कृषि आय बढ़ाने वाली कम लागत की तकनीकें

3 Mar 2018
0 mins read

कृषि क्षेत्र में भी ऐसी सम्भावनाओं की कमी नहीं है जिनसे सम्मानजनक आय की प्राप्ति की जा सकती है। केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से भी ऐसी योजनाओं और कार्यक्रमों का आयोजन समय-समय पर किया जाता है जिनका उद्देश्य कृषक समुदाय को आधुनिक कृषि तकनीकें अपनाने के लिये प्रेरित करना है। सीमान्त, छोटे और मझोले किसानों के लिये कृषि को लाभदायी बनाने, कम लागत की खेतीबाड़ी की तकनीकों, समेकित कृषि प्रणाली, खेती के साथ पशुपालन, शूकर पालन, मात्स्यिकी, मधुमक्खी पालन, रेशम उत्पादन, खाद्य प्रसंस्करण, जैविक खेती, वैज्ञानिक खेती के विभिन्न आयामों आदि पर आधारित तमाम कृषि प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों एवं तकनीकों का विकास किया गया है।

इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी हमारे देश में बहुसंख्यक किसान सीमान्त या लघु कृषकों की श्रेणी में आते हैं। मोटे तौर पर ऐसे कृषकों से आशय है एक हेक्टेयर से कम भूमि जोत वाले कृषक। इनमें से अधिकांश किसानों की पैदावार अपने परिवार के लिये गुजर-बसर करने लायक खाद्यान्न के उत्पादन तक ही सिमटी हुई है। सरप्लस उपज तो बहुत दूर की बात है- बाढ़, सूखा या अन्य विपदाओं के कारण किसानों के लिये कभी-कभी तो खेती की लागत भी निकालनी मुश्किल पड़ जाती है। अच्छी उपज मिल भी जाये तो उचित मूल्य मिलना मुश्किल होता है।

फलों-सब्जियों जैसी शीघ्र खराब होने वाली फसलों को भी उन्हें मजबूरी में स्थानीय खरीददारों के हाथों में औने-पौने दामों में बेचना पड़ जाता है। ऐसे ही तमाम कारणों के कारण वर्तमान में किसान परिवार के बच्चे खेती को आय अर्जन का आधार बनाने से कतराते हैं और रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन करने को कहीं बेहतर विकल्प समझते हैं। ये ग्रामीण युवा जोश में ऐसे कदम तो उठा लेते हैं पर यह सोच नहीं पाते कि शहरी जिन्दगी की परेशानियों और अथक मेहनत करने के बावजूद दो जून की रोटियाँ जुटा पाने के संघर्ष में उनकी जिन्दगी उलझकर रह जाएगी।

केन्द्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अन्तर्गत देश में कृषि अनुसन्धान और कृषि शिक्षा का संचालन और प्रबन्धन करने वाली शीर्ष संस्था के रूप में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (भाकृअनुप) के अधीन कार्यरत में 103 से अधिक कृषि अनुसन्धान संस्थानों, प्रायोजना निदेशालयों और लगभग 700 कृषि विज्ञान केन्द्रों द्वारा इसी क्षेत्र में निरन्तर काम किया जा रहा है।

इनके द्वारा विशेषकर सीमान्त, छोटे और मझोले किसानों के लिये कृषि को लाभदायी बनाने, कम लागत की खेतीबाड़ी की तकनीकों, समेकित कृषि प्रणाली, खेती के साथ पशुपालन, शूकर पालन, मात्स्यिकी, मधुमक्खी पालन, रेशम उत्पादन, खाद्य प्रसंस्करण, जैविक खेती, वैज्ञानिक खेती के विभिन्न आयामों आदि पर आधारित तमाम कृषि प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों एवं तकनीकों का विकास किया गया है।

इनका उपयोग कर सीमान्त किसान भी अपनी छोटी जोतों से साल भर में न सिर्फ कई फसलों का उत्पादन कर सकते हैं बल्कि समेकित/मिश्रित कृषि को अपनाकर अतिरिक्त आय आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। आइए, चर्चा करते हैं ऐसी ही कम लागत वाली कृषि प्रौद्योगिकियों/तकनीकों की जिन्हें परिषद के विभिन्न अनुसन्धान संस्थानों द्वारा तैयार किया गया है। इन्हें छोटे और सीमान्त किसान भी बिना ज्यादा निवेश के आसानी से अपना सकते हैं।

मोटे अनाजों से बढ़ाएँ आय


इस वर्ग में ज्वार, सांवां, कुटकी, कोड़ों, चेना, कंगनी, रागी जैसे गौण अनाजों का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें प्रोटीन, रेशे, विटामिनों आदि की भरपूर मात्रा पाई जाती है। भाकृअनुप-भारतीय कदन्न अनुसन्धान संस्थान, हैदराबाद के वैज्ञानिक की मेहनत का नतीजा है कि विभिन्न प्रकार के मोटे अनाजों की खेती के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों का विकास सम्भव हो सका है जिनसे बेहतर गुणवत्ता (78 प्रतिशत तक) के साथ अधिक उपज (58 प्रतिशत तक) भी ली जा सकती है।

इन नई तकनीकों में अन्तः फसलों (ज्वार-अरहर, ज्वार-सोयाबीन आदि) की खेती से भी अधिक आय प्राप्ति के विकल्प पर जोर दिया गया है। अधिक उपज देने में सक्षम विभिन्न मोटे अनाजों का विकास भी इस क्रम में किया गया है। उदाहरण के लिये ज्वार की अधिक पैदावार देने में सक्षम किस्म ज्वार संकर-सी एस एच 17 का उल्लेख किया जा सकता है। इससे प्रचलित ज्वार की किस्मों की तुलना में 50 प्रतिशत से अधिक उपज सम्भव है।

जावा सिट्रोनेला से कमाई


विभिन्न औद्योगिक एवं घरेलू उपयोगों के कारण इसके तेल की माँग में हाल के वर्षों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके पत्तों से लेमनग्रास की तरह का तेल निकलता है। यह तेल बाजार में 1000 से 1200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है।

खेती के पहले वर्ष में 150-200 किलोग्राम तथा दूसरे से पाँचवें वर्ष तक 200-300 किलोग्राम तक तेल इस बहुवर्षीय घासरूपी फसल की कटाई से प्राप्त हो जाता है। पहले साल ही इसकी बुआई पर खर्च होता है। उसके बाद आगामी वर्षों में इस पर नगण्य खर्च होता है। मोटे तौर पर इससे किसान को शुद्ध लाभ 50-70 प्रतिशत तक या 80 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर तक मिल जाता है। इस बारे में भाकृअनुप-उत्तर-पूर्व विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, जोरहट से अधिकृत जानकारी मिल सकती है।

प्याज और लहसुन-आधारित नई प्रौद्योगिकियाँ


खरीफ मौसम में प्याज एवं लहसुन का उत्पादन कम होता है। इसके पीछे मुख्य रूप से पानी का जमाव, कीटों और रोगों का प्रकोप और खरपतवार जैसे कारक जिम्मेदार हैं। भाकृअनुप-प्याज एवं लहसुन अनुसन्धान निदेशालय, पुणे द्वारा खरीफ में भी प्याज उत्पादन की ऐसी प्रौद्योगिकियों का विकास किया गया है जिनके इस्तेमाल से किसान इन फसलों की उत्पादकता बढ़ाकर उच्च कीमत प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिये निदेशालय के मार्गदर्शन में विदर्भ के देउलगाँव के एक किसान श्री नामदेवराव अदाऊ का उल्लेख किया जा सकता है जिन्होंने अपनी 4 एकड़ जमीन पर ‘भीमा सुपर’ प्याज की किस्म से 2.60 लाख रुपए तक की आय प्राप्त करने में सफलता हासिल की।

जलसंचय प्रौद्योगिकी से बढ़ी कृषि आय


खेतों में वर्षाजल अमूमन बिना किसी उपयोग के बह जाता है और इसके साथ ही खेत की उर्वर मिट्टी की ऊपरी परत भी चली जाती है। इस समस्या के समाधान के लिये भाकृअनुप- केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसन्धान संस्थान, हैदराबाद द्वारा एक विशेष जल संचयन प्रौद्योगिकी को विकसित किया गया है। इसके तहत खेत के निचले हिस्से में तालाब बनाए जाते हैं और खेत के जलबहाव को नालियों के जरिए इस तालाब तक पहुँचाया जाता है। इसका दोहरा फायदा किसानों को मिलता है। पहला तो यही कि सूखे की स्थिति में भी फसलों की सिंचाई के लिये जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो जाती है और दूसरा, इस तालाब में मछली पालन से भी अतिरिक्त आय हासिल की जा सकती है।

