कोसी तटबंधों के बीच

[object Object]
कोसी नदी में बाढ़ से विस्थापित लोग
1950 में कोसी के दोनों तटबंधों का निर्माण हुआ जिनके बीच 304 गांवों के करीब एक लाख बानबे हजार लोग शुरू-शुरू में फंस गए थे। इनका पुनर्वास का काम बहुत ही ढीला था और कई गांवों के पुनर्वास की जमीन का अभी तक अधिग्रहण नहीं हुआ है। बाद में तटबंधों की लंबाई बढ़ाए जाने के कारण इन गांवों की संख्या 380 हो गई और आजकल या आबादी बढ़कर 12 लाख के आस पास पहुंच गई है।

बिहार विधानसभा मे इस पर कई बार चर्चा हुई जिसमें परमेश्वर कुंअर का यह बयान (जुलाई, 1964) बहुत ही महत्वपूर्ण है। वो कहते हैं, कोसी तटबंधों के बीच खेती नहीं हो सकती है। वहां तमाम जमीन पर बालू का बुर्ज बना हुआ है। वहां कांस का जंगल है, दलदल है। कृषि विभाग इसको देखता नहीं है की वहां पर किस प्रकार खेती की उन्नति की जा सकती है। जहां कल जंगल था वहां आज गांव है।

जहां कल गांव था वहां आज जंगल है। इसी प्रकार जहां-जहां कल गांव था वहां आज नदी हो जाती है। कोसी के बीच ईंट और खपड़े के घर नहीं बन सकते हैं। घर छाने के लिए घास नहीं मिलती है। मवेशियों को सालों भर कोई-ना-कोई बीमारी होती ही रहती है। वेटनरी डॉक्टर वहां हैं मगर कोई ध्यान नहीं देते हैं। लोगों के पढ़ने-लिखने तथा जीविका के लिए कोई प्रबंध नहीं है। उनके लिए जो 6 शय्या का अस्पताल है वह रहने लायक नहीं है। वहां डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं।

पैथॉलॉजिकल टेस्ट और मालगुजारी देने के लिए लोगों के पास पैसे नहीं हैं। पहले लोगों को रिलीफ मिलता था लेकिन अब वो भी नहीं मिलता। सहरसा और पूर्णिया के बीच मे जो शोक की नदी बहती थी उसको तीन मील के चौड़े तटबंध में बांध दिया गया है। पुनर्वास की चर्चा की जाती है लेकिन यह फाइल मिनिस्टर साहब के यहां सालभर से पड़ी हुई है।

कोसी के इलाके के लड़के मैट्रिक तक पढ़ नहीं पाते हैं, उनके पास पैसा नहीं रहता है। नाम लिखा लेते हैं मगर बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती है। कुछ लोग बाहर नौकरी करते हैं। कुछ की जमीन बाहर में है। मेरी भी 2-3 बीघा जमीन बाहर में है। जितने लोगों ने कर्ज लिया है वो उसकी अदायगी भी नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनकी हालत बहुत ही बुरी है। कोसी तटबंध के भीतर के लोगों की हालत बहुत दयनीय है और उनको कोई देखने वाला नहीं है।

कोसी तटबंधों के भीतर जो हालत है उसको जानने का कोई उपाय नहीं है। नाव का कोई इंतजाम नहीं किया गया है। कलक्टर साहब से कहते हैं की नाव का इंतजाम करिए तो वो कहते हैं की एस० डी०ओ० साहब से कहिए।

इसके पहले 1959 में इन कम नसीब लोगों की हालत के बारे में एक अन्य विधायक रसिक लाल यादव ने विधानसभा में कहा था कि कोसी नदी को अब बांध दिया गया है। इसके बीच से पहले लोग निकल सकते थे लेकिन अब (उन्हें) घेर दिया गया है जिस से वे अब निकल नहीं सकेंगे। और रेवेन्यू विभाग की हालत यह है कि सरकार के सर्किल अफसर लोगों को खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूल करते हैं जबकि उनका घर पानी में है।

वो ऐसे लोगों को भी खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूलते हैं जो केवल ककड़ी पैदा करके अपना जीवन बसर करते हैं। जो नदी के बाहर हैं उनको कहा जाता है कि खेती करने के लिए बांध के बीच में जाएं। लेकिन जब वो खेती करने के लिए जाते हैं तो घटवार उन्हें खदेड़-खदेड़ कर घाट वसूल करते हैं। कोसी योजना उनकी रक्षा के लिए बनाई गई थी न कि उन्हें खदेड़ने के लिए। ऐसा उन्होंने 1959 में कहा था।

जहां कल गांव था वहां आज जंगल है। इसी प्रकार जहां-जहां कल गांव था वहां आज नदी हो जाती है। कोसी के बीच ईंट और खपड़े के घर नहीं बन सकते हैं। घर छाने के लिए घास नहीं मिलती है। मवेशियों को सालों भर कोई-ना-कोई बीमारी होती ही रहती है। वेटनरी डॉक्टर वहां हैं मगर कोई ध्यान नहीं देते हैं। लोगों के पढ़ने-लिखने तथा जीविका के लिए कोई प्रबंध नहीं है। उनके लिए जो 6 शय्या का अस्पताल है वह रहने लायक नहीं है। वहां डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं।आज इस घटना को करीब 50 साल हो गए हैं। इस बीच क्या-क्या हुआ वह बताते हैं कोसी तटबंधों के बीच फंसे एक गांव भेलाही के बुज़ुर्ग। उनका कहना है कि हमारा घर दरिया में है और दरिया हमारे घर में है। साल के तीन चार महीनें पानी हमारे चारो तरफ रहता है। पड़ोसी के घर जाना हो, नमाज़ पढ़ने मस्ज़िद जाना हो, नाव से जाइए। टट्टी, पेशाब सब नाव पर और औरत-मर्द सभी बेपर्दा। दस हजार आबादी होगी हमारी पंचायत की।

