कथाओं में रह जाएंगी नदियां

9 Jan 2015
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नदी जोड़ परियोजना से नदियों का प्रवाह कम हो जाने से निचले क्षेत्रों में मौसम में परिवर्तन होंगे और नदियां गाद-युक्त, नालों में बदल जाएंगी। मछलियों की अनेक प्रजातियां, जो विभिन्न मौसमों में नदी के अलग-अलग जलवायु क्षेत्रों में विचरण करती हैं, उनके प्राकृतिक आवास स्थलों का ह्रास होगा। यह बात भी गौर करने वाली है कि करोड़ों लोग इस परियोजना के निर्माण से ही विस्थापित नहीं होंगे, बल्कि नदियों का पुराना स्वरूप समाप्त हो जाने से निचले क्षेत्र के लोगों से जुड़े अनेक रोजगार समाप्त हो जाएंगे और वे भी विस्थापित होने को मजबूर होंगे।नदियां मानव विकास के इतिहास की चश्मदीद गवाह रही हैं। दुनिया की प्रमुख सभ्यताएं नदी घाटियों में ही विकसित हुईं और फली-फूलीं। गंगा, यमुना, नर्मदा जैसी अनेक नदियों को सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में विशेष दर्जा यूं ही नहीं हासिल हो गया। भारत-भूमि के लिए यह नदियां जीवनदायिनी रही हैं। इनकी असीम जलराशि ने यहां की मिट्टी को सींच कर न केवल उपजाऊ बनाया बल्कि इनके किनारे स्थित तीर्थों में मनुष्य सदियों से अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढता रहा है। लेकिन इतिहास का यह अनवरत क्रम अब टूटने वाला है और नदियां कथाओं में ही शेष रह जाएंगी।

केन्द्र सरकार ने देश की 14 हिमालयी और 16 प्रायद्वीपीय नदियों के वेग को मोड़कर उनकी निरंतरता नष्ट करने की तैयारी कर ली है। सरकार ने 5,60,000 करोड़ रुपए की लागत वाली इस अति महत्वाकांक्षी अंतरघाटी जल परियोजना का पहला चरण 2012 और 2043 तक संपूर्ण योजना पूरी कर लेने का शपथ पत्र उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत किया है और लोक सभा में इसकी घोषणा की है।

राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, सरकार और विभिन्न राजनैतिक दलों ने इस योजना के क्रियान्वयन पर सहमति व्यक्त कर दी है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस तो इस योजना का श्रेय यह कह कर लूटने का प्रयास कर रही है कि तीस वर्ष पहले 1972 में उसकी सरकार ने ही यह परिकल्पना की थी। इस योजना के अंतर्गत विभिन्न नदियों से छत्तीस नहरें प्रस्तावित हैं। इनमें से सत्रह भूमिगत होंगी। हालांकि कहा यह जा रहा है कि प्रस्तावित ‘अंतरघाटी जल परियोजना’ में नदियों के न्यूनतम बहाव को सुनिश्चित किया जाएगा, लेकिन जिन दबावों ने सरकार को इस भारी भरकम लागत और देश का समाज और भूगोल बदल देने वाली परियोजना को लागू करने के लिए मजबूर किया है, उनके चलते न्यूनतम बहाव सुनिश्चित करने के वादे में कोई दम नहीं है।

खुद प्रधानमंत्री 25 दिसंबर को अपने जन्मदिन के अवसर पर दिए गए भाषण में स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि ‘उनकी सरकार की योजना है कि वे नदियों का एक बूंद पानी समुद्र में नहीं जाने देंगे।’ विश्व बाजार में डाॅलर कमाने वाली फसलों के लिए अधिक से अधिक पानी उपलब्ध करवाने और आधुनिक जीवन-शैली, जिसमें पानी की खपत निरंतर बढ़ती जा रही है, के आगे झुकना सरकार की नियति बन गई है।

देश की बारह प्रमुख और छियालीस उपनदी प्रणालियों, हजारों किलोमीटर लंबी नहरों के जाल से विस्थापित होने वाले करोड़ों लोगों और जैव-विविधता को इस योजना की कीमत चुकानी होगी, जिसकी क्षति का अनुमान योजनाकारों ने अब तक लगाया ही नहीं है। केवल गंगा की बात करें तो उसके किनारे ऋषिकेश से गंगा सागर तक 2500 किलोमीटर क्षेत्र में तीन सौ छोटे बड़े शहर और हजारों गांव हैं, जो गंगा का पानी अन्य नदियों में स्थानांतरित करने से प्रभावित होने वाले हैं।

भारत की विविधता भरी भू-बनावट के चलते देश में उपलब्ध कुल पानी का अधिक से अधिक उपयोग कर पाना असंभव रहा है। कहीं जरूरत से ज्यादा पानी है तो कहीं हर साल सूखा पड़ जाता है। ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में जहां प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 18,400 घनमीटर है। तमिलनाडु की नदी घाटियों में यह मात्र 380 घनमीटर है।

साल भर में हिमपात सहित जो चार हजार अरब घनमीटर पानी देश में बरसता है, उसका ‘नब्बे प्रतिशत मानसून के महीनों में बहकर समुद्र में समा जाता है या भाप बनकर उड़ जाता है। शेषपानी जो नदियों में उपलब्ध है, वह ऐसे क्षेत्रों में बहता है, कि उससे ज्यादा उसका उपयोग संभव नहीं है। विभिन्न परियोजनाओं के अंतर्गत अब तक 250 अरब घनमीटर पानी के भंडारण की योजनाएं निर्मित और निर्माणाधीन हैं, जबकि योजना आयोग का अनुमान है कि 2025 तक कम से कम 1050 अरब घनमीटर पानी का उपयोग जरूरी होगा।

सतही जल के उपयोग के लिए आजादी के बाद बड़े बांध बनाने का अभियान शुरू हुआ। आजादी के पचपन वर्ष भी नहीं बीते कि बड़े बांधों के बहुप्रचारित लाभों पर संदेह की अंगुली उठने लगी। बांधों के निर्माण के लिए अकूत धन का इंतजाम करने वाली विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय ऋणदाता संस्थाएं पैसा देने में आनाकानी करने लगीं। देश के भीतर भी बड़े बांधों के विरोध में माहौल गर्माने लगा।

सिंचाई और बढ़ती जनसंख्या के लिए पानी उपलब्ध करवाने का दबाव राजनीति में हावी होने लगा तो बांध निर्माण के बाद सरकार को यही बेहतर विकल्प नजर आया कि वह पानी की अधिकता वाले बेसिनों से कम पानी वाले बेसिनों तक पानी पहुंचाए। इसके लिए जल इंजीनियर और पूर्व केंद्रीय सिंचाई मंत्री डाॅ. केएल राव द्वारा 1972 में बनाए गए प्रस्ताव को सरकार ने अमली जामा पहनाने की घोषणा कर दी है।

हालांकि ऐसे सुझाव देने वालों की भी कम संख्या नहीं है, जो कहते आए हैं कि बड़े बांध या अंतर घाटी जल-परियोजना जैसी विनाशकारी परियोजनाओं के स्थान पर सरकार को सिंचाई और पेयजल के परम्परागत साधनों को पुनर्जीवित करने के ठोस प्रयास करने चाहिए। लेकिन आजादी के बाद से ही सरकार और संरक्षण के योजनाकार प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और संरक्षण की परम्परागत प्रणालियों को हेय दृष्टि से देखने के आदी रहे हैं।

सरकार ने सन् 2005 तक 113 मिलियन हेक्टेयर भूमि को सिंचाई सुविधा से जोड़ने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए 70 लाख मिलियन हेक्टेयर पानी की जरूरत आंकी गई है। दिलचस्प तथ्य यह है कि उत्तर भारत में पानी खूब है, पर जमीन कम है। इसके विपरीत दक्षिणी राज्यों में सिंचाई योग्य जमीन ज्यादा है, परंतु पानी नहीं है।

उत्तर में खेती योग्य जमीन मात्र 41 प्रतिशत है और पानी 64 प्रतिशत है। इसके विपरीत दक्षिण में खेती योग्य जमीन 35 प्रतिशत है पर पानी केवल 19 ही प्रतिशत है। दक्षिण में पानी की इस भारी किल्लत को कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच जारी जल विवादों से ही महसूस किया जा सकता है। दक्षिण का जल संकट अंतरघाटी जल परियोजना के निर्माण का एक प्रमुख उत्प्रेरक है।

