कराहती नदियां

31 Jul 2010
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आमी का गंदा जल सोहगौरा के पास राप्ती नदी में मिलता है। सोहगौरा से कपरवार तक राप्ती का जल भी बिल्कुल काला हो गया है। कपरवार के पास राप्ती सरयू नदी में मिलती है। यहां सरयू का जल भी बिल्कुल काला नज़र आता है। बताते हैं कि राप्ती में सर्वाधिक कचरा नेपाल से आता है। उसे रोकने की आज तक कोई पहल नहीं हुई। पिछले दिनों राप्ती एवं सरयू के जल को इंसान के पीने के अयोग्य घोषित किया गया। कभी जीवनदायिनी रहीं हमारी पवित्र नदियां आज कूड़ा घर बन जाने से कराह रही हैं, दम तोड़ रही हैं। गंगा, यमुना, घाघरा, बेतवा, सरयू, गोमती, काली, आमी, राप्ती, केन एवं मंदाकिनी आदि नदियों के सामने ख़ुद का अस्तित्व बरकरार रखने की चिंता उत्पन्न हो गई है। बालू के नाम पर नदियों के तट पर क़ब्ज़ा करके बैठे माफियाओं एवं उद्योगों ने नदियों की सुरम्यता को अशांत कर दिया है। प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण को नष्ट करने वाले तत्वों को संरक्षण हासिल है। वे जलस्रोतों को पाट कर दिन-रात लूट के खेल में लगे हुए हैं। केंद्र ने भले ही उत्तर प्रदेश सरकार की सात हज़ार करोड़ रुपये की महत्वाकांक्षी परियोजना अपर गंगा केनाल एक्सप्रेस-वे पर जांच पूरी होने तक तत्काल रोक लगाने के आदेश दे दिए हों, लेकिन नदियों के साथ छेड़छाड़ और अपने स्वार्थों के लिए उन्हें समाप्त करने की साजिश निरंतर चल रही है। गंगा एक्सप्रेस-वे से लेकर गंगा नदी के इर्द-गिर्द रहने वाले 50 हज़ार से ज़्यादा दुर्लभ पशु-पक्षियों के समाप्त हो जाने का ख़तरा भले ही केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की पहल पर रुक गया हो, लेकिन समाप्त नहीं हुआ। गंगा और यमुना के मैदानी भागों में माफियाओं एवं सत्ताधीशों की मिलीभगत साफ दिखाई देती है। नदियों के मुहाने और पाट स्वार्थों की बलिवेदी पर नीलाम हो रहे हैं।

बड़ी मात्रा में रेत खनन के चलते जल जीवों के सामने संकट पैदा हो गया है। गंगा की औसत गहराई वर्ष 1996-97 में 15 मीटर थी, जो वर्ष 2004-2005 में घटकर 11 मीटर रह गई। जलस्तर में गिरावट निरंतर जारी है। आईआईटी कानपुर के एक शोध के अनुसार, पूरे प्रवाह में गंगा क़रीब चार मीटर उथली हो चुकी है। गाद सिल्ट के बोझ से बांधों की आयु घटती जा रही है। जीवनदायिनी और सदा नीरा गंगा कानपुर के पास दशक भर पूर्व 15 से 20 मीटर गहरी थी, जबकि पहाड़ी इलाक़ों में इसकी गहराई मात्र चार मीटर ही थी। जलवायु विशेषज्ञ परमेश्वर सिंह अपनी पुस्तक पर्यावरण के राष्ट्रीय आयाम में नदियों के घटते दायरे पर चिंता जता चुके हैं। वह कहते हैं, बात केवल गंगा तक ही सीमित नहीं है। पिछले एक दशक में बूढ़ी गंडक 6 से 4 मीटर, घाघरा 6 से 4 मीटर, बागमती 5 से 3 मीटर। राप्ती 4.5 एवं यमुना की औसत गहराई 3।5 से दो मीटर तक कम हो चुकी है। नदियों का पानी पीने लायक तक नहीं बचा है। कभी बेतवा नदी का पानी इतना साफ एवं स्वास्थ्यवर्द्धक होता था कि टीबी के मरीज़ इस जल का सेवन करके स्वस्थ हो जाते थे। आज बेतवा के किनारे स्थित बस्ती के लोग उसमें गंदगी डाल रहे हैं। बेतवा में नहाने वाले लोग चर्म रोग का शिकार हो रहे हैं। यमुना नदी में पुराने यमुना घाट से लेकर पुल तक बड़ी संख्या में शव प्रवाहित किए जा रहे हैं। हमीरपुर का गंदा पानी पुराने यमुना घाट पर नाले के ज़रिए नदी में डाला जा रहा है। नदी की सफाई करने वाली मछलियां, घोघे एवं कछुए समाप्त हो गए हैं। यहां लोग पानी का आचमन करने से भी डरते हैं।

