क्या गंगा के गले की फांस है हरिद्वार

14 Dec 2009
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गंगा प्राधिकरण के सभी गैर सरकारी आठ सदस्यों ने एक सुर में सरकार से मांग की है कि गोमुख से उत्तरकाशी तक ‘नो प्रोजेक्ट जोन’ घोषित किया जाए। इसकी प्रतिक्रिया में उत्तरकाशी गंगा घाटी के गंगा पुत्रों ने ‘संकल्प’ नामक एक परचे में घोषित किया कि गंगा मुक्ति के लिए जनमोरचा बनाकर हरिद्वार में गंगा की अविरल धारा को मूल मार्ग नीलधारा, चंडीघाट से प्रवाहित करवाया जाएगा। और गंगा से निकाली गई नहरों को तोड़ने का आंदोलन चलाया जाएगा।

अब प्रश्न यह है कि अविरल धारा के नाम पर हरिद्वार से निकलने वाली नहरों को तोड़ना या बंद कराने की मांग क्या उचित है? अविरल धारा वाले आग्रही जनों की मांग को देखते हुए हरिद्वार भविष्य की रणभूमि बनने जा रहा है। दरअसल, गंगा को हरिद्वार में अवरुद्ध करके 42 नहरें निकाली गई हैं। गंगा के मूलमार्ग नीलधारा और चंडीघाट से शीतकाल में एक बूंद पानी निस्सरित नहीं होता। पर इसकी चिंता कभी प्रकट नहीं की गई। अंग्रेजों के जमाने में पंडित मदनमोहन मालवीय हरिद्वार की मुख्य गंगा नहर (हर की पैड़ी) और अन्य प्रस्तावित नहरों में संपूर्ण गंगा को डालने के विरोध में अनशन पर जरूर बैठे थे। बहरहाल, कहने का आशय यह है कि क्या हरिद्वार गंगा के गले की फांस है?

वहां से गंगा की अविरल धारा को छिन्न-भिन्न कर नहरों में डाल दिया गया है। उसकी मूलधारा में तो कुंभ के समय भी स्नान के लिए जल उपलब्ध नहीं रहता। सारा जनसैलाब हर की पैड़ी पर नहाना चाहता है। इसलिए दुर्घटनाओं को घटने से रोका नहीं जा सकता। कुंभ मेले की दृष्टि से भी गंगा के मौलिक मार्ग नीलधारा, चंडीघाट पर एक विशाल ‘राष्ट्रीय घाट’ का निर्माण जन सुरक्षा के लिए समयोचित है। मेला क्षेत्र का विस्तार और गंगा में स्नान घाटों की बहुलता ही दुर्घटनाओं को रोकने का एकमात्र उपाय है।

गंगा की अविरल धारा की मांग करने वाले गैरसरकारी सदस्यों को हरिद्वार से गंगा मुक्ति के संबंध में अपने विचार स्पष्टता के साथ प्रकट करने चाहिए। अन्यथा यह समझा जाएगा कि ये सदस्य पहाड़ों में विकास संबंधी गतिविधियों को धर्म और कर्मकांड की आड़ लेकर रोकना चाहते हैं। शास्त्रों में गंगा को ‘गह्वरवासी’ कहा गया है। गह्वर का मतलब गुफा होता है, जिसे अंगरेजी में ‘केव’ अथवा ‘टनल’ कहते हैं। आर-पार होने वाली गुफा ही गह्वर है। गंगा के किनारे प्राचीन काल से कुछ ‘घराट’ स्थापित हैं। उन घराटों को घुमाने का काम आदिकाल से गंगाजल करता आया है। अगर बिजली बनाने वाले बड़े घराट ‘टरबाइन’ को गंगा जी घुमाकर तुरंत मुख्यधारा में आ मिलती हैं, तो यह मानवता के लिए उनका अतिरिक्त वरदान समझा जाना चाहिए, न कि अवरोध या प्रदूषण। गंगा पुत्रों को भी यह समझना चाहिए कि अगर हरिद्वार की नहरों के विरुद्ध आंदोलन चलाया जाता है, तो आधा देश और दो प्रदेश (उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश) चीनी, गेहूं और गुड़ से वंचित हो जाएंगे। अगर गोमुख से उत्तरकाशी तक ‘नो प्रोजेक्ट जोन’ घोषित करना है, तो इस घाटी में रहने वाले लगभग चार लाख लोगों को वहां से हटाकर पहले उसे ‘नो मैंस लैंड’ घोषित करना होगा।

जब तक चार लाख लोगों के पुनर्वास की नीति नहीं बन जाती, तब तक उस इलाके को ‘नो प्रोजेक्ट जोन’ घोषित नहीं किया जा सकता। चार लाख लोगों को आधुनिक समय में विकास से वंचित रखना अन्यायपूर्ण होगा। गंगाघाटी उत्तरकाशी की जनता का संघर्षमय जीवन किसी कठिन तपस्या से कम नहीं है। इन्हीं लोगों की वजह से सीमा पर चीन का अतिक्रमण नहीं हो पाया है। लोहारीनाग-पाला, भैरो घाटी तो नितांत जनशून्य स्थान हैं और 1975 में डबरानी की छोटी नदी में जो बाढ़ आई थी, वैसी बाढ़ के लिए संवेदनशील छोटी नदियां यहां पर आकर गंगा में मिलती हैं। इन नदियों के मुहाने पर छोटे बांध और टनल बनने से इनके तटबंध न सिर्फ सुदृढ़ बंधनों में बंध जाएंगे, जिससे भविष्य में भूस्खलन और बाढ़ जैसी त्रासदियों से बिना किसी अतिरिक्त उपाय के ही बचाव हो जाएगा, बल्कि बिजली भी मिलेगी।

लोहारीनाग-पाला और भैरो घाटी की परियोजनाओं के कारण भूस्खलन से उत्पन्न गाद पर भी नियंत्रण हो जाएगा। तिब्बत से जो ‘जाडगंगा’ भैरो घाटी में आकर मिलती है, उसमें शीत ऋतु में भी भागीरथी के मुकाबले पांच गुना अधिक पानी रहता है। तिब्बत-भारत सीमा से भैरो घाटी तक इस नदी में कम-से-कम चार बड़े पावर हाउस बनाए जा सकते हैं, जिनकी विद्युत उत्पादन क्षमता जलाधिक्य के कारण बारह महीने एक जैसी रहेगी। चीनी सैनिक इस नदी के उद्गम से पलम और सिंधा नदी तक गश्त करते हुए अक्सर आ जाते हैं। अगर जाडगंगा में हमारे लोगों की गतिविधि निरंतर सक्रिय रहेगी, तो चीन को घुसपैठ करने का अवसर नहीं मिलेगा। गंगा को स्वच्छ रखने के लिए जरूरी है कि छोटी नदियों को भूस्खलन की गाद से सुरक्षित बनाया जाए। गंगा को केवल जीवितों के नहाने और मुर्दों को बहाने की नदी न बनाया जाए, बल्कि जिन नगरहीन और तीर्थहीन स्थलों पर गंगा से बिजली पैदा की जा सकती है, वहां की जानी चाहिए। गंगाजल हमारे खेतों में भी जाए, हमारे कंठों की प्यास भी बुझाए, हमारे लिए बिजली की टरबाइन (घराट) भी घुमा दे और फिर भी हम उसे स्वच्छ रूप में गंगा सागर तक पहुंचा दें। इससे अधिक गंगा सेवा और क्या हो सकती है?

(लेखक पद्मश्री प्राप्त प्रसिद्ध कवि हैं)

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