सरकार ने दावा किया है कि मानसून के दौरान हिमालयी नदियों के बहने वाली अतिरिक्त जलराशि को ही नहरों के द्वारा दूसरी नदियों में पहुंचाने की उसकी योजना है और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि नदी का न्यूनतम बहाव बना रहे। परिस्थितिकी के विशेषज्ञ सरकार के इस दावे की यह कहकर आलोचना कर रहे हैं कि नदी में अतिरिक्त जल राशि और न्यूनतम बहाव जैसी कोई चीज नहीं होती। विभिन्न मौसमों के अनुरूप नदी का बहाव कम या ज्यादा होना उसकी परिस्थितिकी का अनिवार्य हिस्सा है।

जैसे मानसून में उत्तर भारत की नदियों में आने वाली बाढ़ में सरकार को अतिरिक्त पानी नजर आता हो, लेकिन यह कथित अतिरिक्त पानी नदी के तल में साल भर में जमा गाद को साफ करने, भूजल का पुनर्संभरण करने और मिट्टी की नई उपजाऊ परत को बनाने में मुख्य भूमिका निभाता है। बाढ़ जैसी विभीषिकाओं के लिए नदी के वेग से ज्यादा मनुष्यजनित कारक जिम्मेदार हैं।

यदि अतिरिक्त पानी के उपयोग के नाम पर इस प्रक्रिया को बाधित कर दिया जाता है तो नदी का प्राकृतिक जीवन नष्ट हो जाएगा। नदी के निचले क्षेत्रों में जलचर और वनस्पतियों की विविधता पर इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। नदी में कई तरह के पोषक पदार्थ प्रवाहमान होते हैं जो कि नदी के इकोसिस्टम की खाद्य-शृंखला के अंग होते हैं। प्रवाह कम होने से इकोसिस्टम को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व नहीं मिल पाएंगे।

नदियों का प्रवाह कम हो जाने से निचले क्षेत्रों में मौसम में परिवर्तन होंगे और नदियां गाद-युक्त, नालों में बदल जाएंगी। मछलियों की अनेक प्रजातियां, जो विभिन्न मौसमों में नदी के अलग-अलग जलवायु क्षेत्रों में विचरण करती हैं, उनके प्राकृतिक आवास स्थलों का ह्रास होगा। यह बात भी गौर करने वाली है कि करोड़ों लोग इस परियोजना के निर्माण से ही विस्थापित नहीं होंगे, बल्कि नदियों का पुराना स्वरूप समाप्त हो जाने से निचले क्षेत्र के लोगों से जुड़े अनेक रोजगार समाप्त हो जाएंगे और वे भी विस्थापित होने को मजबूर होंगे।

नदियों की निरंतरता समाप्त कर देने की न तैयारियों का एक सीधा परिणाम देश के वन क्षेत्र का भुगतान होगा, जो एकाधिक कारणों से निरंतर घटता जा रहा है। देश के भूगोल के केवल बारह प्रतिशत भाग पर घने वन शेष रह गए हैं। यही वन, यहां पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के वन्य जीवों की शरणस्थली हैं। ऐसे अनेक वन क्षेत्रों को अभयारण्य, नेशनल पार्क और बायोस्फीयर रिजर्व के रूप में संरक्षित किया जा रहा है।

यह निश्चित है कि 150 मीटर चौड़ी, 10 मीटर गहरी और हजारों किलोमीटर लंबी यह नहरें विंध्याचल जैसे अनेक घने वन क्षेत्रों से गुजरंेगी, जिस कारण लाखों हेक्टेयर वन क्षेत्र समाप्त हो जाएगा। नहरों के निर्माण से वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास स्थल बुरी तरह प्रभावित होंगे। नहरों के कारण इन जीवों के आगमन के मार्ग अवरोधित होंगे, जिसका सीधा असर इन जीवों के सरंक्षण कार्यक्रमों पर पड़ेगा।

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