डुमरियागंज से निकली आमी नदी रुधौली, बस्ती, संत कबीर नगर, मगहर एवं गोरखपुर ज़िले के क़रीब ढाई सौ गांवों से होकर बहती है। यह नदी कभी इन गांवों को हरा-भरा रखती थी। गोरख, कबीर, बुद्ध एवं नानक की तपोस्थली रही आमी आज बीमारी और मौत का पर्याय बन चुकी है। यह नदी 1990 के बाद तेज़ी से गंदी हुई।रुधौली, संत कबीर नगर एवं 93 में गीडा में स्थापित की गईं फैक्ट्रियों से आमी का जल तेज़ी से प्रदूषित हुआ। इन फैक्ट्रियों से निकलने वाला कचरा सीधे आमी में गिरता है। आमी के प्रदूषित हो जाने के चलते इलाक़े से दलहन की फसल ही समाप्त हो गई। गेहूं और तिलहन का उत्पादन भी खासा प्रभावित हुआ है। पेयजल का भीषण संकट है। नदी तट से तीन-चार किमी तक हैडपंपों से काला बदबूदार पानी गिरता है। आमी तट के गांव में जब महामारी आई तो सीएमओ की टीम ने अपनी जांच में पाया कि सभी बीमारियों की जड़ आमी का प्रदूषित जल है। आमी के प्रदूषण के चलते मगहर, सोहगौरा एवं कोपिया जैसे गांवों के अस्तित्व पर संकट आ गया है।

आमी का गंदा जल सोहगौरा के पास राप्ती नदी में मिलता है। सोहगौरा से कपरवार तक राप्ती का जल भी बिल्कुल काला हो गया है। कपरवार के पास राप्ती सरयू नदी में मिलती है। यहां सरयू का जल भी बिल्कुल काला नज़र आता है। बताते हैं कि राप्ती में सर्वाधिक कचरा नेपाल से आता है। उसे रोकने की आज तक कोई पहल नहीं हुई। पिछले दिनों राप्ती एवं सरयू के जल को इंसान के पीने के अयोग्य घोषित किया गया। यह पानी पशुओं के पीने के लायक तो माना गया, मगर इन नदियों के तट पर बसे गांवों के लोग पशुओं को यह जल नहीं पीने देते।

ऐसा लगता है कि अपनी दुर्दशा पर नदी संवाद करती हुई कहती है, मैं काली नदी हूं। मानों तो काली मां। भूल तो नहीं गए! ऐसा इसलिए कि आजकल मेरे पास कोई आता कहां है। सभी ने मुझे अकेला छोड़ रखा है मरने के लिए। वैसे भी मैं ज़िंदा हूं कहां? मेरा पानी न पीने लायक है, न सिंचाई लायक। पर्यावरणविद् तो मुझे मुर्दा बता चुके हैं। मैं हूं ही ऐसी। किसी प्यासे को जीवन नहीं दे सकती। जिस ज़मीन को छू लूं, वह बंजर हो जाए। मेरी दशा हमेशा से ऐसी नहीं थी। मेरा भी बचपन था, जवानी थी…क्या दिन थे वे! ख़ूब बारिश होती थी। सारे ताल-तलैया और नाले लबालब हो उठते थे। धुआंधार बारिश के बीच ही क़रीब 150 साल पहले मुज़फ़़्फरनगर के गांव उंटवारा में मेरा जन्म हुआ था। इसमें खतौली के पास स्थित गांवों निठारी एवं जंढेडी के योगदान को भला कैसे भूल सकती हूं। यहीं की बारिश का पानी मेरे लिए ऑक्सीजन देता था। यह न मिलता तो मेरा नामोनिशान कब का मिट चुका होता। यहां से शुरू हुआ मेरा सफर 374 किलोमीटर दूर तक पहुंचा। इस दौरान मेरे निकट 1200 गांव, क़स्बे और शहर आए। मेरठ, गाजियाबाद, बुलंदशहर, अलीगढ़, कांशीराम नगर, एटा, फर्रुखाबाद और कन्नौज ने मुझे अपनाया, रास्ता दिया। शुरू में सभी का स्नेह मिला। किसानों ने सूखती फसलों को मेरा पानी दिया। वे लहलहा उठीं। मछलियां, कीड़े-मकोड़े सभी ख़ूब अठखेलियां करते, गोते लगाते। जलीय पौधे भी स्वस्थ रहते थे।लेकिन आज ख़ुद को देखती हूं तो हूक सी उठती है। मृत्युशैय्या पर पड़ी हूं, आख़िरी सांसें ले रही हूं। मेरा सब कुछ लुट चुका है। जलीय जीव-जंतु सब मर चुके हैं। मेरे पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती चली गई। अलीगढ़ आने के पहले तक कुछ ज़िंदा रहने की गुंजाइश भी थी, लेकिन यहां अब दो मिलीग्राम प्रति लीटर डिसाल्व ऑक्सीजन में कैसे बचते जलीय जीव-जंतु? साधु आश्रम के पास मेरे पानी में ज़िंदा रहने लायक कुछ नहीं बचा। अब ख़ुद को ज़िंदा लाश न मानूं तो क्या करूं? किसी से कहूं भी तो क्या? जिन्हें ज़िंदगी भर बेटे की तरह माना, वही आस्तीन के सांप निकले। वे अपनी फैक्ट्रियों और सीवर का कचरा मेरे ऊपर उड़ेल रहे। इससे मेरी काया काली होती गई, पानी ज़हर बनता गया। पर्यावरणविद्‌ मेरी प्रकृति को क्षारीय बता रहे हैं। कन्नौज में मेरा हाल एकदम सीवर के पानी जैसा हो चुका है। मैं यह बोझ अब और नहीं झेल सकती। बड़ी मां गंगा ही मेरा उद्धार करेंगी, लेकिन सुना है कि मोक्षदायिनी मां गंगा भी मैली होती जा रही हैं। मैं तो आख़िरी सांसें गिन ही रही हूं। मेरे साथ जो सलूक किया, वैसा कम से कम मोक्षदायिनी गंगा मइया के साथ मत करना। यही मेरी अंतिम इच्छा है। क्या पूरी करेंगे आप सब?

