कृषि में प्रबुद्ध समाज की पहल

21 Jan 2020
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कृषि में प्रबुद्ध समाज की पहल
कृषि में प्रबुद्ध समाज की पहल

किसान खेती की तकनीकों में सुधार लाने और अपनी आजीविका तथा आय बढ़ाने के लिए आज कई संधारणीय पहल कर रहे हैं। यह एक नया प्रयास है क्योंकि सरकार आमतौर पर कृषि विस्तार पर ध्यान देती है और सर्वश्रेष्ठ कृषि के तरीकों के मानक विकास के लिए प्रौद्योगिकी प्रसार तथा जागरूकता पैदा करने में अक्सर निजी भागीदारी नहीं हो पाती है। सरकार ने भी कृषि विकास के इस बदलते परिदृश्य को एक तरह से मान्यता दे दी है। वर्ष 2019 में 12 ऐसे अग्रणी किसानों को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जाना यही दर्शाता है।

कृषि में नवाचार

विकसित और विकासशील दोनो देशों के अनुभव बताते हैं कि कारखाने के श्रमिकों और कर्मचारियों जैसे प्रौद्योगिकी के उपयोगकर्ताओं के नवाचारों ने प्रौद्योगिकी और उत्पादकता में सुधार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी प्रकार किसान भी नवाचार के माध्यम से कृषि विकास में योगदान दे सकते हैं। कुछ पुरुस्कार विजेताओं की उपलब्धियां इस अवधारणा की पुष्टि करती हैं। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किसान, वल्लभभाई वासरामभाई मारवानिया, गुजरात के जूनागढ़ में 1940 के अंत से गाजर की खेती में नवाचार कर रहे हैं। इसके बाद, उन्होंने बेहतर उत्पादकता और उत्पादों के आकार के लिए, दशकों तक प्रयोग कर ‘मुधुवन-गाजर’ विकसित की। यह किस्म प्रसंस्करण के लिए भी उपयोगी है। राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान ने इस किस्म का परीक्षण किया और इसकी खेती की सिफारिश की। यह गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में काफी लोकप्रिय है।

राजस्थान के जगदीश प्रसाद पारिख ने 1970 से फूलगोभी के साथ प्रयोग करते हुए बेहतर आकार और गुणवत्ता वाली ‘अजिता नगर सिलेक्शन’ किस्म विकसित की। इसे उगाने में बहुत कम रसायनों के इस्तेमाल की आवश्यकता होती है और यह लू को भी सहन कर सकती है।

नवाचार की परिभाषा के अनुसार ऐसे नए उत्पादों तथा सेवाओं का विकास करना है जिन्हें क्षेत्र विशेष में अब तक नहीं अपनाया गया है। अन्य पुरस्कार विजेताओं ने भी फसलों को उगाने में नवीनतम विधियों का इस्तेमाल शुरू किया। उत्तर प्रदेश के बारबंकी के राम सरन वर्मा ने 1988 में टिशु-कल्चर केले की खेती की ओर रुख किया और टिशु कल्चर की मदद से केले के सर्वोत्तम पौधे से अंकुर का विकास कर हर साल बेहतर फसल उगाई। सुलतान सिंह ने हरियाणा के करनाल में पानी के सीमित इस्तेमाल से प्रतिकूल जलवायु में मछली पालन के लिए, पुनः परिसंचारी जलीय कृषि प्रणालियों का इस्तेमाल करके दिखाया। एक और नवाचार हरियाणा में पानीपत के नरेन्द्र सिंह ने डेयरी फार्म प्रबंधन में किया।

रसायनों का कम से कम इस्तेमाल

पुरस्कार विजेताओं में से कई ने रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम करने और कृषि के जैविक तरीके अपनाने पर ध्यान केन्द्रित किया है। इनमें शामिल हैं- हैदराबाद से यदलापल्ली वेंकटेश्वर राव, उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर से भारत भूषण त्यागी, राजस्थान में झालावाड़ से हुकुमचंद पाटीदार, ओडिशा में कोरापुर से कमाला पुजारी और बिहार में मुजफ्फरपुर से राजकुमारी देवी (किसान चाची)। ये लोग किसानों को कृषि की सर्वोत्तम पद्धतियों और फसलों की स्थानीय किस्मों को संरक्षित करने के तरीकों के बारे में प्रशिक्षण भी आयोजित करते हैं। उदाहरण के लिए, ओडिशा से कमला पुजारी धान, हल्दी तथा तिल और मध्य प्रदेश के बाबूलाल दहिया धान उगाने के बारे में प्रशिक्षण देते हैं।

उन्होंने बीच की फसल (उत्तर प्रदेश में भारत भूषण और गुजरात में वी.वी. मरवानिया) और बारी-बारी से फसल उगाने (उत्तर प्रदेश में आर.एस.वर्मा) की बेहतर कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिए अपने साथी किसानों को प्रोत्साहित किया। कंवल सिंह ने हरियाणा में बेबीकॉर्न उत्पादकों के लिए एक उत्पादक संगठन का गठन किया और राजकुमारी ने सर्वोत्तम कृषि पद्धतियों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए महिलाओं के स्व सहायता समूहों का गठन किया। उत्तर प्रदेश में आर.एस.वर्मा ने सहकारी कृषि की खूबियों का प्रदर्शन किया। इनमें से लगभग सभी अग्रणी किसान कृषि पद्धतियों में सुधार के साथ-साथ विविधीकरण और आधुनिकीकरण के लिए साथी किसानों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।

कृषि का विविधीकरण

इन पुरस्कार पाने वालों में से कुछ ने खेती के पारम्परिक प्रतिमानों को छोड़कर, विविधीकरण के माध्यम से आजीविका के बेहतर विकल्पों के साथ-साथ ग्रामीण युवाओं के लिए रोजगार के पैदा करने की दिशा में कदम बढ़ाया। केवल तम्बाकू की खेती करने वाली राजकुमारी ने खाद्य फसलें उगानी शुरू की और मिट्टी, मूल्यवर्द्धन तथा विपणन की जानकारी के साथ भू क्षेत्र के अनुरूप खेती के अभिनव तरीके अपनाने का प्रयोग किया।

इसी तरह, हरियाणा के सोनीपत के कंवल सिंह ने 1997 में गेहूँ और धान के स्थान पर बेबीकॉर्न की खेती शुरू की जिससे उन्हें अधिक मुनाफा हुआ। उनसे प्रेरणा लेकर 5000 से अदिक किसानों ने बेबीकॉर्न और बाद में मशरूम की खेती शुरू की। उन्होंने एक सोसायटी बनाई और फिर 1.5 करोड़ रुपए के निवेश के साथ अपना स्वयं का बेबीकॉर्न प्रसंस्करण संयंत्र लगाया। इस प्रक्रिया में, उन्होंने क्षेत्र में नौकरियों के कई अवसर पैदा किए। उनका विचार, इस प्रक्रिया को 116 जिलों के 150 गाँवों में शुरू करने और उन्हें कृषि क्लस्टर के रूप में विकसित करने का है। कंवल सिंह और राम शरण वर्मा दोनों ही किसानों को कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों में उन्नत प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल का प्रशिक्षण दे रहे हैं। इसके अलावा, हरियाणा के पानीपत में नरेन्द्र सिंह पशु पालन और डेयरी फार्म प्रबंधन के सर्वोत्तम तरीकों का प्रदर्शन करते हैं। कर्नाटक के रामनगर के हुलीकल गांव के आस-पास का रेगिस्तान जैसा इलाका, सालूमारदा थिमक्का के समर्पित प्रयासों से 8000 से अधिक पेड़ उगाने से हरित क्षेत्र में बदल गया है।

उपभोग के तौर-तरीकों में बदलाव

तेलगांना और आंध्र प्रदेश राज्यों में मोटे अनाजों के लाभकारी पोषण प्रभावों के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए यदलापल्ली वेंकटेश्वर राव के प्रयासों से उपभोग में तौर-तरीकों में बदलाव आ रहा है। चूंकि प्राथमिकता में बदलाव कर खाद्य सुरक्षा की बजाए पोषण सुरक्षा पर जोर देने पर, नीति निर्माताओं का ध्यान सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे कि मोटे अनाजों और दालों की ओर बढ़ रहा है, जिन्हें अक्सर ‘अनाथ फसल’ कहा जाता है। भारत सरकार ने इन खाद्यान्नों की खेती और खपत को बढ़ावा देने के लिए 2018 को मोटे अनाजों को बढ़ावा देने का राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया। सरकार ने 2018 में पोषक तत्वों अनाज के रूप में सोरघम, रागी, ज्वार और लघु बाजरा जैसे मोटे अनाजों को फिर से नामित किया है। यह सब संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के तहत पोषण पर कार्यवाही दशक (2016-25) में किया गया है।

सरकार के इन प्रयासों से प्रबुद्ध समाज के उपभोग के तौर-तरीकों में तेजी से बदलाव आया है। राव और उनके सहयोगी खादर वली इस क्षेत्र में घर-घर में जाने जाते हैं और उन्होंने लोगों को भूरे बाजरा और अन्य मोटे अनाज खाने के लिए प्रेरित किया है। इन खाद्य पदार्थों के खाने के लाभों के बारे में बड़ा चढ़ाकर भी बताया जाता है। मोटे अनाज के बारे में भी कुछ ऐसा ही होने से इनकी मांग बढ़ने से अक्सर इनकी कीमतों में भारी वृद्धि होती है।

हालांकि कर्नाटक में गौण मोटे अनाजों की खपत फिर से शुरू हो गई है, आंध्र प्रदेश और तेलगांना में इनकी मांग उच्च मध्यम वर्गों से ऊपर के स्तर के लोगों तक भी हो गई है, लेकिन यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि इस तेजी का कितना फायदा किसान-उत्पादकों को हो सकता है। आर्थिक तर्क से पता चलता है कि यदि कीमतें आसमान छू रही हैं, तो आपूर्ति मांग को पूरा करने में असमर्थ होती है। इन खाद्यान्नों के लिए मूल्य श्रृखलाओं से गरीब किसानों को फायदा पहुँचाना होगा जो पर्यावरणीय रूप से निम्न कोटि की भूमि और क्षेत्रों में इन्हें उगा रहे हैं।

मोटे अनाज की उत्पादकता बढ़ाने के लिए अनुसंधान किए जाने चाहिए, क्योंकि साठ के दशक से ही इनका उत्पादन स्थिर बना हुआ है। 1950 के दशक के पहले चार वर्षों में गेहूँ (772 किलोग्राम/ हेक्टेयर) और चावल (724 किलोग्राम/हेक्टेयर की उत्पादकता ज्वार और बाजरा के समान थी। गेहूँ और चावल की पैदावार तब से अब तक चार गुना हो गई है, जबकि ज्वार तथा बाजरे का उत्पादन केवल दोगुना ही हो पाया है। मोटे अनाजों के उत्पादन के तो आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए मोटे अनाज उगाने वाले किसानों को भी अन्य किसानों के बराबर रखने के लिए विकास समुदाय जिसमें प्रबुद्ध समाज, शोधकर्ता और सरकार शामिल है, के सामने एक बड़ा कार्य है।

छत पर बागवानी के जरिए कृषि

सुरक्षित भोजन के प्रति शहरी आबादी के बीच स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता और बढ़ती आबादी की मांग को पूरा करने के लिए उत्पादन तथा मांग के बीच, मांग-आपूर्ति के अन्तर को पाटने के लिए, शहरी कृषि विधियों का उपयोग करके यथासम्भव उत्पादन करने की जरूरत है। शहरी कृषि में सबसे महत्त्वपूर्ण छत पर बागवानी है। इससे अप्रयुक्त खुले स्थानों का उपयोग करते हुए वातावरण में कार्बन कम करने के अलावा, परिवार के लिए भोजन भी प्राप्त होता है। कई देशों विशेष रूप से जनसंख्या की बहुलता वाले चीन और स्वास्थ्य के प्रति सजग यूरोप में शहरी कृषि में तेजी से प्रगति हुई है। भारत में, कुछ स्टार्टअप ने अपने व्यवसाय के लाभ के साथ-साथ संधारणीय शहरी कृषि के लिए इस क्षेत्र में प्रवेश किया है। हालांकि बहुत सारे शौकीन और किसान परिवार मित्र हैं जो अपना रहे हैं लेकिन न तो सरकारों और न ही गैर-लाभकारी संगठनों ने इस प्रक्रिया की पूरी क्षमता या आवश्यकता को पहचाना है।

पद्मश्री से सम्मानित इन अग्रणी किसानों गतिविधियों को कृषि विस्तार के चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में देश के विभिन्न हिस्सों में उभरती हुई निजी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। प्रौद्योगिकी, अंतरण, जैविक खेती, विविधिकरण, पोषण सुरक्षा के लिए मांग के तरीकों में बदलाव और शहरी कृषि जैसे नए उपाय करने में कृषक समुदाय से अच्छी प्रतिक्रिया और अग्रणी किसानों के अभिनव प्रयास सामान्य रूप से देश की कृषि और विशेष रूप से किसानों की आय को बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। आम जनता की कल्याणकारी जरूरतों के लिए ये निजी प्रयास शुरू किए जाने चाहिए और कृषि के लिए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए ताकि विविध कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों के अनुरूप अच्छी कृषि पद्धतियों को अपनाया जा सके। जब प्रमुख चुनौतियों के समाधान के लिए सरकारी और अर्ध सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर काम किया जाता तो प्रयासों के बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे। दूसरी ओर, नीति निर्माता सफल निजी पहलों को मान्यता देकर और अपनी गतिविधियों को मुख्यधारा में लेकर व्यापक विकास में अपने प्रयासों के समावेशन के लिए अच्छा काम कर सकते हैं। कृषि विकास में कृषक समुदाय को शामिल करने की व्यापक संभावनाएं हैं और लोगों ने ऐसा करना शुरू कर दिया है। यह वह समय है जब विकास के मुद्दे का नियोजन के परिदृश्य में एक घटक मानने की आवश्यकता है।

सन्दर्भ

1. फ्रीमैन, क्रिस। (1994)। क्रिटिकल सर्वेः द इकॉनोमिक्स ऑफ टेक्नीकलक चेंज, कैंब्रिज जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स, 18:463-5141।

2. राव, एन.चन्द्रशेखर, सूत्रधार, राजीव और रियरडन, थॉमस। (2017)। डिस्रप्टिव इनोवेशन इन फूड वैल्यू चेन्स एण्ड स्माल फॉर्मर्स इन इडिया, इंडियन जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल इकॉनोमिक्स 72 (1): 24-481 21-23 नवम्बर, 2016 के दौरान असम कृषि विश्वविद्यालय, जोरहाट में आयोजित भारतीय कृषि अर्थशास्त्र सोसायटी के 76 वें वार्षिक सम्मेलन में दिया गया मुख्य भाषण।

3. कुलकर्णी, विश्वनाथ। (2018)। हरित क्रान्ति से लेकर बाजरा क्रान्ति, द हिन्दू बिजनेस लाइन, 26 मार्च, के वी कुरनाथ और शोभा रॉय https://www.thehindubusinessline.com/specials/india.file/from-green-revolution-to-millet-revolution/article23356997.ece.

4. डे, सोहिनी (2018) द मिल्लैट राइजिज, लिव मिन्ट, 13 अक्टूबर, https://www.livemint.com/Leisure/cvaXsjdfTHbxX-aK0yViQFJ/The-millet-rises-html

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