गांव में एक मिडिल स्कूल, एक प्राइमरी स्कूल और एक मदरसा है। तीन महीने कमर भर पानी रहता है उसमें। दरिया की पेटी ऊपर उठ रही है। सुनने में यह बड़ी मामूली बात लगती है मगर हमारे तो घर के फर्श की भी वही हालत है। पांच साल के दरम्यान इतनी मिट्टी घर में पड़ जाती है कि दरवाजे खिड़की में तब्दील हो जाते हैं।
अब बनाइये घर दूसरी जगह।

यह तटबंध जब बन रहा था तब पूरब वाला तटबंध बनगांव में और पशिम वाला तटबंध पुनाच से गुजरने की बात थी। 18 किलोमीटर का फासला था जो बाद में 9 किलोमीटर का रह गया। बांध को आड़ा तिरछा जैसा चाहा मोड़ा और अपनी सहूलियत के मुताबिक बनाया। पचास साल पहले लोग सीधे-सादे थे और पढ़े-लिखे नहीं थे, उन्हें जिस तरह से बेवकूफ बनाया जा सकता था बनाया गया।

1956 में जब यह तटबंध बन रहा था तभी पूरब से तिलजुगा नदी हम लोगों पर चढ़ आई और तब हम लोगों को लगा की अब यह खतरा हम लोगों पर बना ही रहेगा। बवाल मचा और बहुत से लोग जेल में ठूंस दिए गए।

नेता लोग दिलासा देते थे कि तुम लोगों की सारी मांगें पूरी कर दी जाएंगी तो कभी कहते थे कि ये पूरा इलाका समंदर हो जाएगा और तुम लोगों को यहां से जाना पड़ेगा। काफी झंझट के बाद जल्लै में पुनर्वास मिला। कुछ लोग वहां गए मगर जल्दी ही वापस आ गए क्योंकि समय के साथ वहां भी पानी भर गया। फिर दो कट्ठा जमीन में कहीं गांव का घर बनता है। सरकार आदमी गिनती है माल मवेशी नहीं।

खेत खलिहान और गोचर के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। जिसे पता ही नहीं था कि गांव की जरूरतें क्या हैं, वही मुख्तार था, वही वायदा करता था और उसे ही उन वायदों को पूरा करना था। ऐसा आदमी झूठ नहीं बोलेगा तो और क्या करेगा। सच बोलकर अपनी फजीहत करवाएगा?


कोसी नदी में बाढ़ से विस्थापित लोगकोसी नदी में बाढ़ से विस्थापित लोगहम लोग इनके झांसे में आ गए। कहते थे कि सारी जमीन सींचेंगे। वो जमीन कहां है? सब जगह बाग लगाएंगे, वो बाग कहां है? पूरे इलाके को जन्नत बनाएंगे, अगर यही जन्नत है तो फिर जहन्नुम किधर है? बालू वाली जमीन की मालगुजारी हम देते हैं, जिसे माफ करने का वायदा हमसे किया गया था। यहां से निकलने कि कोशिश करो तो घाट पर पैसा देते-देते दम निकल जाए। पहले से पता होता कि यह मुसीबत झेलनी पड़ेगी तो तभी मर गए होते या तटबंध बनाने वालों को ही मार दिया होता। मगर मरना तो इत्तिफाक है, यह किसी कि मर्जी से तो नहीं होता है।

तटबंध टूटता है तो यह जानते हुए कि उस पार के लोगों को बहुत तकलीफ होगी मगर जब हम हर साल वो तकलीफें झेलते हैं तो कभी-कभी आप भी उसका मजा लीजिए। हमारे यहां तो बाहर की बिरादरी ने शादी ब्याह भी बंद कर रखा है। बाजार जाना है तो सहरसा जाइए और लौट आए तो समझिए की नई जिंदगी हो गई। हम लोग वोट देते हैं इसलिए नहीं कि जो जीतेगा वो हमारे लिए कुछ करेगा।

वोट उसे इसलिए देते हैं कि इसी बहाने कम-से-कम एक आदमी का हम लोगों मे से भला हो जाएगा। अब तो हमारे सारे गिले-शिकवे भी जाते रहे। फारसी में एक कहावत है, 'जश्ने-ए-अंबोह मर्ग-ए-दारद' जिसका मतलब होता है कि जहां एक आदमी मरता है वहां तो मातम होता है मगर जहां बड़ी तादाद में लोग मरते हैं वहां मातम नहीं होता है, जश्न होता है। कोई लाशों को एक जगह इकट्ठा करेगा, कोई मुर्दों को नहलाने का काम करेगा, कोई कब्र खुदवाएगा, कोई मेहमानों की खातिरदारी में लगेगा, तो कोई बड़े पैमाने पर नमाज का इंतेजाम करेगा। सबके लिए काम होगा, चारो तरफ रौनक-ही-रौनक और मातम मनाने वाला कोई नहीं। हम लोगों की हालत वैसे ही हो गई है। सब अपने काम में मस्त और हम लोगों के बारे में सोचने वाला कोई नहीं। लोग देखने आते हैं जैसे हम कोई तमाशा है।


कोसी नदी में बाढ़ से विस्थापित लोगकोसी नदी में बाढ़ से विस्थापित लोगइन दोनों बयानों में कोई फर्क नजर आता है क्या? और क्या हमारी व्यवस्था इसी तरह चलती रहेगी? पचास साल बाद कड़वाहट बढ़ी ही है जिसे किसी भी सभ्य समाज में समाप्त हो जाना चाहिए था।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading