क्या नदियाँ बची रह पाएँगी

Polluted river
Polluted river
आज देश के सामने नदियों पर अस्तित्व का संकट मँडरा रहा है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के हालिया अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है कि देश की 35 नदियाँ बुरी तरह से प्रदूषण की चपेट में हैं। बोर्ड द्वारा 2005 से 2013 के बीच आँकड़ों के आधार पर किये अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि देश की 40 नदियों की प्रदूषण जाँच में असम की एक और दक्षिण भारत की चार नदियाँ ही स्वच्छता के मानकों में खरी उतरी हैं। बाकी 35 प्रदूषण की मार से बुरी तरह कराह रही हैं।

इनमें गंगा, यमुना, सतलुज, मार्कण्डा, घग्घर, चम्बल, ढेला, किच्छा, कोसी, बहेला, पिलाखर, सरसा, रावी, माही, रामगंगा, बेतवा, सोन, स्वान, वर्धा, साबरमती, मंजीरा, ताप्ती, नर्मदा, बाणगंगा, भीमा, दमनगंगा, इंद्रावती, महानदी, चुरनी, दामोदर, सुवर्णरेखा, कृष्णा और तुंगभद्रा आदि नदियाँ शामिल हैं। जबकि गोदावरी, कावेरी, पेन्नार, उत्तरा पिनकानी तथा धनसारी प्रदूषण मानकों में पास हुई हैं। वैसे तो देश में गोमती, ब्रह्मपुत्र, झेलम, चिनाव, व्यास, पार्वती, हरदा, गंडगोला, मसैहा, वरुणा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, सरयू, गौला, सरसिया, पुनपुन, मोरना, मुंसी, अमलाखेड़ी, खारी, मारकंदा, खान, मीठी, बूढी गंडक, गंडक, काली, भीमा, कमला, भगीरथी, भिलंगना, अस्सीगंगा आदि या फिर इनकी सहायक नदियाँ किन-किन की गिनती करें, कमोबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिये जूझ रही हैं। इनमें 27 नदियाँ तो ऐसी हैं जो नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं हैं। इसमें दो राय नहीं।

असलियत में आज देश में 70 फीसदी नदियाँ प्रदूषित हैं। लेकिन प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस अवधि में जिन 40 नदियों की 83 स्थानों पर निगरानी की है, जिसमें चार मानकों यथा बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड, डिजॉल्व ऑक्सीजन, टोटल कोलिफॉर्म और टोटल डिजॅाल्व सॉलिड का ध्यान रखा गया है। गौरतलब है कि बीओडी पानी में ऑक्सीजन को इस्तेमाल करने वाले तत्वों को दर्शाता है, डीओ कुल ऑक्सीजन की मात्रा को, टीसी कुल बैक्टीरिया की उपस्थिति और टीडीएस पानी में मौजूद ठोस तत्वों को दर्शाता है। जाँच में पाया गया कि पानी की गुणवत्ता कोलीफॉर्म की मौजूदगी से खराब हुई है। 11 फीसदी जगहों पर ही कोलीफॉर्म बैक्टीरिया मानकों के अनुरूप पाए गए। बाकी जगहों पर यह तय मानकों से कहीं ज्यादा थे।

नियमों के अनुसार 100 मिलीलीटर पानी में कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा 500 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। यमुना में तो कई जगहों पर यह संख्या 17 करोड़ तक पाई गई। 51 नमूनों में बीओडी की मात्रा ज्यादा मिली जबकि 57 जगहों पर डीओ की मात्रा इतनी अधिक पाई गई जिसके कारण पानी की गुणवत्ता प्रभावित हुई और परिणामतः खराब पाई गई। इसी तरह 39 जगहों पर पानी की गुणवत्ता टीडीएस के कारण प्रभावित हुई, नतीजन उसमें खराबी पाई गई। नियमानुसार प्रति लीटर पानी में डीओ 5 मिलीग्राम एवं बीओडी 3 मिलीग्राम प्रति या इससे कुछ ज्यादा होनी चाहिए। टीडीएस की मात्रा 500 मिलीग्राम से ज्यादा होनी चाहिए।

