कृषि : विकास की रीढ़ बनने में बाधा कैसी?

24 Feb 2015
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'किसानों का स्थान पहला है चाहे वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करनेवाले जमीन मालिक हों। उनके परिश्रम से ही पृथ्वी फलप्रसू और समृद्ध हुई है। मुझे इसमें सन्देह नहीं कि यदि हमें लोकतान्त्रिक स्वराज्य हासिल होता है — और यदि हमने अपनी स्वतन्त्रता अहिंसा से पाई तो जरूर ऐसा ही होगा — तो उसमें किसानों के पास राजनीतिक सत्ता के साथ हर किस्म की सत्ता होनी चाहिए। किसानों को उनकी योग्य स्थिति मिलनी ही चाहिए और देश में उनकी आवाज ही सबसे ऊपर होनी चाहिए।'— महात्मा गाँधी

यह नहीं कि स्वतन्त्रता के बाद जिनके हाथों देश का नेतृत्व आया उनके मन में गाँवों के प्रति विद्वेष था या वे कृषि के महत्व को नहीं समझते थे, किन्तु भारत की पुनर्रचना की नीतियाँ बनाने में भूलें अवश्य हुईं। उनका इरादा कृषि को नजरअन्दाज करने का नहीं था किन्तु विकास का जो ढाँचा विकसित हुआ उसका स्वरूप ऐसा था जिसमें धीरे-धीरे कृषि, किसान और गाँव को हाशिये पर जाना ही था।महात्मा गाँधी के ये वाक्य आजादी के पूर्व के हैं। इससे पता चलता है कि स्वतन्त्रता संघर्ष के मुख्य नायक की स्वातंत्र्योत्तर भारत की जो कल्पना थी उसमें किसानों का क्या स्थान था। गाँधीजी ही नहीं ऐसे दूसरे मनीषियों के कथन या लेखन को देखें तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि राष्ट्र निर्माण की इनकी कल्पना में कृषि, किसान और गाँव की भूमिका रीढ़ की थी। जाहिर है, उनकी कल्पनाओं के अनुसार यदि भारत निर्माण की नीतियाँ बनतीं तो इस समय का आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य बिल्कुल अलग होता। इसे देश का दुर्भाग्य कहना होगा कि विकास की हमारी नीतियों में कृषि, किसान और गाँव धीरे-धीरे हाशिये पर चले गए और उद्योग-व्यापार प्रमुख हो गए।

कहने का अर्थ यह नहीं कि स्वतन्त्रता के बाद जिनके हाथों देश का नेतृत्व आया उनके मन में गाँवों के प्रति विद्वेष था या वे कृषि के महत्व को नहीं समझते थे, किन्तु भारत की पुनर्रचना की नीतियाँ बनाने में भूलें अवश्य हुईं। उनका इरादा कृषि को नजरअन्दाज करने का नहीं था किन्तु विकास का जो ढाँचा विकसित हुआ उसका स्वरूप ऐसा था जिसमें धीरे-धीरे कृषि, किसान और गाँव को हाशिये पर जाना ही था। यहाँ तक कि कृषि की आधारभूत संरचना के लिए जो नीतियाँ बनीं और उनके अनुसार जो ढाँचे खड़े हुए उनसे भी कृषि की दुर्दशा हुई। ये ढाँचे विकास की उन नीतियों के अनुरूप थीं इसलिए कृषि का वर्चस्व बनाने की प्रकृति इनकी हो ही नहीं सकती थी। वस्तुतः ये ढाँचे प्रमुख हो गए और उनको बनाए रखने पर सरकारी महकमे का ध्यान ज्यादा केन्द्रित हुआ और जिस कृषि के लिए वे विकसित हुए वह ओझल हो गई।

देश के आर्थिक परिदृश्य पर नजर दौड़ाएँ तो पाएँगे कि आज भी करीब 65-70 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही निर्भर है, लेकिन अगर नीतियों के स्तर पर देखें तो यह शासन की प्राथमिकता में नहीं है। अगर 65-70 प्रतिशत आबादी इस पर निर्भर है तो नीतियों का, संसाधनों का कम से कम 65-70 प्रतिशत फोकस कृषि पर होना चाहिए। लेकिन मुख्य फोकस उद्योग है, सेवा क्षेत्र है, शेयर बाजार है, निर्यात है या इसके अलावा अन्य बड़े कारोबार हैं। यह विकास नीतियों की निरन्तरता की परिणति है।

1991 में आरम्भ उदारीकरण को कुछ लोग भारतीय कृषि के लिए मुख्य खलनायक मानते हैं। यह आंशिक रूप से ही सच हो सकता है। बेशक, आर्थिक सुधार के तीनों अंगों उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण ने भारतीय कृषि को ज्यादा धक्का पहुँचाया है किन्तु यह तो उसकी स्वाभाविक परिणति है। हमारी विकास नीति में उस कृषि को लगातार नजरअन्दाज किया गया है जो भारत की परम्पराओं, यहाँ के स्वभाव, आवश्यकताओं के अनुसार लम्बे काल खण्ड में सुदृढ़ हुई थीं तथा जिसके लिए किसी दूसरे पर निर्भर रहने की कतई आवश्यकता नहीं थी। भारत की कृषि स्वावलम्बिता का अनुपम उदाहरण था और इसके ऐसे ही बने रहने की पूरी गुंजाइश थी। विकास में उद्योग एवं व्यापार को अत्यधिक महत्व देने एवं व्यवहार में उसके सामने परम्परागत खेती को निम्न दर्जे का बना दिए जाने के कारण भारतीय समाज की स्वावलम्बिता के उस आधार का गला घुँट गया।

उदारीकरण ने कृषि की समस्या को केवल भारतीय सन्दर्भ में थोड़ा ज्यादा जटिल बनाने की भूमिका अदा की है। जब भी हम कृषि पर विचार करें, इस कटु यथार्थ से परिपूर्ण पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना होगा। सच यह है कि आर्थिक सुधारों की अनिवार्यता ही इसलिए उत्पन्न हुई क्योंकि विकास की रीढ़ कृषि एवं गाँव न होकर उद्योग एवं व्यापार हो चुके थे। इनकी कमजोरियों से जो संकट पैदा हुआ उससे भारत के सामने भुगतान सन्तुलन की समस्या उत्पन्न हो गई एवं तत्कालीन प्रधानमन्त्री नरसिंह राव ने वर्तमान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को वित्तमन्त्री का पदभार देकर आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। उस समय भी यदि आम समाज आर्थिक संकट का ग्रास नहीं बना तो इसीलिए कि कृषि बहुसंख्य आबादी के जीवनयापन का मूलाधार था। विडम्बना यह है कि उदारीकरण को उद्योग एवं व्यापार अपने लिए आजादी स्वरूप मानते हैं लेकिन किसानों के लिए वही आजादी नहीं आई। न वे अपने अनुसार खेती कर सकते हैं और न अपनी पैदावार का मनमाना दाम ले सकते हैं। प्रश्न है कि जब सरकार कारों के दाम तय नहीं करती, सॉफ्टवेयर का मूल्य निर्धारित होता है। यह कौन-सा उदारीकरण है? इससे किसानों को छुटकारा दिलवाने का दायित्व शासन का ही है।

विकास का जो ढाँचा सशक्त हो चुका है उसमें सरकारें कृषि की बात भले चाहे जितनी भावुकता से करें लेकिन जब नीति की बात आती है, संसाधन देने का मामला आता है तो कृषि खिसककर पीछे आ जाती है। विकास ढाँचे की पृष्ठभूमि समझने के बाद किसी को इस स्थिति से आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसमें यही होना है। इसके लिए बहुत ज्यादा आँकड़ों में जाने की आवश्यकता नहीं है। कृषि पर विचार करते समय ज्यादातर हमारा ध्यान सरकारी आवण्टनों सहित अन्य कदमों पर केन्द्रित होता है और उसके आधार पर या तो कोई तुलना करके पूर्व सरकारों से ज्यादा राशि बताकर इसकी प्रशंसा करता है या फिर कोई इसकी गहनता से अपने दृष्टिकोण के अनुसार समीक्षा करके यह साबित करता है कि सरकार ने कहा अवश्य है पर असल में वृद्धि बिल्कुल नहीं की है।

ऐसा नहीं है कि केन्द्र या राज्य सरकारें कृषि की बिल्कुल चिन्ता नहीं करतीं। कृषि राज्यों का विषय है, लेकिन केन्द्र सरकार की अपनी कृषि नीति है। केन्द्र के अलावा ज्यादातर राज्यों ने अपनी-अपनी कृषि नीतियाँ बनाईं हैं। कृषि सम्बन्धी कार्यक्रमों की लम्बी सूची देखने को मिल जाएगी। देश भर में ये कार्यक्रम भी उसी तरह चल रहे हैं जैसी अन्य सरकारी योजनाएँ चलती हैं। किन्तु विकास के अन्य क्षेत्रों से तुलना करने पर पाएँगे कि उनके सामने कृषि कहीं ठहरती ही नहीं।