प्रख्यात पर्यावरणविद् प्रो. वीरभद्र मिश्र को इस बात से थोड़ी तसल्ली ज़रूर है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्लीन गंगा मिशन में व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं, लेकिन पुराने अनुभव प्रो। मिश्र को आशंकाओं से मुक्त नहीं कर पा रहे। वह कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने 2020 तक गंगा में गिरने वाले नालों को पूरी तरह रोकने और सीवेज के ट्रीटमेंट का भरोसा दिलाया है, लेकिन इसके लिए प्रस्तावित उपायों का ख़ुलासा नहीं किया। फिर यह सवाल भी उठना लाज़िमी है कि तब तक केंद्र में किसकी सरकार होगी और उसका गंगा को लेकर नज़रिया क्या होगा? प्रो. मिश्र ने गंगा के मामले में सैद्धांतिक से कहीं ज़्यादा व्यवहारिक पक्ष को महत्व दिए जाने पर जोर दिया। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य प्रो. मिश्र ने कहा कि आज सबसे बड़ा संकल्प यह होना चाहिए कि गंगा में एक भी नाला नहीं गिरने दिया जाएगा। गंगा तट पर वाराणसी समेत 116 शहर बसे हैं, जिनकी आबादी एक लाख से ज़्यादा है। इन शहरों के नालों से गिरने वाली गंदगी ही गंगा के 95 फीसदी प्रदूषण का कारण है। ज़रूरत इस बात की है कि नालों को डायवर्ट कर शोधन की त्रुटिविहीन व्यवहारिक व्यवस्था लागू की जाए। प्रो. मिश्र इस बात से पूरा इत्ते़फाक रखते हैं कि गंगा में पर्याप्त जल होना चाहिए, लेकिन साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि केवल ज़्यादा पानी छोड़े जाने भर से प्रदूषण कम नहीं होगा। वह पर्यावरण असंतुलन के लिए प्राकृतिक चक्र में व्यवधान को कारण बताते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य अपने फायदे के लिए प्राकृतिक स्रोतों का ज़बरदस्त दोहन कर रहा है। यही वजह है कि कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा विनाशकारी साबित हो रहे हैं। प्रकृति में वेस्ट नामक कोई चीज नहीं रही। सब कुछ री-साइकिलिंग से नियंत्रित हो रहा है।