केन्द्र सरकार ने भले ही गंगा की सफाई को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चला रखा हो लेकिन असलियत यह है कि देश की कई नदियाँ गंगा से भी बदतर हालत में हैं। दिल्ली से आगरा के बीच यमुना देश की सबसे मैली नदी है। वहीं सहारनपुर से लेकर गाजियाबाद के बीच हिंडन नदी प्रदूषण के मामले में तीसरे नम्बर पर है। सीपीसीबी की एक अन्य रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। सीपीसीबी ने तीन साल तक देश की 290 नदियों में पानी की गुणवत्ता का विश्लेषण किया और पाया कि 12,363 नदी क्षेत्र में से 8500 किलोमीटर क्षेत्र इस कदर प्रदूषित है कि वहाँ जलीय पौधों और जीव जन्तुओं तक का जीना दूभर है। इसमें सबसे दुखदायी बात यह है कि वर्ष 1991 के मुकाबले देश की इन 290 नदियों का प्रदूषण स्तर अब दोगुना हो गया है।

रिपोर्ट के अनुसार इन नदियों के किनारे बसे 370 बड़े शहरों में प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। इन शहरों से आने वाला कचरा ही नदियों में गन्दगी की सबसे बड़ी वजह है। रिपोर्ट की मानें तो देश में ऐसी एक भी नदी नहीं है जो पूरी साफ-सुथरी हो। असल में देश में कुल 445 नदियाँ हैं जिनमें बीओडी का स्तर 290 मापा गया है। असल में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खामियाजा सबसे ज्यादा नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदी गंगा-यमुना को हमने इस सीमा तक प्रदूषित कर डाला है कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिये अब तक करीब 15 अरब रुपए खर्च किये जा चुके हैं, फिर भी उनकी हालत पहले से ज्यादा बदतर है।

अन्धाधुन्ध विकास का परिणाम नदी के प्रदूषण के रूप में सामने आया है, नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है। 14 बड़ी, 55 मध्यम और सैकड़ों छोटी नदियों में जीवनदायिनी जल की जगह सीवेज का पानी बह रहा है। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का आन्दोलन 1979 में शुरू हुआ और अभियान पिछले लगभग 28-29 वर्षों से चल रहा है लेकिन आजतक कोई बदलाव नहीं आया है। सच यह है कि हमारे देश की पहचान नदी से है, नदियों के बगैर भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ये हमें बहुत कुछ देती हैं। इन्हें शुद्ध रखना हमारा कर्तव्य है। यदि हमने इन्हें गन्दा किया तो एक कल्प तक नरक भोगना होगा। राष्ट्रीय नदी गंगा को इतना प्रदूषित कर डाला है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई जगहों पर वह इतनी गन्दी है कि उसका जल आचमन लायक भी नहीं है। कानपुर से आगे का जल पित्तााशय के कैंसर और आंत्रशोथ जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। कभी खराब न होने वाला गंगा जल का खास गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिये जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा, तमाम जहरीला रसायन व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे का तोहफा देकर वही उसका जीवन लेने पर तुले हैं।

असल में अपने 1376 किमी लम्बे रास्ते में मिलने वाली कुल गन्दगी का अकेले 2 फीसदी यानी 22 किमी के रास्ते में मिलने वाली 79 फीसदी दिल्ली की गन्दगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिये काफी है। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएँ बनी। लेकिन यमुना गन्दे नाले में बदलती जा रही है। बंगाल की सबसे बड़ी नदी महानन्दा अपना कद खोकर गाँवों-शहरों का कचरा ढोने वाली नाला बनकर रह गई है। अमरकंटक से शुरू होकर विन्ध्य और सतपुड़ा की पहाड़ियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने वाली नर्मदा का कुल 1,289 किमी की यात्रा में अथाह दोहन हुआ है।

यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक जाकर आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई। वह आज दम तोड़ने के कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की छोटी-बड़ी जल धाराएँ सूख गई हैं। पीलीभीत के गोमद ताल, माधवटांडा से लेकर सीतापुर, हरदोई, लखनऊ, बहराइच, जौनपुर और बनारस से पहले कैथी धार पर जाकर गंगा से मिलने वाली गोमती अपने 325 किलोमीटर लम्बे मार्ग में कहीं भी शुद्ध नहीं है। उत्तराखण्ड की गौला नदी एक पतली सी जलधारा नजर आती है जो हल्द्वानी पहुँचकर रेत-बजरी की खान सी होकर अस्तित्वहीन हो जाती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में चीनी मिलों ने नदियों को जहरीला बना दिया है।

