कितनी शुभ नदी जोड़

25 May 2014
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लाभ के दावे


सूखे इलाकों में बिना बाधा पेयजल की आपूर्ति का दावा एक गरीब को भी कितना महंगा पड़ेगा, पब्लिक प्राइवेट परियोजनाओं के अनुभवों से यह स्पष्ट है। हम क्यों भूल जाते हैं कि पीने के पानी का संकट तो श्रीनगर, सोलन, अल्मोड़ा, मसूरी, धामी जी, अटगांव, रानौली से लेकर सबसे ज्यादा वर्षा वाले चेरापूंजी में भी है। जाहिर है कि संकट की वजह पानी की कमी नहीं, पानी का कुप्रबंधन है। नदी जोड़ इस कुप्रबंधन को और बढ़ाएगी। पानी प्रबंधन का सामुदायिक स्वावलंबन घटेगा। कहा गया है कि नदी जोड़ परियोजना से जल सुरक्षा सुनिश्चित होगी। नदियां जुड़ने से राष्ट्रीय एकता बढ़ेगी। पेयजल व स्वास्थ्य में बेहतरी होगी। 60 करोड़ लोगों को बिना बाधा पानी की आपूर्ति संभव होगी। बाढ़-सुखाड़ से मुक्ति मिलेगी। 1500 लाख एकड़ अतिरिक्त भूमि पर सिंचाई हो सकेगी। इससे उपज बढ़ेगी।

बाढ़-सुखाड़ की वजह से नष्ट होने वाली 2500 बिलियन रुपए की उपज नष्ट होने से बच जाएगी। 15 हजार किलोमीटर लंबा राष्ट्रीय जल यातायात मार्ग तैयार होगा। परिणामस्वरूप सड़कों पर दबाव कम होगा; ईंधन खपत में कमी आएगी और प्रदूषण नियंत्रित होगा। बनने वाले बांधों से 60 हजार मेगावाट प्रदूषण मुक्त बिजली बनेगी। यह बिजली औद्योगिक विकास को गति मिलने में सहायक होगी। इससे रोजगार का बड़ा क्षेत्र विकसित होगा।

नुकसानदेह हकीकत


आर्थिक विकास : 20 नदी घाटी, 44 नदियां, 30 जोड़, 400 नए बांध, अनेक जलाशय, कई हजार किलोमीटर लंबी नहरें और 100 हजार करोड़ से अधिक खर्च तक जा पहुंचा अनुमान। यदि इस आर्थिक अनुमान में बांध-नहरों-सुरंगों के दुष्प्रभाव, जलाशयों की संरक्षण व गाद निकासी लागत तथा नदी जोड़ मार्ग में उजड़ने वाले जंगल, विस्थापन, आपदा, जैव विविधता और भूगोल में होने वाले नकरात्मक परिवर्तन की हानि लागत जोड़ दे, तो परियोजना खर्च कितना अधिक होगा; आप अनुमान लगा सकते हैं।

“पारंपरिक क्षेत्रीय जल प्रबंधन की आदत की समाप्ति, अधिक टिकाऊ बाढ़, ऋतु चक्र में बदलाव, पारिस्थितिकीय असंतुलन, बीमारियों का पैदा होना, पलायन, दलदलीकरण व खारेपन की समस्या में बढ़ोतरी, भूक्षरण, भूगर्भ जल की कमी से सूखे क्षेत्रों की बढ़ोतरी और व्यक्ति-गांव-राज्य व राष्ट्रों के मध्य जल विवाद’’ - ये सभी बड़े बांधों, जलाशयों और नहरों के ही दुष्प्रभाव हैं। नुकसान और लागत का ठीक-ठीक अनुमान अभी भले ही न हो, लेकिन यह तय है कि नदी जोड़ परियोजना से लाभ कम, नुकसान अधिक रहने वाला है।

बाढ़ नियंत्रण : फरक्का बैराज बनने से पहले केवल 50 वर्ग किलोमीटर में बाढ़ आती थी। बैराज बनने के बाद यह क्षेत्रफल बढ़कर 10,390 वर्ग किलोमीटर हो गया। कोलकाता बंदरगाह की गहराई खतरनाक रूप से घटने के कारण 60 किलोमीटर दूर हल्दिया में नया बंदरगाह बनाना पड़ा। वर्ष 2005 में मात्र चार-पांच दिन की बारिश में लगभग सभी नदियों पर छोटे बांध टूटने की विपदा सामने आई।