मानसून के बल पर सदनीरा बनने वाली नदियां वर्षा की बूंदों को अपने आंचल में छुपाकर एक लंबी यात्रा के साथ हमारे होंठो को तरलता देकर जीवन चक्र को गतिमान करती हैं। प्रकृति के इस विराट खेल का अंदाज़ा इसी बात से चल जाता है कि भारत के पश्चिमी तट पर क़रीब 75 अरब टन जल बरसता है। मैदानी इलाक़ा 15 लाख किमी के क्षेत्र में फैला है। इस क्षेत्र में 1.7 सेमी औसत दैनिक वर्षा का अर्थ हुआ कि पश्चिमी तट से भारत में प्रवेश करने वाली वाष्प का एक तिहाई भाग जल में परिवर्तित होता है। जल है तो कल है, का नारा लगाने वाले भारतीय मानसून नामक अरबी शब्द से अपनी सारी आशा-आकांक्षाएं प्रकट करते हैं। इस एक शब्द ने सदियों से लोगों को इतना प्रभावित किया है कि हमारी जीवनशैली एवं संस्कृति मानसून और नदियों के इर्द-गिर्द सिमट गई है। गंगा और यमुना का मैदानी भाग दुनिया का सबसे उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। लेकिन अब गंगा ही नहीं, बेतवा, केन, शहजाद, सजनाम, जामुनी, बढ़ार, बंडई, मंदाकिनी एवं नारायन जैसी अनेक छोटी-बड़ी नदियों के सामने संकट खड़ा हो गया है। ललितपुर में बीच शहर से निकलने वाली शहजाद नदी का हाल बेहाल है। प्रदूषण की शिकार इस नदी को लोगों ने अपने आशियाने के रूप में इस्तेमाल करने के लिए आधे से ज़्यादा पाट दिया हैं। यही हाल इससे मिलने वाले नालों का है। उन पर आलीशान मकान खड़े हो गए हैं। बंडई नदी मड़ावरा ब्लॉक में जंगली नदी के रूप में बहती है। इससे जंगली जानवरों के लिए पीने का पानी सुलभ होता है। इसकी भी असमय मौत हो रही है। चित्रकूट में बहने वाली मंदाकिनी नदी के सामने प्रदूषण का ख़तरा मंडरा रहा है। नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अनाप-शनाप पैसा फूंक रही हैं। गोमती नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए 285.6857 करोड़ रुपये अवमुक्त हो चुके हैं, लेकिन गोमती का हाल ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। बेशक़ीमती प्रकृति स्रोत प्रदान करने वाली नदियों-नालों के साथ हो रही छेड़छाड़ ने संकट खड़ा कर दिया है। कराहती नदियां अपनी पीड़ा कहें तो किससे कहें? कौन सुनेगा उनकी अकाल मृत्यु की शोक गाथा! कौन मनाएगा मातम!

गंगा को प्रदूषित करते शहर


आबादी में छोटे एवं मंझोले शहरों की श्रेणी में आने वाले छह शहर ऐसे हैं, जिनके नालों का गंदा पानी परोक्ष रूप से गंगा में मिलकर उसे मैला करता है और उसे साफ करने के लिए सीवेज शोधन संयंत्र (एसटीपी) लगाए जाने की कोई भावी योजना भी नहीं है। इनमें बबराला, उझेनी एवं गुन्नौर (बदायूं), सोरों (एटा) और बिल्हौर (कानपुर) शामिल हैं। गंगा की निगरानी कर रही उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की इकाई ने इन्हें चिन्हित करते हुए इनमें एसटीपी के लिए कोई योजना न बनाए जाने पर चिंता जताई है।दरअसल, हाल में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के गठन के बाद गंगा नदी में पर्यावरण की दृष्टि से विकास की शर्त रखी गई है। बोर्ड अब तक गंगा में सीधे गिर रहे सीवेज पर ही नज़र रखता था। बोर्ड की मुख्य पर्यावरण अधिकारी डॉ। मधु भारद्वाज ने बताया कि छोटे एवं मंझोले शहरों के पुनरुत्थान के लिए बनी यूआईडीएसएसएमटी के तहत फर्रुखाबाद, मिर्ज़ापुर, मुगलसराय, गाज़ीपुर, सैदपुर, गढ़मुक्तेश्वर, बिजनौर, अनूपशहर एवं चुनार आदि में गंगा में सीधे गिर रहे सीवेज प्रबंधन के लिए योजनाएं बनकर स्वीकृत हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़, बबराला (बदायूं) के दो नालों का दो मिलियन लीटर गंदा पानी (एमएलडी) प्रतिदिन वरद्वमार नदी में सीधे गिरता है, जो आगे चलकर गंगा में मिलती है। उझेनी (बदायूं) का आठ एमएलडी गंदा पानी गंगा से तीस किमी दूर स्थित तालाब में गिरता है, जो आगे नालों में मिलता है। गुन्नौर (बदायूं) के दो नालों का तीन एमएलडी गंदा पानी एक तालाब में गिरता है, जो आगे चलकर वरद्वमार नदी से होता हुआ गंगा में मिलता है। सोरों (एटा) के तीन नालों का चार एमएलडी गंदा पानी गंगा में सीधे नहीं गिरता, पर आगे चलकर उसमें ही मिलता है। बिल्हौर (कानपुर) के नालों का तीन एमएलडी सीवेज ईशान नदी में सीधे गिरता है। यह भी आगे चलकर गंगा में ही मिलता है।

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