कृषि पर मनरेगा की चोट

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने पायलट आधार पर कृषि विज्ञान केन्द्रों के जरिए प्रौद्योगिकी के हस्तक्षेप के लिए 50 जिलों को चिन्हित किया था। इसमें जल पुनर्भरण, तालाबों की खुदाई, छतों से बहकर आने वाली बरसाती पानी को एकत्रित करना और परम्परागत जल इकाइयों का नवाचार आदि शामिल था। इन क्रियाकलापों की निश्चित ही खेती में जरूरत है, लेकिन यह विश्वास किया जाता है कि कृषिजनित व्यापार उद्योग के दबाव के चलते इस निर्णायक निर्णय को लटका कर रखा गया है।

हालांकि केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के इस आरोप का खंडन किया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के चलते खेती के कार्यों में मजदूरों की कमी हो गई है, लेकिन खेतिहर मजदूरों की कमी खेती के आधार पर प्रहार कर रही है। पूरे देश में खेतिहर मजदूरों का अभाव इन दिनों चरम पर है। बुवाई और फसल कटने के महत्वपूर्ण काल में इनकी कमी न केवल उत्पादन पर असर डाल रही है, बल्कि इसकी वजह से छोटे किसान खेती से नाता तोड़ने लगे हैं। जयराम रमेश का कहना था, 'इस योजना से कृषि मजदूरी में इजाफा हुआ है, देश के कुछ भागों में मजदूरों में बाहर जाने का तनाव कम हुआ है और सामुदायिक सम्पत्ति का सृजन हुआ है, विशेषकर जल संरक्षण के ढांचे खड़े हुए हैं। निश्चित रूप से इसमें सुधार की गुंजाइश है।' यह बात एक हद तक सही है, लेकिन वास्तव में मनरेगा (जिसे ग्रामीण गरीबी को खत्म करने के लिए तैयार किया गया था) कृषि आधार पर प्रहार कर रहा है।

हालांकि, खेतिहर मजदूरों की कमी कृषि जनित व्यापार उद्योग के लिए एक अच्छी खबर है। ऐसी खबरें है कि देश के विभिन्न भागों में रासायनिक खर-पतवार नाशकों की बिक्री बढ़ रही है। समाचारों के अनुसार मोनसांटो, धनुका एग्रीटेक, एक्सल कॉर्प केयर लि. और सार्वजनिक उपक्रम की कम्पनी हिन्दुस्तान इंसेक्टीसाइड्स लि. द्वारा निर्मित खर-पतवार नाशक रासायनों की बिक्री में इजाफा हुआ है। धनुका एग्रीटेक के प्रबंध निदेशक एम. के. धनुका का कहना है कि मजदूरों की बढ़ती लागत और मजदूरों की कमी से किसानों का झुकाव खर-पतवार नाशक रासायनों के उपयोग की ओर बढ़ा है। यह सस्ता भी पड़ता है और तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए, तो वहां आर्थिक रूप से लाभकारी है, जहां कोई मजदूर सुलभ नहीं है। इसके अलावा मजदूरों की कमी कृषि मशीनरी उद्योग के लिए ज्यादा लाभकारी है। शरद पवार ने पहले से ही कृषि उपकरणों की बिक्री को सहारा देने के लिए एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम बनाया है और वह कृषि में मशीनीकरण को सशक्त बनाने के लिए मौजूदा योजनाओं को एक साथ मिलाने की योजना बना रहे हैं।

उदाहरण के लिए, खेतिहर मजदूरों की बढ़ती कमी से ट्रैक्टर उत्पादन में उछाल की स्थिति है। खेती का अधिक मशीनीकरण और रासायनिक खर-पतवार का ज्यादा प्रयोग क्या छोटे किसानों के लिए ज्यादा मुफीद है, इस सवाल पर बिल्कुल चर्चा नहीं हुई है। अब मनरेगा पर लौटते हैं - खराब मौसम, अलाभकारी कृषि मूल्य और खेती में बढ़ता कॉरपोरेटीकरण ही अकेले कृषिजनित तनावों के लिए जिम्मेदार नहीं है। फसलों के कटते समय मजदूरों की अनुपब्लधता भी किसानों के संताप बढ़ाने वाली साबित हुई है। मेरे विचार से यही एक अकेला महत्वपूर्ण कारक है, जिसके चलते छोटे किसानों को अपने कब्जे वाली भूमि बेचने को बाध्य होना पड़ रहा है और वे भूमिहीन मजदूरों की बढ़ती जमात में शामिल हो रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं, पूरे देश की यात्रा करते समय आम आदमी यही दोहराते मिला, 'कृपया, सरकार से कहिए, मनरेगा को प्रतिबंधित करे। यह हमें मार रहा है।' मुझे वह वक्त याद है, जब बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से होकर लुधियाना, पटियाला और पंजाब के समृद्ध इलाकों तक जाने वाली ट्रेनें मजदूरों से भरी रहती थीं।

ये प्रवासी मजदूर आमतौर पर मार्च के दूसरे सप्ताह में आते थे और जुलाई तक रूकते थे। वह गेहूं की कटाई के काम में किसानों की मदद करते थे और मानसून तक यहीं ठहरकर धान रोपने में योगदान देते थे। आज हालत यह है कि रेलवे स्टेशन वीरान दिखाई पड़ते हैं। खेतिहर मजदूरों का मिलना एक बड़ी चुनौती है। यदि आप यह मानते हैं कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल में हालात जुदा होंगे, तो आप गलती पर हैं। खेत मजदूर लगभग 'लापता' हैं। मनरेगा ने अब पांच साल पूरे कर लिए हैं। कई लोगों का विश्वास है कि इसके तहत जो काम किए गए हैं, वे ज्यादा किसी मतलब के नहीं है। पांच साल की अवधि में कृषि संकट और बदतर हुआ है। गांवों से मजदूर रीयल इस्टेट, एक्सप्रेस वे, और शहरी ढांचागत जरूरतें पूरी करने के लिए चले गए हैं। कृषि मंत्रालय की संस्तुति के बाद भी ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कृषि जरूरत के चरम समय में मनरेगा कार्य को धीमा करने से इनकार कर दिया है। कुछ साल पहले, काफी हो-हल्ला मचने के बाद मनरेगा के क्रियाकलापों में खेती को लाया गया था।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने पायलट आधार पर कृषि विज्ञान केन्द्रों के जरिए प्रौद्योगिकी के हस्तक्षेप के लिए 50 जिलों को चिन्हित किया था। इसमें जल पुनर्भरण, तालाबों की खुदाई, छतों से बहकर आने वाली बरसाती पानी को एकत्रित करना और परम्परागत जल इकाइयों का नवाचार आदि शामिल था। इन क्रियाकलापों की निश्चित ही खेती में जरूरत है, लेकिन यह विश्वास किया जाता है कि कृषिजनित व्यापार उद्योग के दबाव के चलते इस निर्णायक निर्णय को लटका कर रखा गया है। मनरेगा के दो तिहाई मजदूर छोटे और सीमान्त किसान हैं। यह भी सूचना है कि 42 फीसदी से अधिक किसान (नए आंकड़े आने हैं) खेती छोड़ना चाहते हैं, यदि उन्हें विकल्प मिल जाए। मेरे दो सुझाव हैं - पहला तो यह कि ग्रामीण विकास मंत्रालय राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहे कि खेती के पीक सीजन में मनरेगा का कोई कार्य न हो। दूसरा ज्यादा महत्वपूर्ण है कि अधिकांश मनरेगा मजदूर भूमि मालिक हैं, खेती के सीजन में उन्हें दी जाने वाली मासिक मजदूरी प्रत्यक्ष रूप से उन्हें दी जाए। खेती और मनरेगा को एक-दूसरे का परिपूरक बनाने से जीविका सुरक्षा सुनिश्चित हो जाएगी।

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