उत्तराखंड में बांधों के बनने से बाढ़ और विनाश बढ़ाने का ताजा मंजर हमने देखा ही। पानी देने आई तवा बांध परियोजना को 10 हजार लोगों की हत्यारी बनने का उदाहरण है। देश ऐसे उद्धहरणों से भरा पड़ा है। अतः यह परियोजना बाढ़ नियंत्रित करने की बजाए बाढ़ की तीव्रता, टिकाऊपन व मारक क्षमता बढ़ाने वाली साबित होगी।

विस्थापन : एक आंकड़ा है कि नदियों के जरिए बंगाल की खाड़ी में आने वाली मिट्टी की मात्रा 1970 में 2.4 बिलियन टन था; 1991 में इसे 1.2 बिलियन टन दर्ज किया गया। जाहिर है कि आने वाली मिट्टी की मात्रा घट रही है। नदी धाराओं में बदलाव के कारण नदी जोड़ परियोजना सिलसिला और बढ़ाएगी। इससे डेल्टा और बंदरगाहों का खात्मा होगा।

समुद्री सतह फैलेगी। समुद्र किनारे के इलाके डूबेंगे; शेष खारेपन के शिकार बनेंगेे। इससे बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के ही लगभग एक करोड़, 30 लाख लोग विस्थापित होंगे। केन-बेतवा में ही 50 हजार के विस्थापन की संभावना पेश की गई है। भूले नहीं कि बांध परियोजनाओं के कारण देश में अब तक विस्थापित लगभग चार करोड़ में से हम अब तक एक करोड़ को भी ठीक से स्थापित नहीं कर पाए हैं। आगे क्या होगा?

पेयजल : सूखे इलाकों में बिना बाधा पेयजल की आपूर्ति का दावा एक गरीब को भी कितना महंगा पड़ेगा, पब्लिक प्राइवेट परियोजनाओं के अनुभवों से यह स्पष्ट है। हम क्यों भूल जाते हैं कि पीने के पानी का संकट तो श्रीनगर, सोलन, अल्मोड़ा, मसूरी, धामी जी, अटगांव, रानौली से लेकर सबसे ज्यादा वर्षा वाले चेरापूंजी में भी है। जाहिर है कि संकट की वजह पानी की कमी नहीं, पानी का कुप्रबंधन है।

नदी जोड़ इस कुप्रबंधन को और बढ़ाएगी। पानी प्रबंधन का सामुदायिक स्वावलंबन घटेगा। खारापन बढ़ेगा और संकट भी। नदी जोड़ में निजी भागीदारी के कारण नदी के पानी पर हक स्थानीय लोगों के हाथ से निकलकर कंपनी के हाथ में चले जाने की संभावना ज्यादा है। टिहरी बांध के बाद टिहरी में बढ़े पेयजल की जानकारी टिहरीवासी खुद-ब-खुद देते हैं। इससे बढ़ने वाला संघर्ष एकता बढ़ाएगा कि घटाएगा? सोचिए!

सिंचाई : सिंचाई को लेकर किए सरकारी दावे की पोल खुद खोलते हुए 1986 में राजीव गांधी ने कहा था - “1970 के बाद हमने जिन सिंचाई परियोजनाओं का काम शुरू किया है, आज भी उनमें हम केवल धन डालते जा रहे हैं। लोगों को वापस कुछ नहीं मिला।’’ ऊर्जा सलाहकार बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष श्री बी.बी. बोहरा के अनुसार 1950 से बड़ी सिंचाई परियोजनाओं में 50 हजार करोड़ खर्च करने के बावजूद हम संभावित क्षमता का 30 फीसदी ही उपयोग कर पाए हैं। नदी आधारित सिंचाई व विद्युत.. दोनों ही प्रकार की परियोजनाओं अपनी क्षमता के अनुसार प्रस्तावित लक्ष्य की पूर्ति कभी नहीं कर पाईं; विनाश किया, सो अलग। नदी जोड़ परियोजना का सत्य भी यही है।

आजादी के बाद बड़े बांधों और नहरी सिंचाई परियोजनाओं के हिस्से का सबसे ज्यादा बजट खाने वाले महाराष्ट्र सूखा नियंत्रण का ढोल फटते हमने गत् वर्ष देखा ही। अपने सिंचाई खर्च का बड़ा बजट सरदार सरोवर पर खर्च करने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार के दावे को लेकर वर्ष 2006 में ‘सैड्राॅप’ के समन्वयक श्री हिमांशु ठक्कर ने तथ्य पेश किए थे - “सरकार राज्य के सिंचाई खर्च का 70 फीसदी सरदार सरोवर पर खर्च कर रही है। राज्य के 550 छोटे बांध उचित संरक्षण के अभाव में बेकार पड़े हैं।

परिणामस्वरूप जहां 70 के दशक में गुजरात में सूखा प्रभावित जिले मात्र 70 थे, वहीं 2006 में उनकी संख्या बढ़कर 100 हो गई।’’ जाहिर है कि ढोल तो यह भी फटा हुआ ही है। हिमालयी नदियों में पानी घट रहा है। जिन दिनों बाढ़ वाली नदियों में अतिरिक्त पानी होता है, उन दिनों सूखे इलाके की नदियों में भी जरूरत भर पानी होता है। जब सूखे इलाके की नदियां सूखी होती हैं, तब बाढ़ क्षेत्र की नदियों में भी अतिरिक्त पानी नहीं होता। यह परिदृश्य नदी जोड़ के विचार का अव्यावहारिक बनाता है और विवाद बढ़ाने वाली भी।

बिजली : नदी आधारित शायद ही कोई बिजली परियोजना हो, जो कि अपनी घोषित क्षमता का 50 फीसदी उत्पादन कर पा रही हो। अतः नदी जोड़ परियोजना से 60 हजार मेगावाट विद्युत उत्पादन का दावा तो खोखला है ही, बचत का आंकड़ा इसे और अव्यावहारिक करार देगा। पटना में गंगा समुद्री सतह से 200 फीट ऊपर बहती है। यदि गंगा को किसी प्रायद्वीपीय नदी में स्थानान्तरित करना हो तो इसके जल को विंध्य श्रृंखला की 2860 फीट उठाना होगा।

वर्ष-2006 के एक आकलन के मुताबिक इसमें लगभग इतनी ऊर्जा लगेगी, जितनी भारत एक दिन में बनाता है। इस परियोजना में सिर्फ प्रायद्वीपीय नदियों में पानी उठाने के लिए 2327 मेगावाट बिजली की जरूरत दर्शाई गई है। हिमालयी नदियों का आकलन सामने आने के बाद कितनी बिजली अन्य उपयोग के लिए बचेगी? सोचिए!

सेहत : बाढ़ से बचाने के लिए बनाया गया रेललाइन तटबंध कोलकाता से लेकर नागदा तक मलेरिया लाया। 1992 में नागार्जुन सागर बांध क्षेत्र में हड्डी की बीमारी फैली। 1999 में हीराकुड बांध के पास को पेचिश, दस्त और मलेरिया फैला। सरदार सरोवर बांध के प्रभाव परवेटा और गुजरात के रामेश्वरपुरा में जलभराव व पौष्टिकता के अभाव के कारण बच्चों और बुढ़ों के अचानक मरने की घटनाएं हुईं।

मानसिक स्वास्थ्य संबंधी रिपोर्ट-1995 में मानसिक बीमारियों और हिंसक गतिविधियों का एक बड़ा कारण विस्थापन बताया गया है। यह एक सूक्ष्म चित्र है। परियोजना से सेहत की बिगाड़ होने की संभावना कितनी हो सकती है। आाप तय करें।

अन्य लाभ : जल यातायात को इस परियोजना के एक प्रमुख लाभ के रूप पेश किया गया है। कोलकाता से बनारस तक जल यातायात की बात सुनते करीब 20 वर्ष हो गए। आज तक यह सपना ही है। दरअसल, बांध आधारित कोई परियोजना जल यातायात की संभावना की पूर्ति कर सकेगी; यह विचार ही बेमानी है। तमाम दुष्प्रभावों को गौर करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह परियोजना कितना रोजगार देगी और कितना रोजगार खा जाएगी? यह परियोजना पानी पर कुदरत के जीवों का हक तो छिनेगी ही; एक दिन खेती और उद्योग के लिए भी संकट पेश करने वाली साबित होगी।

जितना बड़ा बजट नदी जोड़ परियोजना को पूरा करने में लगेगा, उससे भी बड़ा बजट इसके दुष्प्रभावों को समेटने में लगेगा। यह परियोजना शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि समेत कितनी ही दूसरी बुनियादी जरूरतों के मद का बजट खा जाएगी। उसके दुष्प्रभाव का चिंतन कर ही चिंता होने लगती है। इस चिंता के जाहिर होने के बावजूद नदी जोड़ का नई सरकार के एजेंडे में आना खतरनाक है। आइए, इस खतरे को खत्म करें।

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