करे हाहाकार नि:शब्द सदा

16 May 2015
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राजनीतिक कारणों से कलकत्ता और हावड़ा की आर्थिक स्थितियाँ बदलने लगीं। इसी प्रकार धीरे-धीरे गंगा नदी का महत्त्व भी स्थानीय लोगों के जीवन से कम होने लगा। औद्योगिक विकास की चक्की में पिसते लोगों की धार्मिक आस्थाएँ क्षीण होने लगीं।

भागीरथ के अथक प्रयासों से हिमालय में गंगोत्री से निकली गंगा उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार से होते हुए बंगाल में प्रवेश करती है। लेकिन मुर्शिदाबाद के फरक्का में बँटकर पद्मा नदी के रूप में जहाँ एक ओर बांग्लादेश चली जाती है, वहीं भागीरथी-हुगली नदी के रूप में आगे बंगाल में 260 किलोमीटर बहने के बाद राजा सागर के 60,000 वंशजों को तारते हुए सागर में समा जाती है। गंगा-सागर स्थित कपिल मुनि आश्रम के महन्त, अखिल भारत निर्वाणी अखाड़ा परिषद के प्रमुख तथा अयोध्या स्थित हनुमानगढ़ी अखाड़ा के महन्त ज्ञानदास के अनुसार राजा सगर के वंशजों को तारने के कारण ही गंगा नदी को पतित पावनी, पुण्य सलिला माना जाता है। इसी कारण मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगा-सागर तीर्थ में स्नान का विशिष्ट महात्म्य है।

पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के किनारे ही सभ्यताएँ विकसित हुईं। मुर्शिदाबाद में जियागंज, अजीमगंज तथा बहरामपुर के रूप में मुगलकाल के दौरान बड़ी रियासत तथा नागरी सभ्यताएँ विकसित हुर्इं। इसी प्रकार बर्दवान, कटवा, कालना तथा नवद्वीप, चुंचुड़ा, कोन्नगर, कमरहट्टी, हावड़ा तथा कोलकाता होते हुए दक्षिणमुखी गंगा धीरे-धीरे गंगासागर की ओर प्रस्थान करती गई।

बंगाल के सामाजिक-आर्थिक विकास तथा इसके इतिहास में गंगा नदी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वैसे भी प्राचीनकाल के सभी प्रमुख शहर नदियों के किनारे बसे हैं। बंगाल में गंगा नदी के जरिए बड़े व्यावसायिक गतिविधियों का संचालन हुआ करता था।

सन 1495 में प्रकाशित बांग्ला कवि विप्रदास पिपलई के ‘मनसा विजय’ में स्पष्ट उल्लेख है- “दाहिने कोतर्वाह कमरहट्टी वामे, पूर्वते आडियादह, घुसुड़ी पश्चिमे। चितपुरे पूजे राजा सर्वमंगला, निशिदिशि वाहे डिंगा नाही करे हेला, ताहार पूर्वकूल वाहिया एड़ाय कालिकाता। बेतड़ चापाय डिंगा चांद महारथा।।’’- अर्थात दाहिने कोतर्वाह तथा बाएँ कमरहट्टी है। पूर्व में आडियादह तथा पश्चिम में घुसुड़ी है। चितपुर में राजा ने सर्वमंगला देवी की पूजा की। रात-दिन बहती जाती है नौका और नहीं करती कोई असुविधा। इसके पूर्वी तट के बाहरी छोर पर है कलकत्ता। बेतड़ में नौका पर सवार हुए चाँद महाराजा। गौरतलब है कि चाँद महाराजा को बंगाल के बड़े सौदागर के रूप में जाना जाता था, जो नदियों, खासकर गंगा नदी के जरिये बड़ी व्यापारिक यात्राओं पर जाया करते थे।

इतिहास का जिक्र हो तो प्रासंगिक है कि गंगा नदी के किनारे ब्रिटिश उपनिवेश के तौर पर कोलकाता तथा डच, पुर्तगाली तथा अन्त में फ्रेंच उपनिवेश के तौर पर चुंचुड़ा और चंदननगर शहर विकसित हुए। इन शहरों के विकास में गंगा नदी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। प्रसंगवश मुगल बादशाह फरुखशियर ने कलकत्ता की ओर तैंतीस गाँवों तथा इस पार हावड़ा में पाँच गाँवों की जमींदारी का पट्टा अंग्रेजों को दान में दिया था।

