भीमनगर बराज से डगमारा तक की 26 किलोमीटर की दूरी को छोड़ कर पूरी लम्बाई में अपनी तलहटी में बालू का जमाव कर रही थी। और महिषी से कोपड़िया के बीच तो नदी की पेटी औसतन पाँच इन्च प्रति वर्ष की रफ्तार से ऊपर की ओर उठ रही थी। इस तरह नदी छिछली होती जा रही है। ऐसा होना किसी भी मायने में नौ-परिवहन के लिए अच्छा नहीं।

बराज निर्माण के कारण नदी के स्वरूप में आए परिवर्तन का एक अन्य उदाहरण फरक्का का बराज है। गंगा पर बांग्लादेश की सीमा से कुछ पहले इसका निर्माण 1975 में किया गया। इस बराज का निर्माण कर कोलकाता बन्दरगाह और हल्दिया बन्दरगाह तक अतिरिक्त पानी बढ़ाने की व्यवस्था की गई थी। बराज निर्माण के बाद वहाँ गंगा के व्यवहार में जबरदस्त परिवर्तन हुए है। बराज निर्माण के लिए गंगा की तलहटी में कंक्रीट की मोटी बुनियाद ढालनी पड़ी थी। इन्हीं पर फाटकों को बैठाया गया था। ढलाई के कारण गंगा की तलहटी का लेवल अपरिवर्तनीय हो गया। जब यह बराज नहीं बना था तब बरसात के मौसम में नदी अपनी तलहटी को खंगाल कर पानी को आगे बढ़ा देती थी। इससे बाढ़ का असर कम हो जाता था और उसके साथ बालू भी आगे चला जाता था। बराज बन जाने के बाद कंक्रीट ढलाई के कारण गंगा की तलहटी में स्थिर हो गई। स्वाभाविक रूप से नदी का गहरा हो जाना अब बन्द हो गया।

फलत: बाढ़ की गम्भीरता बढ़ गई। फाटकों के अवरोध के कारण बराज के प्रति-प्रवाह में बालू का जमाव भी शुरू हो गया। नदी की धारा के बदलाव पर कोई नियन्त्रण नहीं रहा। इसकी वजह से ऊपर के गांवों में कटाव शुरू हो गया। परिणामत: लोग विस्थापित और बेरोजगार होते गए हैं। बराज के कारण प्रजनन के लिए मछलियों का ऊपर जाना भी बाधित हुआ है। मछलियों का उत्पादन घट गया और गाँव टापू बन गए। धारा परिवर्तन के कारण नदी में चलने वाली नावों की आवा-जाही में भी बाधा पड़ी है। हाल में ही वहाँ के बाशिन्दों ने अपनी बदहाली के लिए सरकार को जिम्मेवार ठहराते हुए क्षतिपूर्ति की माँग की है। यह मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के पास लम्बित है।

एक बराज के कारण पैदा हुई इन समस्याओं को ध्यान में रख कर कल्पना की जा सकती है कि 15-16 नये बराजों के निर्माण के बाद गंगा की दशा कैसी हो जाएगी। बिना विचारे, किसी जिद में, सिर्फ अपनी बात रखने के लिए यह काम नहीं किया जाना चाहिए। जब गंगा ही नहीं रहेगी तो किस माल या किन यात्रियों का परिवहन किया जाएगा? बराजों के माध्यम से गंगा में पानी का लेवल बढ़ाने से गंगा की सहायक धराओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर ध्यान दिया जाना क्या जरूरी नहीं है? गंगा में पानी का लेवल बढ़ जाने के बाद इन सहायक धाराओं को गंगा में अपना पानी ढालने में दिक्कत होगी। ऐसे में उन नदियों का स्वरूप भी बदलेगा। बाढ़ का प्रकोप बढ़ेगा और साथ ही बालू के जमाव से भी समस्या पैदा होगी।

अजीब विडम्बना है कि नदी का पानी तो सबको दिखाई पड़ता है, मगर बालू को लोग भूल जाते हैं। कड़वी सच्चाई यह है कि हमारे इंजीनियर पानी का क्या करना है उसके बारे में तो सब कुछ या बहुत कुछ जानते हैं, मगर बालू का क्या करना है, यह तय कर पाना उनके लिए कठिन हो जाता है। इस दिशा में कोई कदम उठाने के पहले एक बार फरक्का परियोजना का मूल्यांकन जरूरी है। गंगा की निर्मलता पर कोई दोराय नहीं हो सकती है। मगर इसे नौ-परिवहन से जोड़े जाने के बाद इसकी अविरलता पर आँच आएगी। गंगा की निर्मलता के लिए अविरलता बुनियादी शर्त है। नौ-परिवहन का लोभ अविरलता की राह के रोड़े बनेगा। दोनों उद्देश्यों के बीच सामंजस्य बैठा पाने की चुनौती सामने है।

(लेखक बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक हैं। बिहार की नदियों पर इनकी कई पुस्तकें हैं। इन्होंने आईआईटी खडगपुर से सिविल इंजिनियरिंग और दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय से जल प्रबन्धन पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है।)

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