कृषि क्षेत्र का विस्तार जरूरी है

राज्य का गठन हुए अब दस वर्ष पूरे हो गये हैं। मगर अब पलायन पहले के किसी भी समय से ज्यादा हो रहा है। पहाड़ में घर के घर खाली हो रहे हैं और जमीनें बंजर पड़ रही हैं। कृषि क्षेत्र की घोर उपेक्षा ने यह स्थिति पैदा की है। राज्य की कुल आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है, जो अपनी आजीविका के लिये परम्परागत रूप से कृषि पर निर्भर है। ऐसे में कृषि क्षेत्र को रोजगार और आजीविका के मुख्य आकर्षण के रूप में चुनने के बजाय उत्तराखण्ड की सरकारें चन्द सरकारी नौकरियों और सिडकुल जैसे एक-दो औद्यौगिक केन्द्रों को विकसित कर क्या राज्य की इस 75 प्रतिशत आबादी को रोजगार दे पायेगी ? अंग्रेजी शासन से लेकर आज तक यहाँ कृषि क्षेत्र पर हमले लगातार तेज होते रहे हैं। कभी कृषि, पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी पर आत्मनिर्भर यहाँ की अर्थव्यवस्था को इन सरकारों ने तहस-नहस कर दिया है। सन् 1823 के बन्दोबस्त के समय पहाड़ के लोग कुल भूमि के बीस प्रतिशत हिस्से पर खेती करते थे। आजादी के बाद सन् 1958 से 64 के बीच हुए अन्तिम बन्दोबस्त के बाद पहाड़ के कृषकों के पास मात्र नौ प्रतिशत ही कृषि भूमि बची रही। यानी 140 वर्षो में पहाड़ के किसानो की 55 प्रतिशत कृषि भूमि छीनी जा चुकी थी। पहाड़ में कृषि भूमि पर यह राजकीय हमला आजादी के बाद भी जारी रहा, जो राज्य बनने के बाद राजकीय संरक्षण में भूमि हड़प अभियान में बदल चुका है। आज पहाड़ में 6 प्रतिशत से भी कम कृषि भूमि बची है और विकास का यही मॉडल अगर आगे भी चलता रहा तो आने वाले 20 वर्षो में यह चार प्रतिशत ही रह जायेगी।

वनों पर पूरी तरह से आश्रित पहाड़ की कृषि पर इस हमले की शुरूआत अंग्रेजों ने सन् 1865 में वन विभाग की स्थापना करके की। 1893 में एक शासनादेश के माध्यम से समस्त बंजर, बेनाप, परती, चरागाह, नदी, पोखर आदि श्रेणी की जमीनों को रक्षित वन भूमि घोषित कर दिया। अलग राज्य बनने के बाद भी यह शासनादेश ज्यों का त्यों लागू है। आजादी के बाद जब उ.प्र. जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून में ग्राम पंचायतों को उनकी सीमा की बंजर, परती, चरागाह, नदी, पोखर, तालाब आदि श्रेणी की जमीनों के प्रबन्ध व वितरण का अधिकार दिया गया तो पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इस अधिकार से वंचित करने के लिये सन् 1960 में ‘कुमाऊँ उत्तराखण्ड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून’ (कूजा एक्ट) ले आया गया। यही कारण है कि जहाँ पूरे देश में ग्राम पंचायतों के अन्दर भूमि प्रबन्ध कमेटी का प्रावधान है, पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इससे वंचित रखा गया है। इसके बाद सन् 1976 में लाये गये वृक्ष संरक्षण कानून ने पहाड़ के किसानों को अपने खेत में उगाये गये वृक्ष के दोहन से तक रोक दिया, जबकि पहाड़ का किसान वृक्षों का व्यावसायिक उपयोग कर अपनी आजीविका चला सकता था। इसके बाद सन् 1980 में आये वन अधिनियम और संशेाधित वन अधिनियम 2002 (उत्तरांचल) तथा वन पंचायत नियमावली 2005-06 के जरिये वनों, बेनाप भूमि व वन पंचायतों से जनता के सभी बचे-खुचे अधिकार भी छीन लिए गये। यही नहीं, ग्राम पंचायतों के पास अपनी कोई भूमि न होने कारण विकास के नाम पर बन रहे स्कूल, कालेज, अस्पताल, तकनीकी शिक्षा संस्थान, विद्युत विभाग के भवन, क्रीड़ा स्थल, पंचायत भवन जैसी इमारतों के लिए सम्बन्धित विभागों को निःशुल्क कृषि भूमि देने की हमारी सरकारों की नीति ने इस बची-खुची कृषि भूमि को भी हड़पने का अभियान जारी रखा है। ऊर्जा प्रदेश के नाम पर हमारी उपजाऊ नदी-घाटी की जमीनों से जनता को बेदखल किया जा रहा है।

अकेले टिहरी बाँध ने पहाड़ की कुल कृषि भूमि का 1.10 प्रतिशत हिस्सा निगल लिया है। पर्यटन विकास के नाम पर ईको टूरिज्म क्षेत्रों को विकसित करने पर ऐसे क्षेत्रों से सैकड़ों गाँवो को हटाने का षड़यंत्र रचा जा रहा है। राज्य के तराई क्षेत्र, जहाँ थारू-बोक्सा जैसी जनजातियों की जमीनें उनके हाथ से निकल चुकी हैं, में उद्योगों व सेज-सिडकुल के लिये सबसे उपजाऊ कृषि भूमि को कौड़ियों के भाव उद्योगपतियों को सौंपा जा रहा है। तराई में सीलिंग कानून को ठेंगा दिखाते बडे़ फार्मर आज भी हजारों एकड़ जमीन के मालिक बने बैठे हैं। मगर आपदापीड़ितों के लिये सरकार जमीन नहीं तलाश पा रही है। राज्य में कृषि के विकास के लिये नया भूमि बन्दोबस्त, पर्वतीय किसानों के उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और उसके खरीद की गारण्टी, पहाड़ में व्यावसायिक खेती के प्रोत्साहन के लिये अनिवार्य चकबन्दी, तहसील स्तर पर छोटी मण्डियों व कोल्ड स्टोरेज की स्थापना तथा पहाड़ के किसानों को ट्रांसपोर्ट में सब्सिडी जैसे बुनियादी ढाँचे में पूँजी निवेश हमारी सरकारों के एजेण्डे में आज तक नहीं है।

अगर उत्तराखण्ड में रोजगार के अवसर बढ़ाने हैं तो कृषि क्षेत्र का विस्तार, अनिवार्य चकबन्दी और कृषि में ढाँचागत बदलाव के लिए राज्य द्वारा निवेश को प्राथमिकता में लाना होगा। मगर उस शासक वर्ग से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती, जो पहाड़ व उत्तराखण्ड की कृषि की कीमत पर भूमि हड़प अभियान और साम्राज्यवाद की दलाली के लिए हिमालयन नीति का राग अलाप रहा हो।

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