गन्ना खेती की लागत को कम करने वाले कृषि यंत्र


कृषि श्रमिकों की बढ़ती लागत तथा कृषि उपयोगी पशुओं को पालने का प्रचलन कम होने से गन्ना किसानों के लिये खेती काफी खर्चीली होती जा रही है। इस समस्या को दूर करने के उद्देश्य से भाकृअनुप-भारतीय गन्ना अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ द्वारा गन्ने की खेती के लिये जरूरी सभी प्रकार के कृषि उपयोगी उपकरणों/यंत्रों का विकास किया गया है। इनकी मदद से गन्ने के खेत की तैयारी, बुवाई, निराई-गुड़ाई एवं अन्य कृषि क्रियाओं के खर्च में उल्लेखनीय रूप से बचत सम्भव है। इनसे बीज और खाद की मात्रा में 15-20 प्रतिशत की कमी, गन्ना पौधों की सघनता में 5-20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी, उत्पादकता में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि तथा श्रम लागत में 20-80 प्रतिशत तक की बचत सम्भव है।

बासमती धान में आईपीएम प्रणाली से लाभ


बासमती धान की अधिकतर प्रजातियों में कीट रोगों से प्रतिरोधकता नहीं होने की वजह से तनाबेधक, पत्ती लपेटक, भूरा फुदका रोग, गंधी बग, शीथ ब्लाईट, ब्लास्ट तथा बकाने जैसे रोगों के कारण उपज में काफी कमी हो जाती है। भाकृअनुप-राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबन्धन अनुसन्धान केन्द्र, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा आईपीएम (समेकित कीट प्रबन्धन) के स्थान पर विशिष्ट मॉडल विकसित किये गए हैं जिनका फायदा उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखण्ड के बासमती धान की खेती करने वाले किसान उठा सकते हैं। इनके प्रयोग से कीटनाशकों के छिड़काव में कमी, सन्तुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग तथा उर्वरक लागत में कमी तथा सिंचाई एवं मजदूरी के खर्च में काफी बचत होती है। इस प्रकार कुल फसल लागत में भी कमी आती है। इतना ही नहीं कम कीटनाशकों के प्रयोग से तैयार ऐसे धान की बाजार में कीमत भी ज्यादा मिलती है।

अन्तरवर्ती फसल प्रणाली से भरपूर मुनाफा


इस प्रणाली में एक ही खेत में, एक ही मौसम में एवं एक ही समय में दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ उत्पादन किया जा सकता है। इस प्रकार कम लागत में प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक उत्पादन लिया जा सकता है। इस पद्धति में धान्य फसलों के साथ दलहनी फसलों को भी उगा पाना सम्भव है। एक सीधी तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने से खरपतवारों का नियंत्रण भी इस अन्तरवर्ती फसल प्रणाली में किया जा सकता है। यही नहीं फसलों को रोगों और कीटों से भी इस विधि से बचाया जा सकता है, जैसे चने की फसल में धनिया को अन्तरवर्ती फसल के रूप में उगाने से चने में लगने वाले कीटों की रोकथाम कर अधिक उपज ली जा सकती है।

केन्द्रीय फसलों से आमदनी


आलू और अन्य केन्द्रीय फसलों (कसावा, शकरकंद, जिमीकंद टेनिया, याम अरारूट आदि) की खेती में संलग्न किसान इन फसलों की उपयुक्त किस्में, आधुनिक उत्पादन एवं संरक्षण तकनीकें अथवा प्रसंस्करण प्रौद्योगिकियाँ अपनाकर अपनी आमदनी को उल्लेखनीय रूप से बढ़ा सकते हैं। विश्वास नहीं होगा पर यह सच है कि पश्चिम बंगाल में आलू से मिलने वाली शुद्ध आय, चावल और गेहूँ की तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा और इसी प्रकार बिहार में भी आलू से कहीं अधिक मुनाफा परम्परागत फसलों की तुलना में मिलता है। इन केन्द्रीय फसलों से कई तरह के मूल्यवर्धित खाद्य उत्पाद भी बनाए जाते हैं। इनमें प्रमुख तौर पर आलू के चिप्स और कसावा से तैयार किये जाने वाले स्नैक्स फूड, पास्ता आदि का जिक्र किया जा सकता है। जैव इथेनॉल उत्पादन में भी कसावा का कम महत्त्व नहीं है।

