क्लीन इंडिया मिशन को पूरा करना आसान नहीं

6 Sep 2014
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स्वतंत्र भारत में जन्मे भारत के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले की प्राचीर से दिए वक्तव्य में बहुत ही मूलभूत बातें उठाई हैं। भारतीय इतिहास में वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने स्वच्छता जैसे जमीनी मुद्दे को इतनी गंभीरता से उठाया। नरेंद्र मोदी ने लक्ष्य रखा है कि भारत को 2019 तक पूर्ण रूप से स्वच्छ और साफ बनाना है। यही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। वैसे मोदी का यह क्लीन इंडिया का मिशन इतना आसान भी नहीं है।

भारत में आज भी 53 फीसदी लोगों के पास शौचालय जैसी जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं मौजूद नहीं हैं। यानी हर दूसरा व्यक्ति खुले में शौच करने को मजबूर है। आंकड़े बताते हैं कि 1992-93 में जहां 70 फीसदी लोगों के पास शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, वही यह घटकर 2007-08 मे 51 प्रतिशत रह गई थी लेकिन विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार यह बढ़कर अब 53 प्रतिशत हो गई है।

ग्रामीण भारत के 66 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्र के 19 प्रतिशत लोग शौचालय की सुविधा से वंचित हैं। यदि राज्यों की बात करें तो झारखंड और बिहार की स्थिति कुछ ज्यादा ही बदतर है, जहां 83 प्रतिशत लोग शौच के लिए खुले स्थानों का प्रयोग करते हैं। छत्तीसगढ़ में 82.1 राजस्थान में 73.9, उत्तर प्रदेश में 72.6, जम्मू-कश्मीर में 58, उत्तराखंड में 45, हरियाणा में 42, हिमाचल में 32 लोगों को खुले में शौच करना पड़ता है।

कुछ राज्यों की स्थिति को बेहतर माना जा सकता है, जिसमें मिजोरम पहले, लक्ष्यद्वीप दूसरे, केरल तथा दिल्ली चौथे स्थान पर हैं, जहां क्रमशः 98.8, 98.2, 96.7, 94.3 प्रतिशत लोगों के पास शौचालय की सुविधा मौजूद है। इन राज्यों के आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि गरीब तबके के राज्यों में अधिकांश लोगों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। जाहिर सी बात है कि जब गरीबों के पास सिर ढंकने के लिए आशियाना तक नहीं है तो शौचालय तो दूर की बात हुई।

खुले में शौच का मतलब बीमारियों को निमंत्रण देना है। खुले में शौच से डायरिया, हैजा जैसी घातक संक्रमण जनित रोगों के फैलने का खतरा रहता है। पांच साल से कम उम्र के तकरीबन 4-5 लाख बच्चे प्रतिवर्ष इन्हीं संक्रामक बीमारियों के चलते मौत के शिकार हो जाते हैं। महिलाओं के लिए खुले में शौच तो और भी भयावह है।

शौचालय न होने की वजह से उन्हें अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ये समस्याएं सीधे तौर पर उनकी सुरक्षा से जुड़ी हुई हैं। आकड़ों की पोटली टटोलने पर यह ज्ञात होता है कि खुले में शौच के दौरान 30 प्रतिशत महिलाओं को विभिन्न उत्पीड़नों का शिकार होना पड़ता है। यह भारत के लिए सिर्फ शर्म की बात नहीं है बल्कि बहुत बड़ा कलंक है। भारत को निर्मल भारत बनाने के लिए तरह-तरह के अभियान चलाए जा रहे हैं, इसके बावजूद भी यथास्थिति बनी हुई है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ कागजी तौर पर निर्मल भारत की कवायद चल रही है? विगत वर्ष ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भारत में खुले में शौच को राष्ट्रीय शर्म बताते हुए 2015 तक आखिरी व्यक्ति तक शौचालय की सुविधा पहुंचाने की बात कही थी और साथ में यह बताया था कि भारत की स्वच्छता अभियान पर सरकार सालाना 1400 करोड़ रुपया खर्च करती है।