असल में आज अन्धाधुन्ध विकास का परिणाम नदी के प्रदूषण के रूप में सामने आया है, नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है। एक वेबसाइट के मुताबिक आज 14 बड़ी, 55 मध्यम और सैकड़ों छोटी नदियों में जीवनदायिनी जल की जगह सीवेज का पानी बह रहा है। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का आन्दोलन 1979 में शुरू हुआ और अभियान पिछले लगभग 28-29 वर्षों से चल रहा है लेकिन आजतक कोई बदलाव नहीं आया है।

सच यह है कि हमारे देश की पहचान नदी से है, नदियों के बगैर भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ये हमें बहुत कुछ देती हैं। इन्हें शुद्ध रखना हमारा कर्तव्य है। यदि हमने इन्हें गन्दा किया तो एक कल्प तक नरक भोगना होगा। इस बारे में इस्लाम तक कहता है कि अपना गन्दा जिस्म लेकर दरिया में मत जाओ, वरना दरिया नापाक हो जाएगा और तुम गुनाहों में मुब्तला हो जाओगे। इसे यदि सभी उसूल बना लें तो दुनिया की सारी नदियाँ पाक हो जाएँगी। इनकी स्वच्छता हेतु जागरुकता समय की माँग है। नदियाँ बचाने का काम सभी को सामूहिक सामाजिक दायित्व के रूप में करना चाहिए। हमारे पुराणों में नदियों के बारे में कहा गया है जो प्रदेश नदी से हीन है, वह ज्ञान-विज्ञान से भी हीन होता है। इसलिये नदी की आवश्यकता का मूल यही रहा है कि वह अगाध पापराशिजनित भय का निवारण कर सदैव सुशोभित रहे और सबका हित करती रहे। इसमें दो राय नहीं कि नदियाँ किसी भी सभ्यता की अर्द्धांगिनी होती हैं। वे उसके पोर-पोर से जुड़ी होती हैं। ऐसी कि अगर नदियाँ न हों, तो सभ्यता विकास की अधूरी पगडंडियों पर ही स्थगित हो जाए। कूर्म पुराण के आठवें अध्याय में आदमी के अस्तित्व और उसकी संवेदनाओं से जोड़ते हुए नदियों को इस तरह महिमा मंडित किया गया है ‘त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम् सद्यः पुनाति गांगेयं दर्शनादेव तु नार्मदम्’।

तात्पर्य यह है कि सरस्वती तीन दिन में, यमुना एक सप्ताह में, गंगा तुरंत और नर्मदा तो दर्शन मात्र से पवित्र कर देती है। यह पवित्रता भले ही पाप और पुण्य के अर्थों में प्रचारित की गई हो, सच यह है कि यह हमारे मानसिक विकास की सूचक है। दरअसल 33 हजार पाँच सौ करोड़ साल पहले जन्मी इस पृथ्वी पर नदियाँ बननी शुरू हुईं। पिछले बीस करोड़ वर्षों के दौरान जब पृथ्वी की सतह में दरारें पड़नी शुरू हुईं, नदियों के बनने के साथ ही मानव सभ्यता भी अस्तित्व में आई। इसे अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परम्परा कि हमारे आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नानकर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते।

प्रदूषित गंगा नदीदरअसल पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूँकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिये जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मँडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। नतीजन कहीं नदियाँ गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का रूप धारण कर लेती हैं और कहीं उनमें जल है भी तो वह इतनी प्रदूषित हैं कि वह पीने लायक भी नहीं है।

वैसे देश में इस बारे में सभा-सेमिनारों, जन-चेतना यात्राओं, पदयात्राओं, आन्दोलनों और राजग सरकार के पदासीन होते ही नदियों के भविष्य को लेकर व्यक्त संकल्पों के उपरान्त किये गए मंथन का सार-संक्षेप यही है कि अब भी चेत जाओ, यदि अब भी नदियों की सुध नहीं ली तो भविष्य में मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। ऐसी स्थिति में अब अगर हमारे नीति-नियन्ता नदियों के पुर्नजीवन की उचित रणनीति बना सकें, तो यह सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। इसलिये अब भी समय है, नदियों पर तरस खाओ। अन्यथा आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ नहीं करेंगी। यदि समय रहते कुछ सार्थक कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब नदियाँ तो विलुप्त होंगी ही, हम खुद सूखती नदियों के साथ मिट जाएँगे।

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