गंगा के पूर्वी तट पर कलकत्ता के जमीन्दारों ने मुगल बादशाह का आदेश सहर्ष मान लिया था, जबकि हावड़ा के जमीन्दार बंगाल के तत्कालीन नवाब मुर्शीदकुली खाँ की शह पर इस आदेश को मानने को तैयार नहीं हुए थे। अन्तत: सन 1728 में मुर्शीदकुली खान के दामाद सुजाउद्दीन के शासनकाल में जब दूसरी बार इस अंचल की राजस्व व्यवस्था में संशोधन किया गया तब हावड़ा बर्दवान के राजा के हवाले आया और इस प्रकार वह अंग्रेजी शासन के अधीन आया।

हालाँकि बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के बीच भी गंगा का महात्म्य कभी कम नहीं माना गया। उल्लेख योग्य है कि तिब्बती धर्मगुरु और राजतन्त्र भी गंगा को यथेष्ट मान्यता देते रहे हैं। जब वारेन हेंस्टिंग्स लार्ड के तौर पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कमान सम्भाल रहे थे, तब तिब्बती राजा तोशी लामा ने पूजा-पाठ के लिए उनसे गंगा के किनारे घुसुड़ी में जमीन के टुकड़े की माँग की, बदले में उन्हें तिब्बत में व्यवसाय करने की इजाजत दी। तिब्बतियों को जो जमीन प्रदान की गई है, उसे आज भी भोटबागान मठ के तौर पर जाना जाता है। दीगर बात है कि कालान्तर में वह भूमिखण्ड दशनामी अखाड़ा वालों के हाथ में आ गई।

बहरहाल, गंगा नदी जीवनदायनी के तौर पर जहाँ राज्य में फसल के लिए लाभप्रद साबित होती रही, वहीं धीरे-धीरे इसके किनारे सत्रहवीं सदी में औद्योगिक ईकाइयाँ विकसित होने लगीं। सन 1911 तक, जब देश की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली ले जायी गई, तब कलकत्ता और हावड़ा देश ही नहीं बल्कि विश्व के प्रमुख औद्योगिक नगरों में से एक थे।
कलकत्ता के खिदिरपुर बन्दरगाह के जरिए बड़ा व्यवसाय हुआ करता था। लोहे की फैक्ट्रियाँ, फाउण्ड्री, जूट मिलों, कपड़ा मिल के कारण देश में हावड़ा की एक विशिष्ट पहचान थी। लेकिन सन 1911 के बाद राजनीतिक कारणों से कलकत्ता और हावड़ा की आर्थिक स्थितियाँ बदलने लगीं। इसी प्रकार धीरे-धीरे गंगा नदी का महत्त्व भी स्थानीय लोगों के जीवन से कम होने लगा। औद्योगिक विकास की चक्की में पिसते लोगों की धार्मिक आस्थाएँ क्षीण होने लगीं। इस बीच साठ-सत्तर के नक्सलवाद, इसके बाद वाममोर्चा के चौंतीस साल के शासनकाल तथा बाद में राज्य में परिवर्तन के दौर में चिटफंडियों की मदद से काबिज सरकार ने कभी गंगा की सुध नहीं ली।

दिखावे के लिए कुछेक घाटों का सौंदर्यीकरण जरूर हुआ लेकिन आज भी शहर के तमाम नाले सीधे गंगा में गिरते हैं। घरों में स्नान की सुविधा जिन्हें मुहैया नहीं और ऐसे लोग जो किसी धार्मिक तिथि पर गंगा स्नान को पुण्य मानते हैं, वही अब गंगा स्नान को पहुँचते हैं। बाकियों के लिए गंगा नदी अब सिर्फ एक नदी भर ही रह गई है और कवि पण्डित नरेंद्र शर्मा के शब्दों में -
‘‘ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों
श्रुतस्विनी क्यों न रहीं,
तुम निश्चय चेतन नहीं
प्राणों में प्रेरणा देती न क्यों,
उन्मत अवनि कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी नव भारत में,
भीष्मरूपी सुत समरजयी जनती नहीं हो क्यों
विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार नि:शब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों ।’’


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