भारतीय इतिहास में नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने स्वच्छता जैसे जमीनी मुद्दे को इतनी गंभीरता से उठाया। नरेंद्र मोदी ने लक्ष्य रखा है कि भारत को 2019 तक पूर्ण रूप से स्वच्छ और साफ बनाना है। यही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। वैसे मोदी का यह क्लीन इंडिया का मिशन इतना आसान भी नहीं है। भारत में आज भी 53 फीसदी लोगों के पास शौचालय जैसी जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं मौजूद नहीं हैं। यानी हर दूसरा व्यक्ति खुले में शौच करने को मजबूर है। इसके बावजूद खुले में शौच जैसी कुप्रथा का न मिटना कई सवालों को खड़ा करता है। देश को निर्मल बनाने के लिए पंचायत स्तर पर भी अभियान चलाए जा रहे हैं लेकिन संपूर्ण स्वच्छता अभी दूर की कौड़ी लगती है। अगर हम सरकारी आंकड़ों का ही विश्वास करे तो अभी तक देश के कुल 2.5 लाख ग्राम पंचायतों में से मात्र 28 हजार ग्राम पंचायत ही निर्मल ग्राम पंचायत बन पाए हैं।

अगर हमें इस लक्ष्य को हासिल करना है तो तेजी से कार्यबद्ध होकर ईमानदारी पूर्वक कार्य करना होगा तभी हम निर्मल भारत के सपने को साकार कर पाएंगे। बेशक हाल के दिनों में देश में इस मसले पर जागरुकता फैलाने की कोशिशें बढ़ी हैं। इससे पहले भी सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा लगातार बना रहा। पिछले 20 वर्षों में इस पर 1250 अरब रुपए से ज्यादा खर्च किए जा चुके है। बावजूद इसके हालात आज भी ऐसे नहीं हो सके कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत शर्मिंदगी से बच सके।

पहले तो दुनिया हमें एक गरीब देश के रूप में देखती थी। इस वजह से गरीबी, भुखमरी और और कुपोषण की इंतिहा दर्शाने वाली स्थितियों को भी खास आश्चर्य की बात नहीं माना जाता था। मगर पिछले दो दशकों के विकास के बाद अब भारत संपन्न और शक्तिशाली देशों के साथ कंधा-से-कंधा मिलाकर खड़ा होता है और वैश्विक समस्याओं को सुलझाने की प्रक्रिया में बराबर की हिस्सेदारी करता है।

स्वाभाविक है कि जिन मोर्चों पर उसकी नाकामी को पहले सहानुभूति के साथ लिया जाता था, उन्हीं नाकामियों को पचाना अब किसी के लिए मुश्किल हो गया है।

पिछले करीब 20 वर्षों में दुनिया के स्तर पर खुले में शौच जाने वाले लोगों की संख्या में 21 फीसद की उल्लेखनीय कमी आई है। 1990 में यह संख्या 130 करोड़ थी जो 2012 में घट कर 100 करोड़ पर आ गई।

आंकड़ों के लिहाज से देखें तो एशियाई देशों की उपलब्धि भी कम नहीं दिखती। 1990 में यहां की 65 फीसदी आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी। 2012 तक यह 38 फीसदी हो गई। मगर भारत के संदर्भ में 60 करोड़ की संख्या अब भी नीति-निर्माताओं को मुंह चिढ़ा रही है। घरों में शौचालय बनवा देने मात्र से निर्मल भारत का अभियान पूरा होने वाला नहीं है।

आमतौर पर देखा गया है कि घर में शौचालय होने के बाद भी लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। इसका कारण उनकी आदतें और कुछ किंवदंतियां हैं। आज भी गांवों में यह माना जाता है कि स्वस्थ रहना है तो खुले में शौच के लिए जाएं। इस तरह की बातों में लोग न आएं, इसके लिए उन्हें जागरुक भी करना होगा। महात्मा गांधी ने कहा था, ‘स्वच्छता स्वतंत्रता से भी अधिक महत्वपूण हैं।’ निर्मल भारत का अभियान महात्मा गांधी के सपने को साकार करने का अभियान है। इसके लिए हमें लंबे समय से चली आ रही भ्रांतियों को तोड़ना होगा।

सभी समुदायों को साथ लेकर लोगों को जागरूक करना होगा। यह स्वच्छता का अभियान है, इसे लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। हर किसी को साफ, स्वच्छ और स्वस्थ भारत के निर्माण में भागीदार बनना होगा। जब वातावरण स्वच्छ होगा, तो जनमानस भी स्वस्थ होगा। भारत को निर्मल बनने के लिए देश के प्रत्येक व्यक्ति को योगदान देना होगा। सरकारी, गैरसरकारी एवं देश के जागरूक नागरिकों को आगे आकर स्वच्छता के प्रति जन-जागरुकता फैलानी होगी ताकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का निर्मल भारत का सपना साकार हो सके।

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