क्या शीत लहर प्राकृतिक आपदा नहीं है ?

21 Jul 2011
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पूर्व में की गई अनेक अनुशंसाओं के बावजूद शीतलहर को प्राकृतिक आपदाओं की श्रेणी में न डालना भारतीय शासन व्यवस्था का कृषि के प्रति दुराग्रह ही दिखाता है। इस वर्ष मध्यप्रदेश में पाला पड़ने से हजारों करोड़ रुपए की फसलें नष्ट हो गई और लाखों किसान बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चैहान की पहल पर पुनः उपरोक्त मसले पर बहस प्रारंभ हुई है। आशा है इस बार इसका सकारात्मक परिणाम सामने आएगा और किसानों को राहत मिल पाएगी।

जलवायु के बदलते स्वरूप से सचेत हुई केंद्र सरकार अब शीतलहर या पाला पड़ने को आपदा सहायता कोष में शामिल कर सकती है। वर्तमान में राष्ट्रीय आपदा नियंत्रण कोष एवं राज्य आपदा नियंत्रण कोष के अंतर्गत तूफान, सूखा, भूकंप, सुनामी या कीटों के प्रकोप जैसी विपदाओं से ही पीडि़तों को मुआवजा मिल पाता है। गृह मंत्रालय के एक सूत्र का कहना है कि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाला मंत्रीसमूह शीतलहर या पाला पड़ने को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर इसे राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय आपदा राहत कोषों में सम्मिलित करने पर चर्चा कर रहा है। गृह मंत्रालय के अधिकारी का कहना है कि इस हेतु संसद में एक संशोधन लाना होगा। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चैहान के अनुरोध के पश्चात यह विमर्श प्रारंभ हुआ है। इस वर्ष जनवरी में पाले के कारण मध्यप्रदेश पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ा था। केंद्रीय कृषि मंत्रालय एवं योजना आयोग दोनों ने ही इस पहल का स्वागत किया है।

मध्यप्रदेश में इस वर्ष अत्यधिक ठंडे मौसम के कारण करीब 36 लाख हेक्टेयर में रबी की फसलें जैसे अरहर, चना, मसूर, मटर, गेहूं और सब्जियों की फसल नष्ट हो गई थी। इससे 46 जिलों के करीब 35 लाख किसान प्रभावित हुए थे। राज्य सरकार मई तक 1,395 करोड़ रुपए मुआवजे के रूप में बांट चुकी है। चैहान का कहना है कि 1,395 करोड़ रुपए इकट्ठा करने के लिए उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों से 377 करोड़ रुपए उधार लेने पड़े हैं। चैहान ने इस संबंध में प्रधानमंत्री और मंत्री समूह के सदस्यों से अनेक बार मुलाकातें भी की थीं। शीत लहर या पाले को सहायता कोष में शामिल करने के अलावा उन्होंने अतिरिक्त केंद्रीय मदद के रूप में राज्य द्वारा खर्च किए गए 1,395 करोड़ रुपए की भरपाई की बात भी कही है। चैहान का कहना है कि मंत्रियों का समूह सैद्धांतिक रूप से उपरोक्त दोनों बातों पर राजी हो गया है। साथ ही केंद्र मध्यप्रदेश में पाले के कारण हुई हानि के आकलन के लिए वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक समूह के गठन पर भी सहमत हो गया है।

भोपाल स्थित भारतीय मौसम विभाग के निदेशक डी.बी.दुबे के अनुसार पाला एक प्राकृतिक आपदा है और यह अधिकांशतः फसलों को ही प्रभावित करता है। उनका यह भी कहना है कि यह किसानों को सुरक्षात्मक उपाय करने का मौका भी नहीं देता। मध्यप्रदेश में अनेक स्थानों पर शीत लहर इस वर्ष इतनी प्रबल थी कि ठंड के पिछले रिकार्ड टूट गए। उदाहरण के लिए रीवा जिले में 54 वर्ष का न्यूनतम तापमान-1.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज हुआ। उमरिया में तापमान-0.2 डिग्री सेल्सियस हो गया जो कि पिछले 74 वर्षों का न्यूनतम था। वहीं भोपाल में तापमान पिछले 33 वर्षों में सबसे कम यानि 2.3 डिग्री सेल्सियस तक गिर गया था। इस स्थिति को समझाते हुए डी.बी.दुबे कहते हैं कि यह आपदा पश्चिमी विक्षोभ की वजह से उत्तर भारत, जिसमें मध्यप्रदेश राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश शामिल हैं, में चली शुश्क एवं ठंडी हवाओं का परिणाम थी। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के निचले इलाकों में तूफान के खिलाफ बने प्रवाह ने भी इन तीन राज्यों में ठंडी हवाओं में वृद्धि की। किसानों के पास ऐसा विकल्प भी मौजूद नहीं है कि वे इस तरह के मौसम से अपनी फसलों का बीमा करवा सकें। क्योंकि राष्ट्रीय फसल बीमा योजना में ‘शीत या गर्म हवा की लहरों’ के बीमा का प्रावधान ही नहीं है।

पुरानी मांग:- पिछले पांच वर्षों से गर्म एवं ठंडी हवाओं अथवा पाले को आपदा राहत कोष में शामिल करने हेतु बहस चल रही है। राजस्थान और उत्तराखंड इन दोनों को प्राकृतिक आपदाओं की श्रेणी में शामिल करने का आग्रह कर रहे हैं। परंतु 13वें वित्त आयोग ने उनकी मांगों को रद्द कर दिया था। भारतीय कृषि अनुसंधान शोध परिषद ने भी अनुशंसा की थी ‘शीत लहर और लू’ को प्राकृतिक विपदाओं में सम्मिलित कर लिया जाए। 13वें वित्त आयोग द्वारा इस मसले के अध्ययन हेतु नियुक्त राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान ने 2009 में अपने अध्ययन प्रपत्र में कहा था कि आने वाले वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यंत प्रतिकूल मौसम होने से मानव जीवन पर खतरा बढ़ जाएगा। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि ‘इसलिए आयोग शीत लहर व गर्म हवा की लहर’ को आपदा की श्रेणी में शामिल करने पर विचार कर सकता है। बशर्तें ये शीत व गर्म हवा की लहरें अपनी प्रकृति में असामान्य हों और वे पिछले 20 वर्षों के दौरान दर्ज उच्चतम रिकॉर्ड से अधिक हों।’ परंतु आयोग ने इन अनुशंसाओं की अनदेखी कर दी।

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