कुमट का महत्त्व


कुमट एक वृक्ष है जिससे गोंद मिलता है। यह गोंद अत्यन्त उच्च गुणवत्ता वाला होता है एवं बाजार में 500 से 800 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है। इसका उपयोग दवा उद्योग, खाद्य उत्पादों तथा अन्य उद्योगों में किया जाता है। अमूमन ये वृक्ष अर्ध-शुष्क जलवायु और कंकरीली-पथरीली भूमि पर होते हैं। कृषि वानिकी के अन्तर्गत इसे बड़े पैमाने पर उगाकर अच्छी-खासी आय साल-दर-साल प्राप्त की जा सकती है। इसके बारे में अधिक जानकारी भाकृअनुप-कृषि वानिकी अनुसन्धान संस्थान, झाँसी से हासिल की जा सकती है।

जैविक खेती के लिये कृषि पद्धतियाँ


जैविक उत्पादों या ऑर्गेनिक प्रोडक्ट्स का बाजार मूल्य अधिक मिलने के कारण किसानों का जैविक खेती की ओर बड़ी संख्या में आकर्षित होना स्वाभाविक है। किसानों के बीच जैविक कृषि की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए 45 फसलों/फसल पद्धतियों पर आधारित जैविक कृषि पद्धतियों का विकास किया गया है। इनका प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय जैविक कृषि केन्द्र, परम्परागत कृषि विकास योजना तथा राष्ट्रीय बागवानी मिशन के माध्यम से किया जा रहा है।

समेकित कृषि प्रणाली मॉडल


देश के विभिन्न कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से लघु एवं सीमान्त कृषकों के अनुरूप विविध फसलों, बागवानी उत्पादों, कृषि वानिकी, पशुधन तथा मात्स्यिकी पर आधारित 45 बहु-उद्यमी समेकित कृषि प्रणाली मॉडलों का विकास किया गया है। इनके उपयोग से कृषकों की आय को 1.5-3.5 लाख रुपए तक बढ़ाया जा सकता है। इन कृषि प्रणालियों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी के लिये भाकृअनुप-भारतीय कृषि प्रणाली अनुसन्धान संस्थान, मोदीपुरम से सम्पर्क किया जा सकता है।

आलू उत्पादन के लिये निम्न लागत पद्धति


आलू की खेती में अन्य फसलों की तुलना में कहीं अधिक निवेश करना पड़ता है। इस प्रकार खेती की लागत का करीब 35-40 प्रतिशत बीजों, लगभग 40 प्रतिशत कृषि मजदूरी, 14 प्रतिशत उर्वरकों एवं खाद तथा 7 प्रतिशत सिंचाई पर खर्च हो जाता है। भाकृअनुप-केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान, शिमला द्वारा आलू उत्पादन में श्रम, बीज, जुताई, उर्वरक तथा सिंचाई निवेशों में होने वाले व्यय में बचत के लिये विशिष्ट प्रौद्योगिकी विकसित की गई है। किसान इसे अपनाकर कम लागत में आलू उत्पादन कर अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।

इसबगोल की खेती से लाभ


इसबगोल एक महत्त्वपूर्ण फसल है जो रबी के मौसम के दौरान गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उगाई जाती है। इसके बीज के आवरण को भूसी के नाम से जाना जाता है और इसमें कई तरह के औषधीय गुण होते हैं। यह जानकर आश्चर्य होगा कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार में इसबगोल की भूसी निर्यात करने वाला भारत एकमात्र राष्ट्र है। इसकी खेती से बड़ी सरलता से 15-20 हजार रुपए की कमाई प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है। इसकी खेती से जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं के बारे में जानकारी के लिये भाकृअनुप-राष्ट्रीय औषधीय एवं सगंधीय पौध अनुसन्धान संस्थान केन्द्र, आनन्द से सम्पर्क किया जा सकता है।

आम के पुराने अनुत्पादक बागों की जीर्णोद्धार प्रौद्योगिकी


वैज्ञानिक अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया है कि पुराने और सघन आम के बागों की उत्पादकता में लगभग 30 से 35 प्रतिशत तक की कमी होती जा रही है। भाकृअनुप-केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ द्वारा आम के पुराने बागों के जीर्णोद्धार की पद्धति का विकास किया गया है। ऐसे पेड़ों को पुनः उत्पादक बनाने की लागत लगभग 160 रुपए प्रति पेड़ आती है और ऐसे उपचारित पेड़ आगामी 20-25 वर्षों तक फलों का उत्पादन करते रहते हैं। इस प्रकार नए आम के बाग लगाने के निवेश से बचा जा सकता है।

शुष्क क्षेत्रों में सब्जियाँ उगाने के लिये घड़ा सिंचाई प्रौद्योगिकी


जल की कमी वाले क्षेत्रों में फसलों के अधिक उत्पादन के लिये जल-संरक्षण तथा दक्षतापूर्ण जल इस्तेमाल करने से सम्बन्धित नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भाकृअनुप-केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसन्धान संस्थान, करनाल ने सीमित जल का कुशलता से उपयोग कर बेहतर फसलोत्पादन के लिये घड़ा सिंचाई तकनीक की संस्तुति की है। इस पद्धति का नाम इसके प्रमुख घटक घड़े के नाम पर ही रखा गया है। इस प्रणाली से टमाटर की उपज में तीन गुना तथा अन्य सब्जियों में दो गुना लाभ-लागत अनुपात मिलता है। यह अत्यन्त साधारण प्रौद्योगिकी है और इस तकनीक की आर्थिकी पूर्णतः घड़ों के जीवन पर निर्भर करती है। इसके तहत धरातल पर रखे घड़ों के विपरीत दबे हुए घड़ों से पानी सीधे मृदा में जाता है और घड़ों की दीवारों से वाष्पन के जरिए जल की हानि नहीं होती है।

गेहूँ बीज उत्पादन तकनीक


स्व परागित फसल होने के कारण गेहूँ की किस्मों की गुणवत्ता में साल-दर-साल गिरावट आने लगता है। ऐसे में बीजों को 5 से 6 वर्षों के अन्तराल के बाद बदलना जरूरी हो जाता है। बाजार से हर बार नए बीज खरीदकर बोना खेती की लागत को काफी बढ़ा देता है। इसलिये किसानों के लिये यह जरूरी हो जाता है कि वे इस्तेमाल के लिये प्रजनक, सत्यापित या प्रमाणित बीज किसी सरकारी अथवा विश्वसनीय स्रोत से खरीदकर न सिर्फ इनका इस्तेमाल करें बल्कि स्वयं इनका बहुगुणन भी करें। इस प्रकार तैयार बीजों का प्रयोग वे अगले सीजन में कर सकते हैं और आकर्षक मूल्य पर इनको बेचकर अतिरिक्त लाभ भी कमा सकते हैं। इस बारे में उपयोगी जानकारी भाकृअनुप-गेहूँ अनुसन्धान निदेशालय, करनाल द्वारा प्रकाशित मार्गदर्शिका से मिल सकती है।

भारत सरकार ही नहीं विभिन्न राज्य सरकारों के कृषि अनुसन्धान से जुड़े विभाग और कृषि अनुसन्धान संस्थानों/कृषि विश्वविद्यालयों में भी कृषक समुदाय के लिये उपयोगी नई और वैज्ञानिक कृषि प्रणालियों का निरन्तर विकास किया जा रहा है। इन अद्यतन सूचनाओं तथा कृषि सम्बन्धित जानकारियों का प्रचार-प्रसार करने के लिये देश के प्रत्येक जिले (कुछ जिलों में एक से अधिक भी) में कृषि विज्ञान केन्द्रों की स्थापना की गई है। किसान भाई इनके वैज्ञानिकों से सीधे सम्पर्क कर उन्नत कृषि प्रणालियों से सम्बन्धित जानकारियाँ एवं प्रशिक्षण भी प्राप्त कर सकते हैं।

जल संग्रहण/प्रबन्धन की प्रभावी रणनीतियाँ


भारत में विश्व के मात्र 4 प्रतिशत जल संसाधन की उपलब्धता है जबकि वैश्विक आबादी का 16 प्रतिशत हिस्सा यहीं बसता है। ऐसे में जल संरक्षण और इसके दक्ष उपयोग के महत्त्व को भलीभाँति समझा जा सकता है। जल संरक्षण मोटे तौर पर तीन तरीकों से सम्भव है- वर्षाजल संरक्षण, नहरी जल प्रबन्धन और भूजल संरक्षण।

वर्षाजल संरक्षण


इसमें खेती योग्य क्षेत्र में संचित वर्षाजल के अन्तःसरण (इंफिल्ट्रेशन) में सुधार के द्वारा मृदा में जल संरक्षण को बढ़ाया जाता है। इस प्रक्रिया में 100 सेमी चौड़ी क्यारियाँ, 50 सेमी गहरे कुंड/कंटूर के साथ बनाई जाती हैं। अमूमन 5 प्रतिशत की मृदा ढलान एवं वर्षा जहाँ 350-750 मिमी होती है, उस जगह को इसके लिये चुना जाता है। कुंड के दोनों तरफ फसलों को लगाया जाता है। इसी तरह से कंटूर ट्रेंचिंग पद्धति के माध्यम से खाइयों को कृत्रिम रूप से फसल क्षेत्र में कंटूर पंक्तियों के साथ तैयार किया जाता है। यदि वर्षाजल पहाड़ी के नीचे की ओर बह रहा है तो इन खाइयों द्वारा जल को संग्रहित किया जा सकता है। बाद में यह जल मृदा की ऊपरी सतही परतों में फसल विकास एवं उपज वृद्धि के लिये अन्तःसरित हो जाता है। इसी तरह से सीढ़ीदार खेत एवं कंटूर मेड़बन्दी पद्धति के अन्तर्गत पहाड़ी ढलान को कई छोटे-छोटे ढलानों में बाँटते हैं और जल-प्रवाह को रोककर मृदा में जल अवशोषण को बढ़ा दिया जाता है। माइक्रो कैचमेंट या सूक्ष्म जलग्रहण तकनीक के जरिए बारानी क्षेत्रों से वर्षाजल को संग्रहित किया जाता है, ताकि उस क्षेत्र की मृदा में सुधार हो सके। इसके तहत मुख्यतः पेड़ों या वृक्षों को उगाया जाता है। एक्स सीटू जल संरक्षण तकनीकों में वर्षाजल अपवाह को फसल क्षेत्र से बाहर संरक्षित किया जाता है। इसके लिये खेत तालाब, चेक डैम आदि का निर्माण किया जाता है।

नहरी जल संरक्षण


नहरी सिंचाई का कुल सिंचाई में लगभग 29 प्रतिशत योगदान है। कुछ नहरें वर्ष भर सिंचाई जल उपलब्ध करवाती हैं जिससे जब भी फसलों को सिंचाई जल की जरूरत हो, तुरन्त उपलब्ध करवाया जा सकता है। इस तरह से सूखे की स्थिति से फसलों का बचाव किया जा सकता है। कहीं-कहीं पर नहरों के जल को संरक्षित रखने के लिये सहायक जल संचयन संरचनाओं का निर्माण भी किया जाता है।

भूजल प्रबन्धन


भूजल हमारे देश में सिंचाई, घरेलू एवं औद्योगिक क्षेत्रों की जल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण संसाधन है। भूजल की 91 प्रतिशत खपत कृषि कार्यों में तथा शेष 9 प्रतिशत घरेलू और औद्योगिक उपयोग में होती है। भूजल की प्राकृतिक आपूर्ति बढ़ने के लिये भूभरण अत्यन्त आवश्यक है। यह प्राकृतिक अथवा कृत्रिम तौर पर भी हो सकता है। प्राकृतिक पुनःजल आपूर्ति एक अत्यन्त ही धीमी प्रक्रिया है, इसलिये कृत्रिम पुनःभरण को भी प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत जल विस्तार, गड्ढों एवं कुओं से पुनःभरण एवं सतही जल निकायों से पम्पिंग आदि का सहारा लिया जा सकता है।