इस समय मन्दी की बड़ी चर्चा है। मन्दी उद्योगों के क्षेत्र में है, निर्यात में है, शेयर बाजार में है। क्या कभी आपने सुना है कि कृषि क्षेत्र में मन्दी है? किसानों की फसलें खेत में सूख जाएँ या बाढ़ में बह जाएँ मन्दी की परिभाषा वहाँ फिट नहीं होती। इस समय अर्थव्यवस्था को मन्दी से उबारने के लिए बैंकों को नकद आरक्षी अनुपात एवं रेपो दर में कमी करके चार लाख करोड़ रुपए से अधिक धनराशि उपलब्ध कराई जा चुकी है ताकि वे उत्पादक, वितरक एवं खरीदार तीनों को कर्ज दे सकें एवं अर्थव्यवस्था गति पकड़े। इसमें किसानों की कर्ज माफी के एवज में बैंकों को 20 हजार करोड़ रुपए दिए गए हैं। उद्योगों को ताकत देने के लिए दो पैकेज जारी हो चुके हैं एवं तीसरे की तैयारी है। यह इस विकास ढाँचे का स्वभाव है। इसमें यही होगा। कोई भी सरकार होगी वह यही करेगी। कहने का अर्थ यह है कि वर्तमान विकास ढाँचे में कृषि का हाशिये पर रहना उसकी नियति है।

वास्तव में यह समय ठहरकर गम्भीरता से विचार करने का है। तमाम आघातों के बावजूद अभी भी भारत में इतनी आन्तरिक क्षमता है कि वह कृषि में दुनिया का श्रेष्ठतम देश बन सकता है। आज भी भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा फल उत्पादक एवं दूसरा सब्जी उत्पादक देश है।हालाँकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है। कल्पना कीजिए अगर कुछ समय के लिए केवल कृषि पर ध्यान दिया जाए तो कितना बड़ा चमत्कार हो जाएगा। सोवियत रूस के विघटन के बाद रूस की अर्थव्यवस्था ढह गई थी। 1990 के दशक में 70 प्रतिशत रूसियों ने अपना खाद्यान्न पैदा करके स्वयं एवं देश की रक्षा की। भारत में भी जब-जब संकट आता है यही कृषि देश को बचाए रखती है जो सबसे उपेक्षित है। वर्तमान आर्थिक मन्दी से भी भारत में कोई बड़ा तूफान न होने के पीछे भी कृषि ही है।

वर्तमान विकास नीति के समर्थकों का तर्क है कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा तो 25 प्रतिशत से भी नीचे है। एक तो इस आँकड़े पर ही विश्वास करना कठिन है। लेकिन अगर यह सही भी है तो केवल सकल घरेलू उत्पाद ही पैमाना क्यों होना चाहिए? जब उद्योग-व्यापार पर इतना जोर देने, इतना अधिक संसाधन झोंकने के बावजूद आज भी 65-70 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। इसी से इसकी महत्ता प्रमाणित हो जाती है। जिस सेवा क्षेत्र को सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बड़ा दाता बताया जाता है उसमें कृषि पर निर्भर लोगों का एवं सीधे कृषि का कितना योगदान है इसका आँकड़ा निकालना होगा। इसी प्रकार अन्य उद्योगों एवं व्यापारों में इनका योगदान निकालें तो फिर सच वही नहीं होगा जो दिख रहा है।

वास्तव में यह समय ठहरकर गम्भीरता से विचार करने का है। तमाम आघातों के बावजूद अभी भी भारत में इतनी आन्तरिक क्षमता है कि वह कृषि में दुनिया का श्रेष्ठतम देश बन सकता है। आज भी भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा फल उत्पादक एवं दूसरा सब्जी उत्पादक देश है। हमारी मिट्टी ऐसी है जिसमे कोई भी अन्न, फल या सब्जी उगाई जा सकती है। इसके लिए उद्योगों या अन्य व्यापार के लिए जितने संसाधान चाहिए उतने की आवश्यकता भी नहीं है। अगर किसी वर्ष किसी क्षेत्र में फसल तबाह हो गई या किसी कारण पैदावार हुई ही नहीं, तब भी इसे बचाने के लिए इतनी बड़ी राशि को बाजार में झोंकने का जोखिम उठाने की आवश्यकता नहीं होगी जितनी उद्योगों को मन्दी से बचाने के लिए की जा रही है।

कृषि के लिए तो इतनी खर्चीली आधारभूत संरचना भी नहीं चाहिए। किन्तु समस्या यहाँ भी है। पैदावार बढ़ाने के नाम पर हम उन तकनीकों या तौर-तरीकों को अपनाने की कोशिश करते हैं जो हमारी नहीं हैं। कृषि विशेषज्ञ यह बता रहे हैं कि अगले कुछ सालों में हमें अपने कृषि उत्पादन को बढ़ाकर 24 करोड़ टन तक ले जाना है। इसके लिए दूसरी हरित क्रान्ति की बात हो रही है। पहली हरित क्रान्ति में अनाज की पैदावार अवश्य बढ़ी, लेकिन उसकी कीमत भयावह है। पश्चिमी तरीके अपनाने के साथ खेती इतनी महंगी होती जा रही है कि छोटे और सीमान्त किसान, जिनकी संख्या सबसे ज्यादा है बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। वे खेती छोड़ने को विवश हो रहे हैं। खेती करने में खेत बिक रहे हैं। दूसरी ओर नृशंसता से केवल अत्यधिक पैदावार के लिए पश्चिम से आई प्रणाली को अपनाने के कारण कृषि-पारिस्थितिकी में व्यापक नकारात्मक परिवर्तन आ गया है। कीटनाशकों और रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग के कारण जमीन एवं फसलों में नयी समस्याएँ पैदा हो रही हैं। कीटाणुओं के विलयन से भूमि की प्राकृतिक क्षमता समाप्तप्राय है और अब ऐसे कीटाणु फसलों में पैदा हो रहे हैं जिनके लिए उच्च शक्ति के कीटनाशक का प्रयोग हो रहा है।

रासायनिक उर्वरकों से भूमि की तासीर नशीली होती गई है। इनके साथ मशीनों के प्रयोग ने वायुमण्डल को भारी नुकसान पहुँचाया है। अत्यधिक सिंचाई के कारण भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। जाहिर है, यह रास्ता नहीं होना चाहिए। कृषि का यह तौर-तरीका हमने उदारीकरण के पूर्व ही अपना लिया था। हाँ, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद यह ज्यादा तेज हुआ है। हालाँकि अब सरकार को भी ये बातें समझ में आ रही हैं और किसानों को कम से कम रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के प्रयोग के लिए प्रेरित किया जा रहा है। किन्तु यह अपर्याप्त है। तो फिर रास्ता क्या है?

सबसे पहले तो कृषि सत्ता प्रतिष्ठान की, विशेषकर राजनेताओं की आर्थिक-सामाजिक नीतियों की प्राथमिकता होनी चाहिए। हमें यह स्वीकार करना होगा कि गलत नीतियों के कारण ही कृषि को देश में निम्न स्तर का काम मान लिया गया है। आज का भयावह सच यही है कि जिसे अन्य कोई काम नहीं मिलता वही किसान है। इस स्थिति के लिए जिम्मेवार कारकों का अन्त कर कृषि को सम्मान का कार्य बनाना होगा।

किसानों को सत्ता प्रतिष्ठान में सम्मान का स्थान मिले तभी कुछ हो सकता है। शेष बातें उसके बाद आतीं हैं। हम एक बार यह तय कर लें उसके बाद यह सोचना होगा कि हमारी कृषि कैसी हो? उसके लिए दुनिया में देखने के बजाय भारत की हजारों वर्षों की कृषि सभ्यता में विकसित तौर-तरीकों और कौशल की ओर रुख किया जाए। आज की परिस्थिति में मूल सुरक्षित रखते हुए कैसे इसका उपयोग हो इस पर विचार होना चाहिए। एक नारा ‘ग्रो एण्ड सेव’ यानी ‘उगाओ और बचाओ’ का दिया जाए। गाँवों में अनुभवों के आधार पर बुवाई से लेकर, पैदावार सुरक्षित रखने तक की जो कम खर्चीली तकनीक एवं कौशल विकसित हैं उनका परित्याग कर नयी तकनीक अपनाने में खर्च ज्यादा है और उसके सामने स्थानीय ज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं रह जाती।

भारतीय कृषि में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वस्तुतः ग्रामीण मजदूरों की आधी आबादी महिलाओं की है और किसान परिवार की महिलाएँ परम्परागत अनुभवों के कारण जो ज्ञान पा लेतीं हैं उनको पश्चिमी तकनीक एवं शैली के सामने बेकार करना आत्मविनाश का ही रास्ता है। पश्चिम के देशों की प्रकृति, उनकी आवश्यकता वही नहीं हैं जो हमारी है। हम अगर अपनी आवश्यकता एवं संसाधनों को ध्यान रखते हुए कृषि की नीतियाँ बनाएँ तो इसमें न केवल धन की बचत होगी, यह स्वावलम्बी और आत्मविश्वासी विकास का आधार बनते हुए रीढ़ की भूमिका में आ सकती है।

(लेखक पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
ई-मेल : awadheshkur@gmail.com

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