कर्नाटक की सिंचाई योजनाओं में छेद ही छेद

पिछले बीस सालों में सरकारी कर्मचारियों और विशेषकर राजस्व विभाग के कर्मचारियों की संख्या में आई कटौती इसके लिये जिम्मेदार हो सकती है। इसका मतलब यह नहीं कि नौकरशाही की सुस्ती और नाकारापन कारण नहीं है। वह अपनी जगह है लेकिन हाल में निजीकरण के दबाव ने सरकारी नौकरशाही को पंगु बना दिया है। यही वजह है कि कई विशेषज्ञों का कहना है कि हमें नई सिंचाई परियोजनाओं से ज्यादा इस बात की जरूरत है जो परियोजनाएँ बनी हुई हैं या चल रही हैं उनकी वास्तविक क्षमता का उपयोग किया जाए।

कर्नाटक की सिंचाई परियोजनाएँ अपने लक्ष्य से बहुत पीछे हैं। इसके चलते वहाँ 2009 से 2014 के बीच 915.45 करोड़ रुपए सालाना फसलों की क्षति हुई। पिछले पन्द्रह साल जो कि देश में उदारीकरण और विकास के वर्ष कहे जाते हैं उस दौरान भी अतीत के दिनों की काहिली से कोई सबक नहीं सीखा गया। कहीं योजनाओं को पूरा करना गैर जरूरी बताया गया तो कहीं मानव संसाधनों की कमी बताई गई।

यह सवाल नहीं उठाया गया कि यह स्थितियाँ नौकरशाही के मौजूदा ढाँचे के कारण हुईं या फिर उन पर कर्मचारियों की कमी के बढ़ते दबाव के चलते। यह आकलन सन् 2014 में नियन्त्रक और लेखा महापरीक्षक की तरफ से कर्नाटक विधानसभा में पेश दो रपटों में सामने आया है। क्या यह खेती की उपेक्षा की सरकारी कहानी है या इसकी कोई व्यापक योजना है जिसका कोई हिस्सा छुपा हुआ है?

आइए पहले उस अन्तर को देखें जो निर्धारित लक्ष्य और हासिल किये गए काम के बीच बना हुआ है और जिसे सीएजी ने स्पष्ट तौर पर चिन्हित किया है। सीएजी की इस रपट को घोटालों की श्रेणी में भले न रखा जाए लेकिन यह खेती और किसानी के साथ अन्याय और उपेक्षा से कम कैसे कहा जा सकता है? सीएजी ने तीन सिंचाई कारपोरेशन के माध्यम से चल रही विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं के काम की जो समीक्षा की है उसमें निम्न किस्म के दोष पाए गए हैं:-

1. दोषपूर्ण सर्वे और डिजाइन
2. दोषपूर्ण आकलन
3. ठेका देने में अनियमितता
4. भूमि अधिग्रहण में नियमों का उल्लंघन
5. परियोजनाओं के क्रियान्वयन में सुस्ती

कमांड एरिया विकास परियोजनाओं (सीएडीपी) की शुरुआत 1974 में हुई। इसका मकसद था सिंचाई की क्षमताओं और उसके वास्तविक उपयोग के बीच के अन्तर को कम करना। इस उद्देश्य के लिये बड़ी और मझोले स्तर की योजनाओं हेतु केन्द्रीय योजनाओं का भी सहारा लिया गया। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर काम को ठीक से संचालित करने के लिये 1980 में कर्नाटक कमांड एरिया विकास कानून बना।

इसके तहत जो प्राधिकरण बनाए गए उनमें तुंगभद्रा (मुनीराबाद), भालप्रभा और घाटप्रभा (बेलमानी), कावेरी घाटी परियोजना (मैसुरू), अपर कृष्णा परियोजना, भद्रा परियोजना (शिवमोगा) प्रमुख हैं। सीएजी ने इनमें से मुनीराबाद, मैसूरू और शिवमोगा के प्राधिकरण का गहराई से अध्ययन किया।

इन प्राधिकरणों की मदद के लिये 2008-09 के बीच राज्य स्तरीय कमांड एरिया डेवलपमेंट एंड वाटर मैनेजमेंट प्रोग्राम चलाए गए और 2010 से 2013 के बीच केन्द्रीय योजनाएँ चलाई गईं। इसके बावजूद 2009 से 2014 के बीच लक्ष्य और वास्तविक क्षमताओं के बीच भारी अन्तर पाया गया। क्षेत्र सिंचाई नहर न बनने के कारण यह अन्तर 2009-14 के बीच 4.10 लाख हेक्टेयर का था, जबकि 2009 में यह अन्तर 5.65 लाख हेक्टेयर का था।

सीएजी की रपट के अनुसार 2009 से 2014 के बीच क्षेत्र सिंचाई चैनल (नहरें) बननी थीं 7.48 लाख हेक्टेयर के लिये लेकिन बन पाईं महज 2.25 लाख हेक्टेयर के लिये। यानी महज 30 प्रतिशत का लक्ष्य हासिल हुआ। इसके कारण 2.71 लाख हेक्टेयर के प्रोजेक्ट को सिंचाई का लाभ नहीं मिला और सालाना 915.45 करोड़ रुपए की फसलों का नुकसान हुआ।

सीएजी के सर्वे में इसके कारण भी साफ तौर पर पकड़ में आए हैं। सीएजी के अनुसार किसी भी कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी ने न तो व्यापक तौर पर न ही दीर्घकालिक तौर पर योजनाएँ बनाईं। हालांकि उन्होंने सालाना प्लान की राशि उठा ली थी। सबसे ज्यादा 93 प्रतिशत कमी सुधार प्रणाली में पाई गई। सर्वेक्षण में 77 प्रतिशत कमी पाई गई, भूमि-उद्धार के काम में भी 75 प्रतिशत तो खेत के विकास में 70 प्रतिशत की कमी पाई गई।

यह सब क्यों नहीं हो पाया इसके लिये प्राधिकरणों की तरफ से अलग-अलग जवाब दिये गए। जैसे कि मुनीराबाद के प्राधिकरण ने कहा कि काम चल रहा है। यह वही घिसा पिटा जवाब है जो कि तमाम सरकारी संस्थाएँ देती हैं। जबकि मैसुरू के प्राधिकरण ने कहा कि व्यापक योजनाएँ या दीर्घकालिक योजनाएँ बनाने से कुछ हासिल नहीं होगा। यानी उन्होंने औचित्य को ही सिरे से खारिज कर दिया। सर्वे की कोताही को शिवमोगा और बेलगाँव के प्राधिकरण ने स्वीकार किया। पर उनके पास कोई स्पष्टीकरण नहीं था।

कर्नाटक के अतिरिक्त मुख्य सचिव का कहना था कि उनके पास सर्वे करने और परियोजना बनाने के लिये लोग ही नहीं थे। सम्भव है यह बड़ा कारण हो। इस कारण की जड़ों में जाना ही होगा। यह देखना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है कि ज़मीन के रिकार्ड तैयार करने के लिये कर्मचारी नहीं मिल रहे हैं। सिंचाई योजनाओं के सर्वे के लिये कर्मचारी नहीं मिल रहे हैं और उनकी वास्तविक क्षमता के उपयोग के लिये व्यवस्था के पास साधन नहीं हैं।

निश्चित तौर पर पिछले बीस सालों में सरकारी कर्मचारियों और विशेषकर राजस्व विभाग के कर्मचारियों की संख्या में आई कटौती इसके लिये जिम्मेदार हो सकती है। इसका मतलब यह नहीं कि नौकरशाही की सुस्ती और नाकारापन कारण नहीं है। वह अपनी जगह है लेकिन हाल में निजीकरण के दबाव ने सरकारी नौकरशाही को पंगु बना दिया है।

यही वजह है कि कई विशेषज्ञों का कहना है कि हमें नई सिंचाई परियोजनाओं से ज्यादा इस बात की जरूरत है जो परियोजनाएँ बनी हुई हैं या चल रही हैं उनकी वास्तविक क्षमता का उपयोग किया जाए। नहरों, बाँधों की मरम्मत की जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि खेतों तक पानी पहुँचे और उन्हें बीच में ही किसी और क्षेत्र में इस्तेमाल न कर लिया जाए।

इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने के लिये किसानों की भागीदारी का कार्यक्रम भी चलाया गया था। उसे पीएएम (पार्टिसिपेटरी इरीगेशन मैनेजमेंट) यानी सिंचाई भागीदारी प्रबन्धन कहा जाता है। इसके तहत सन् 2000 से निम्न संरचना बनाई गई थी

1. जल उपभोक्ता सहकारिता सोसायटी --- जलद्वार के स्तर पर।
2. जल उपभोक्ता वितरण संघ---वितरण के स्तर पर।
3-जल उपभोक्ता परियोजना स्तरीय संघ---परियोजना के स्तर पर।
4-जल उपभोक्ता शीर्ष स्तरीय फेडरेशन----राज्य से स्तर पर।
लेकिन विडम्बना देखिए कि राज्य की 76 परियोजनाओं में से सिर्फ 33 में ही यह पीआईएम लागू हो पा रहा है। यानी किसानों की भागीदारी जो कि आवश्यक है उसे नौकरशाही तवज्जो नहीं दे रही है। यह स्थिति तब है कि कर्नाटक में पंचायती राज, रैयत संघ और किसान संगठन लम्बे समय से बेहद सक्रिय स्थिति में हैं।

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