पोषक तत्वों से भरपूर खाद्यान्न किस्में


देश में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा निरन्तर पोषक तत्वों से भरपूर नई खाद्यान्न किस्मों का विकास किया जा रहा है। इनमें हाल ही में तैयार भारत की पहली जैव सम्पूरित गेहूँ किस्म डब्ल्यूबी-2 का नाम उल्लेखनीय है। इसमें जस्ते की मात्रा 42 पीपीएम है जोकि अन्य प्रचलित किस्मों की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक है। इसके अतिरिक्त इसमें लौह तत्व 40 पीपीएम हैं जो अन्य किस्मों की अपेक्षा 5 प्रतिशत अधिक हैं। उच्च प्रोटीन (12.4 प्रतिशत) और श्रेष्ठ चपाती गुणों वाली यह किस्म पोषण सुरक्षा की दृष्टि से काफी उपयोगी कही जा सकती है। धान की पहली जिंक से समृद्ध बायो फोर्टिफाइड किस्म डीआरआर धान-45 में 22.6 पीपीएम मात्रा में जिंक की उपस्थिति पाई गई है।

अनाज की अन्य प्रमुख पोषक तत्वों से परिपूर्ण किस्मों में मक्का की पूसा विवेक क्यूपीएम 9 उन्नत की उपयोगिता भी कुछ कम नहीं है। इसमें विटामिन ‘ए’ और उच्च मात्रा में ट्रिप्टोफेन एवं लाइसिन की मात्रा पाई जाती है। इसी प्रकार बाजरा की एचएचबी-299 किस्म का नाम लिया जा सकता है जिसमें लौह तत्व और जस्ते की उच्च मात्रा पाई जाती है। अनाज और दलहन के बाद कंदीय फसलें तीसरा महत्त्वपूर्ण आहार स्रोत हैं। विश्व-स्तर पर प्रत्येक पाँच में से एक व्यक्ति का मुख्य भोज्य आहार कंदीय फसलें हैं। ये फसलें भुखमरी की चुनौती का सामना करने तथा खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने की दृष्टि से पोषक तत्वों का खजाना हैं। उदाहरण के लिये शकरकंद की हाल ही में विकसित भू सोना किस्म विटामिन ‘ए’ के साथ उच्च ऊर्जा, विटामिन ‘बी’, ‘सी’, ‘के’ फास्फोरस एवं पोटैशियम से भी भरपूर है। विटामिन ‘ए’ की कमी से पीड़ित लोगों के लिये शकरकंद की यह किस्म किसी वरदान से कम नहीं है।

इसी प्रकार शकरकंद की भ-कृष्णा किस्म भी काफी महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है जिसमें एंथोसायनिन एवं फ्लेवनायड यौगिक ऑक्सीकरण रोधी गुण वाले होते हैं और ये तत्व शरीर में कैंसर की प्रतिरोधता को बढ़ाने में मददगार हैं। कसावा या टैपियोका में आलू से लगभग दोगुनी मात्रा में कैलोरी पाई जाती है। कसावा की श्री स्वर्णा किस्म में बीटा कैरोटीन पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।

लेखक परिचय


अशोक सिंह(लेखक भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हिन्दी मासिक कृषि पत्रिका ‘खेती’ के सम्पादक हैं।)

ईमेल : ashok-singh-32@gmail.com


TAGS

agricultural productivity in india, factors affecting agricultural productivity, measuring agricultural productivity in hindi, how to increase agricultural productivity in hindi, agricultural productivity by country, causes of low agricultural productivity in india, agricultural productivity measured in terms of, how to increase income of farmers in hindi, ways to increase agricultural production in hindi, agricultural productivity in hindi, few ways how indian farmers can increase their output and income, agriculture in hindi, methods to increase crop production in hindi, agricultural productivity in india, causes of low agricultural productivity in india, Low cost techniques to increase agricultural income, How agriculture can be improved?, What is the production of agriculture?, What are the agricultural inputs?, What are the factors that affect agricultural production?, How can we increase our food production?, What are the modern methods of farming?, What is the meaning of output in agriculture?, What is an agricultural produce?, What are the inputs of a farm?, How does rainfall affect agricultural production?, What are the factors that affect crop production?, How can we help in food insecurity?, Why is food security is important?, What are the different methods of farming?, What are the traditional methods of farming?, Which country has the most food supply?, What is the importance of agriculture?, What are the three main types of agriculture?, What are the three branches of agriculture?, What are the inputs outputs and processes of a farm?, What is a farm laborer?, What are some of the effects of heavy rainfall?, What are the effects of the rain?, How does the temperature affect the growth of the plant?, What environmental factors affect plant growth?.


Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading