कुपोषण से दूर समाज के लिये संजीवनी है पारम्परिक इलाज


दुनिया के सभी देशों में कुपोषण की समस्या बढ़ रही है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आइएफपीआरआइ) द्वारा जारी ‘ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट’ के मुताबिक, प्रत्येक तीन में से एक व्यक्ति कुपोषण के किसी-न-किसी प्रारूप का शिकार है। कुपोषण के बचाव से मनुष्य के भोजन में पोषक तत्वों की उपलब्धता के लिहाज से मछली आहार का हिस्सा रही है। अपने देश में भले ही आबादी का एक बड़ा हिस्सा शाकाहारी है, लेकिन राज्य के कई हिस्सों में मछली कुपोषण से निपटने का प्रमुख साधन है।- का. सं.


गांधी मेडिकल कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर निशांत श्रीवास्तव का कहना है कि मछली खाने वालों को कभी भी दिल की बीमारी नहीं होती है। मांसाहार में सबसे पौष्टिक आहार मछली ही मानी जाती है। मछली खाने वाले सामान्य संक्रमण से दूर रहते हैं। मछली से गंभीर बीमारियाँ न होने की एक वजह यह है कि इसमें 100 फीसदी प्रोटीन होता है।

मध्यप्रदेश के बड़वानी जिला मुख्यालय से 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित छोटा सा गाँव पिछौड़ी अब भी विकास की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। गाँव के लोग ज्यादा उम्मीद भी नहीं रखते हैं, क्योंकि आज नहीं तो आने वाले दिनों में उन्हें इस गाँव से बेदखल कर दिया जाएगा। उन्हें विस्थापित होना पड़ेगा या जबरन कर दिया जाएगा। हर घर के बाहर सरकारी फरमान पेंट से लिखा गया है। “आपका घर डूब क्षेत्र में आता है, 5.80 लाख के मुआवजे के हकदार हैं। 3 लाख की पहली किस्त आपको दी जा चुकी है। बाकी रुपये घर टूटने के बाद दिए जाएँगे।” इसकी चिंता किए बगैर राजधानी भोपाल से करीब 300 किलोमीटर दूर बसे बड़वानी जिले के इस छोटे से गाँव के इस समुदाय के लोगों की जिंदगी रोजाना की तरह ढर्रे पर है। यहाँ पर ढीमर, कहार और माझी समुदाय के लोगों ने अब भी हिम्मत नहीं हारी है।

उनकी दिनचर्या में अब भी हर रोज मछलियाँ पकड़ने जाना शामिल है। मछली उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा है। बड़वानी, धार और खंडवा जिले के गाँवों में घूमने के बाद एक बात स्पष्ट हो जाती है, अगर नर्मदा पर निर्भर इस समुदाय की दिनचर्या के भोजन में मछली शामिल न हो तो इनकी खुराक पूरी नहीं होती है। कुपोषण से लड़ने में शायद यह मछली ही इनका सबसे बड़ा हथियार है। इस तथ्य को अगर नजरअंदाज कर भी दें कि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 की रिपोर्ट में प्रदेश में सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे बड़वानी जिले में हैं। इसके बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य की सरकारी सुविधाएँ अब तक पहुँच नहीं पाई हैं।

नर्मदा के किनारे बसे पिछौड़ी गाँव का ये समुदाय अपने पारम्परिक खान-पान की वजह से ही कई गम्भीर बीमारियों से बचा हुआ है। वरन इस गाँव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ नहीं मिल पा रहा है। हालाँकि गाँव के लोगों के राशन कार्ड बने हैं। आधार कार्ड भी बन चुके हैं, इसके बावजूद उन्हें नहीं पता कि इन प्लास्टिक के कार्ड उनके लिये किस तरह से उपयोगी होंगे। खान-पान में शामिल मछली ने इस समुदाय के बच्चों और महिलाओं को काफी हद तक कुपोषण से बचाया है।

समाज की बुजुर्ग वैद्य जिन्हें लोग सावां बहन के नाम से जानते हैं। उनका कहना है कि निमोनिया, छोटे-छोटे बच्चों के दाँत निकलने में लगने वाले दस्त और महिलाओं की प्रसव के समय की परेशानियों को दूर करने के लिये किसी तरह की अंग्रेजी दवा का इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि दवा के रूप में मछलियाँ ही हमारे उपयोग में आती हैं। बच्चों में आमतौर पर कुपोषण जैसी बीमारियाँ कम होती हैं। अगर हो गईं तो वह इन मछलियों के माध्यम से दूर किया जाता है। बच्चों को पौष्टिक आहार के रूप में अलग-अलग मछलियाँ खाने में परोसी जाती हैं। इन लोगों को अस्पताल कम ही जाना पड़ता है क्योंकि ज्यादातर इलाज वह घर पर ही कर लेते हैं।

सावां बहन बताती हैं, इन बीमारियों में पकड़ी घूमर, घाघरा और झींगा मछलियों का उपयोग अलग-अलग बीमारियों में करते हैं। जैसे अगर बच्चे को निमोनिया हो गया है तो बेकरी मछली का धागा उसके गले में बांध देते हैं और निमोनिया हफ्ते भर के अंदर ठीक हो जाता है। अगर बच्चों को दाँत निकल रहा है और दस्त लगी है तो बाडिस मछली बनाकर खिलाई जाती है तो दस्त रुक जाती है। इसे कैटफिश भी कहते हैं। ये बेहद कारगर मछली है। इसका उपयोग इतना ज्यादा है कि महिलाओं को डिलीवरी के समय भी ये मछली बनाकर परोसी जाती है, इससे महिला को प्रसव से जुड़ी परेशानियाँ दूर होती ही हैं, साथ ही बच्चेदानी के बाहर आने का खतरा कम से कम होता है। हम लोग मछली का उपयोग पशुओं के इलाज में भी करते हैं।

बुजुर्ग गोमा बाबा समुदाय के सबसे ज्यादा उम्रदराज (80 वर्ष) व्यक्ति हैं। वह छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज यूँ कर डालते हैं। एक छोटी सी झोपड़ी में रहते हैं। उन्हें टीबी के इलाज में महारथ है। वह कहते हैं, हमारा पारम्परिक इलाज ही बेहतर है। हमें फिलहाल डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं है। मेरे पास कई छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज हैं। उन्होंने बताया कि झींगा मछली सबसे ज्यादा पौष्टिक मानी जाती है, हम इसे प्रसूता माँ और उसके नवजात बच्चे के लिये पोषण आहार के रूप में देखते हैं। ढीमर जाति के लोग इस मछली की सब्जी बनाते हैं और उसे माँ को खिलाते हैं। इससे उसे दूध बनता है और वह नवजात बच्चे के लिये भी अच्छा होता है। नर्मदा में मिलने वाले कछुए का उपयोग भी हमलोग दवा के रूप में करते हैं, कछुए की मुंडी का उपयोग किसी बच्चे का अगर कान बह रहा है या खराबी आ गई है, कम सुनाई दे रहा है तो मुंडी को घिसकर तेल के साथ कान में डालते हैं तो कान एकदम ठीक हो जाता है। असल में, आज भी इस समाज में परम्परागत इलाज को ही पहली प्राथमिकता दी जाती है, वैसे भी यह समाज निजी इलाज कराने में सक्षम नहीं है।

पिछोड़ी गाँव में एक आंगनवाड़ी केंद्र है, जो हफ्ते में एक बार खुलता है। बच्चों के पोषण का एक प्रमुख केंद्र होने के साथ ही बच्चों के बुनियादी शिक्षा का भी केंद्र होता है। बड़वानी से बमुश्किल 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पिछोड़ी गाँव, जहाँ पर करीब ढाई हजार की आबादी में कहार और मछुआरे रहते हैं। इनकी जिंदगी सुबह 4 बजे से शुरू होती है और कभी-कभी रात के 12 बजे भी, लेकिन नर्मदा इनके रग-रग में बसी हुई है। आजकल वह बेरोजगार हैं, क्योंकि नर्मदा में बांध का पानी छोड़ा गया और नर्मदा तालाब की तरह हो गई है। यहाँ पर अब नई मछलियाँ नहीं आती हैं और जो पुरानी मछलियों के घरौंदे थे वह भी खत्म हो रहे हैं। यह लोग 1 दिन में 4 से 5 किलो मछलियाँ मार कर लाते थे वहीं अब एक से 2 किलो मछलियाँ भी बमुश्किल मिल पाती हैं उनका धंधा पूरी तरह से चौपट हो गया है और जिंदगी ऐसे ही बसर हो रही है।

ढीमर, कहार और मांझी जाति के 25 हजार लोगों का खान-पान और जीवन-यापन सब नर्मदा पर निर्भर है। शिक्षा का स्तर काफी कम है, परिजन बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह लोग शिक्षित नहीं होना चाहते हैं, लेकिन उन्हें सुविधाओं की दरकार है। किशोर मांझी के घर में दो बेटियाँ हैं और दो बड़े बेटे हैं। वह कहते हैं कि कौन शिक्षित नहीं होना चाहता है, कौन नौकरी नहीं करना चाहता। लेकिन हमें अवसर नहीं मिलते। मेरी बेटी बबली ने 8वीं तक पढ़ाई की। बेटा रोनू 10वीं पूरी नहीं कर पाया। हमारे रोजगार का साधन नर्मदा व मछलियाँ हैं, और अब यह रोजगार भी हमसे छीना जा रहा है। पुनर्वास के नाम पर 60-90 फीट के प्लाट दिए गए हैं, लेकिन वहाँ पर घर बनाने के लिये हम रुपया कहाँ से लाएँ। कहा गया है कि 5.6 लाख रुपए मुआवजा देंगे, जिससे घर बनाएँगे, लेकिन वह सिर्फ सुनते आ रहे हैं।

गांधी मेडिकल कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर निशांत श्रीवास्तव का कहना है कि मछली खाने वालों को कभी भी दिल की बीमारी नहीं होती है। मांसाहार में सबसे पौष्टिक आहार मछली ही मानी जाती है। मछली खाने वाले सामान्य संक्रमण से दूर रहते हैं। मछली से गंभीर बीमारियाँ न होने की एक वजह यह है कि इसमें 100 फीसदी प्रोटीन होता है। अगर फ्रेश वाटर या नॉन पाल्युलेटेड मछली खाई जाए तो दिल को 100 साल तक स्वस्थ रख सकते हैं। छोटी-मोटी बीमारियाँ मछली खाने से दूर रहती हैं। मछली खाने वाले समाज को कभी भी कुपोषण नहीं हो सकता है।

श्री सुमित एस. पांडेय पत्रकार है एवं विकास संवाद की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा फेलोशिप कर रहे हैं।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading