कृषि पर बढ़ेगी चाल

29 Jul 2016
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विकसित देशों का पूरा रवैया आत्मकेंद्रित और अत्यन्त स्वार्थपरक है। कृषि नीतियों में दोमुँही व्यवस्था बनाकर वे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। इससे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था तो चौपट हो ही रही है वहाँ की कृषि और कृषक दोनों पर खतरा मंडरा रहा है। विकसित देश सामान्यता मुक्त व्यापार के गुणगान करते और संरक्षणवाद के पाप गिनाते रहते हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि अनेक विकसित देश दोहरे मापदंड अपना रहे हैं। जिन क्षेत्रों में वे मजबूत हैं वहाँ पर मुक्त व्यापार पर जोर देते हैं और जहाँ कमजोर हैं वहाँ संरक्षणवादी रवैया अपनाते हैं। सबसे बद्तर स्थिति यह है कि वह एक ही क्षेत्र में इस तरह से नियम बनाते हैं जिसकी बदौलत विकासशील देशों पर उदारवाद थोप दिया जाता है। परंतु स्वयं उन्हें अत्यधिक संरक्षण की अनुमति प्राप्त हो जाती है। इसका एक असाधारण उदाहरण ‘कृषि’ है जिसमें अमीर देश प्रतिस्पर्धात्मक नहीं हैं। यदि इस क्षेत्र में ‘मुक्त व्यापार’ को प्रचलन में लाया जाए तो वैश्विक कृषि व्यापार का बड़ा हिस्सा अधिक कार्यकुशल विकासशील देशों के प्रभुत्व में होता। परंतु आज तक कृषि व्यापार पर महत्त्वपूर्ण विकसित देशों का प्रभुत्व बना हुआ है।

अनेक दशकों से उन्हें कृषि हेतु व्यापार उदारीकरण नियमों से छूट मिल रही। सन 1995 में विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टीओ) के गठन के साथ ही यह छूट समाप्त हो जानी चाहिए थी। इसके अलावा यह उम्मीद की जा रही थी कि अमीर देश अपनी कृषि को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिये खोल देंगे। परंतु वास्तविकता यह है कि डब्लू टीओ कृषि समझौते के अन्तर्गत उन्हें अत्यधिक सीमा-शुल्क लगाने और उच्च सब्सिडी दोनों की अनुमति मिली हुई है। इन सब्सिडी के माध्यम से वहाँ के किसान अपने उत्पाद कम कीमत में बेचने में सक्षम हो जाते हैं। यह मूल्य अक्सर लागत से भी कम होता है। इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त मात्रा में राजस्व (जिसमें सब्सिडी भी शामिल है) प्राप्त हो जाता है और वे कृषि व्यापार में बने रहते हैं।

विकासशील देशों पर इसके चार नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। पहला, ऐसा देश जोकि कृषि के संदर्भ में प्रतिस्पर्धा होते हैं, वह भी अमीर देशों के बाजार में पैठ नहीं बना पाते। दूसरा, विकासशील देशों को विश्व के अन्य बाजारों से भी हाथ धोना पड़ता है। क्योंकि वे वही कृषि उत्पादन कृत्रिम सस्ते मूल्यों पर निर्यात करते हैं। तीसरा, उत्पाद के सस्ता निर्यात करने की वजह से विकसित देश प्रतिस्पर्धा स्थानापन्न उत्पाद की मांग भी कम कर देते हैं। जैसे अमेरिका द्वारा सोयाबीन पर सब्सिडी देने से सोयाबीन का तेल सस्ता हो जाता है। यदि ऐसा नहीं हो तो मलेशिया और इण्डोनेशिया के पाम तेल को ज्यादा बड़ा बाजार उपलब्ध हो सकता है। चौथा, इन सस्ते उत्पादों (जैसे अमेरिका और यूरोप से चिकन) ने तमाम विकासशील देशों में प्रवेश पा लिया है जिसके परिणामस्वरूप वहाँ के स्थानीय किसानों की आजीविका संकट में पड़ गई है।

सन 2001 में डब्लू टीओ ने दोहा विकास एजेंडा जारी किया जिसका मुख्य लक्ष्य था विकसित देशों के कृषि क्षेत्र को मुक्त करवाना। अनेक वर्षों तक ऊर्जा लगाकर ऐसी प्रणाली विकासित की गई जिसके माध्यम से कृषि व्यापार को मुक्त बनाया जा सके। इतना ही नहीं इस पर व्यापक सहमति भी बन गई थी। परंतु यूरोप की शह पर अमेरिका ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि दोहा राउंड (दौर) को किसी निष्कर्ष पर ले जाने में उसकी कोई रूचि नहीं है। भविष्य में डब्लू टीओ के समझौते नए आधार पर होंगे और वह वर्तमान दस्तावेजों पर आधारित नहीं होंगे। क्रिस हॉर्समेन ने अपने एक लेख में विश्लेषण किया है कि क्यों अमेरिका वर्तमान दस्तावेजों को स्वीकार नहीं कर रहा है। एक तरह की सब्सिडी की अधिकतम सीमा घटाने (डी मिनिमस) से अमेरिका को बिना अनुमति वाली सब्सिडी (ए एम एस) में 58 प्रतिशत तक का वृद्धि करना होगा।

इससे पता चल जाता है कि अमेरिका वर्तमान कर तालिका से क्यों बचना चाहता है और क्यों नए तरह से समझौते पर पहुँचना चाहता है। अमेरिका की शक्तिशाली कृषि लॉबी की वजह से वह दोहा दौर में जो घरेलू सब्सिडी की नई सीमा तय की गई थी। उससे संबंधित अपनी घरेलू नीति (जो कि सन 2014 के कृषि कानून में निहित है) में परिवर्तन नहीं कर सकता। इसी लेख में बताया गया कि किस तरह यूरोपियन यूनियन ने डब्लू टीओ नियमों के बेहतर अनुपालन हेतु उपलब्ध कराई जा रही सब्सिडी के प्रकार में परिवर्तन किया है। इसमें यूरोपियन यूनियन देशों को सन 2004 से 2013 के मध्य अपनी घरेलू सब्सिडी को 80 अरब यूरो (91 अरब डॉलर) तक सीमित करने की बात कही गई है।

डब्लू टीओ गठन के दो दशक पश्चात भी अमीर देशों ने कृषि संरक्षण का उच्च-स्तर कायम कर रखा है। इस बात की बहुत ही कम संभावना है कि वे अपनी व्यापार प्रणाली में व्यापक फेरबदल लाएँ। क्योंकि बड़े स्तर पर सब्सिडी में कमी से उनकी कृषि व्यवहार्य नहीं रह पाएगी। दूसरी ओर गरीब देशों के पास इतना धन नहीं है कि वह अमीर देशों द्वारा दी जा रही सब्सिडी का मुकाबला कर सकें। यदि वे अपने देश के किसानों और खाद्य सुरक्षा को बचाना चाहते हैं तो उन्हें अपने यहाँ सीमा-शुल्क को उस स्तर तक ले जाना होगा जिससे कि सब्सिडी वाले सस्ते उत्पाद देश में प्रविष्ठ ही न हो सकें। परंतु जिन विकासशील देशों ने अमेरिका और यूरोपीय यूनियन (संघ) के साथ मुक्त व्यापार समझौते कर लिए हैं उन्हें अपने यहाँ सीमा शुल्क या तो शून्य पर लाना होगा या अत्यन्त कम दर पर लगाना होगा। विकासशील देशों के आग्रह पर कृषि सब्सिडी को मुक्त व्यापार समझौतों की कार्यसूची से बाहर रखा गया है।

इसके अलावा अमेरिका और यूरोपीय संघ कई अन्य क्षेत्रों में भी विकासशील देशों के विरुद्ध संरक्षणवादी कदम उठा रहे हैं। उदाहरण के लिये अमेरिका ने सफलतापूर्वक डब्लू टीओ में भारत के खिलाफ मामला दायर कर दिया है कि भारत का राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन में घरेलू उत्पाद जैसे सोलर सेल एवं मॉडल्स की अनिवार्यता के माध्यम से स्थानीय फर्मों की मदद कर रहा है। इस तरह की आपत्तियों से भारत एवं अन्य विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटना कठिन हो जाएगा। हाल ही में यूरोपीय संसद ने चीन को डब्लू टीओ में एक बाजार अर्थव्यवस्था का दर्जा देने से इंकार कर दिया। हालाँकि डब्लू टीओ चीन द्वारा सन 2001 सदस्यता ले लेने के 15 वर्ष पश्चात उसे बाजार अर्थव्यवस्था के रूप में मान्यता दे चुका है। चीन को यह दर्जा देने से इंकार करने के बाद अन्य देशों के लिये यह आसान हो जाएगा कि वह चीन के खिलाफ एंटीडंपिंग के मामले उठा सकेंगे। और चीन के निर्यात पर अधिक सीमाशुल्क ठोक सकेंगे।

हालाँकि चीन और भारत इसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। भारत ने मई में घोषणा कर दी है कि वह अमेरिका के खिलाफ 16 मामले लगाएगा जिसमें उसने डब्लू टी ओ के नियमों की अवहेलना करते हुए अपने नवीकरण ऊर्जा कार्यक्रम के अन्तर्गत सब्सिडी उपलब्ध करवाई है। वैसे चीन अमेरिका के खिलाफ डब्लू टी ओ में एक मामला जीत भी चुका है जिसमें अमेरिका ने गलत तरीके से 15 चीनी उत्पादों जिसमें सौर पैनल, स्टील सिंक एवं थर्मल पेपर शामिल थे, पर बराबरी का शुल्क लगाया था। परंतु अमेरिका ने निर्णय का पालन नहीं किया। अब चीन डब्लू टी ओ में कार्यवाही कर रहा है जिससे कि अमेरिका निर्णय का पालन करने को बाध्य हो।

यह असंभव प्रतीत हो रहा है कि अमीर देश अपनी कृषि पर अत्यन्त संरक्षणवादी रुख में कमी करेंगे। साथ ही यह भी प्रतीत हो रहा है कि वे विकासशील देशों के उत्पाद अथवा नीतियों के खिलाफ संरक्षणवादी रुख अपनाए रखेंगे। यह वास्तविकता है कि मुक्त व्यापार को व्यवहार में लाने और बड़बोलेपन में बहुत बड़ी खाई है।

श्री मार्टिन खोर जेनेवा स्थित साउथ सेन्टर के कार्यकारी निदेशक हैं।

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