खेल नहीं है नदियों का मेल

इस परियोजना के विशाल खर्च और पर्यावरणीय जोखिम को देखते हुए एक राय यह भी है कि इस परियोजना को भारत में जल के समग्र प्रबंध के नजरिये से देखा जाए। देश के सूखा त्रस्त क्षेत्रों जैसे राजस्थान, गुजरात और आंध्रप्रदेश में कुछ समय पहले तक जल संरक्षण की परंपरागत तकनीकें प्रचलित थीं, जो काल-प्रवाह में गुम हो गई। इन्हें पुनर्जीवित करके फिर से लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार जल के कुशल उपयोग और प्रबंध के लिए उन्नत तकनीकें मौजूद हैं, जिन्हें सरकार की आर्थिक सहायता से प्रचलित करके सूखे की आपदा के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसलिए इस महापरियोजना की ओर कदम बढ़ाने से पहले एक बार फिर से, नए नजरिये से, गहराई से सोच-विचार करने की जरूरत है।

अगर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले पर अमल होता है तो हिमालय की गोद से उतरी पवित्र-पावन गंगा अकेली नहीं बहेगी। इसे गंडक, दामोदर, स्वर्णरेखा और तीस्ता जैसी नदियों का साथ भी मिलेगा। इसी तरह, दक्षिण भारत में गोदावारी का मेल कृष्ण और महानदी से होगा। नदियों का यह मेल-मिलाप दरअसल देश की प्रमुख नदियों को आपस में जोड़ने वाली एक महाविशाल और महत्त्वाकांक्षी परियोजना का हिस्सा है। राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी के अनुसार हिमालयी और प्रायद्वीपीय भारत में नदियों को आपस में जोड़ने के लिए कुल 30 मेल प्रस्तावित हैं। मकसद यह है कि पूरे भारत में पानी का समान रूप से वितरण हो। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा की विडंबना से देश को बचाया जा सके। नदियों के मेल के जरिये जीवनदायी पानी का स्थानांतरण हो सके। विशेषज्ञों की राय में देश के कुछ भागों विशेषकर उत्तर की नदियों में पानी का आधिक्य (सरप्लस) है जबकि पश्चिम की अधिकांश नदियां पानी की कमी (डेफिसिट) से त्रस्त हैं। नदियों को जोड़कर यह समस्या काफी हद तक सुलझाई जा सकती है।

आजादी बाद से ही चली आ रही संकल्पना


यह विचार या संकल्पना नई नहीं है, आजादी के बाद से ही इस पर विचार किया जा रहा है। प्रधानमंत्री के रूप में मोरारजी देसाई के कार्यकाल के दौरान इस योजना पर जोर-शोर से काम किया गया परंतु ठोस योजना के अभाव और विशाल खर्च के मद्देनजर सब ठंडे बस्ते में चला गया। इस पर छह लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। बाद में एनडीए सरकार के समय सन् 2002 में इस परियोजना को जोरदार ढंग से लागू करने की बात उठी। दरअसल, उस समय तक इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का दखल शुरू हो गया था और परियोजना को लागू करने के लिए विशेषज्ञों के टास्क फोर्स का गठन भी हो चुका था। अक्टूबर, 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को एक दशक के अंदर नदियों को जोड़ने के लिए आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया। न्यायालय ने संविधान में उचित संशोधन करने की सिफारिश भी की जिससे राज्यों में इसका विरोध न हो सके।

दिसम्बर, 2002 में भारत सरकार ने हलफनामा दायर करके कह दिया कि 2016 तक यह पूरा किए जाने की योजना है। परंतु, अनेक मंचों पर विरोध के कारण बात आगे नहीं बढ़ सकी। हालांकि पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को सीधे निर्देश या कहें कि आदेश दिया कि नदियों को जोड़ने की परियोजना पर काम किया जाए। न्यायालय का फैसला काफी हद तक राष्ट्रीय व्यावहारिक आर्थिक अनुसंधान परिषद (एसीएईआर) की रिपोर्ट पर आधारित है, जो कहती है कि यह योजना जनहित में है और भविष्य में देश के सर्वांगीण आर्थिक विकास का जरिया भी बन सकती है। विशेषज्ञ इस फैसले से हैरत में हैं क्योंकि आमतौर पर सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों में सरकार को विचार करके आवश्यक कदम उठाने की सिफारिश करता है, सीधे लागू करने का आदेश नहीं देता। इसकी शायद एक वजह यह हो सकती है कि मामला कई दशकों से लटक रहा है और बिना आदेश के सिरे चढ़ता दिखाई नहीं देता। हालांकि न्यायालय के ताजा आदेश ने कई मुश्किलें खड़ी कर दी हैं।

जोड़ से राज्यों में कई गुना बढ़ेगा बवाल


दरअसल, इस महापरियोजना को लागू करना इतना आसान भी नहीं है। पानी अब भी राज्यों की कार्यसूची में शामिल है। इसलिए केंद्र की दखलअंदाजी एक सीमा तक ही हो सकती है। अधिकांश राज्य यह मानने को तैयार नहीं है कि उनके राज्य की नदियों में पानी का आधिक्य है। इसलिए वे पानी की साझेदारी करना नहीं चाहते। लिहाजा नदियों को जोड़ने की परियोजना देश के अनेक राज्यों में कानूनी और सामाजिक संकट खड़ा कर सकती है। कावेरी के पानी के बंटवारे को लेकर जिस तरह कर्नाटक और तमिलनाडु में ठनी रहती है, उससे इस योजना से उठने वाले विवादों का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। दूसरी समस्या तकनीकी है, दरअसल हम कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की समस्या को अब भी तीन-चार दशक पुराने चश्मे से देख रहे हैं। हाल में वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं के ‘पैटर्न’ में बदलाव आया है, जो भविष्य में और भी गहरा सकता है। अभी हाल में राजस्थान समेत पश्चिम भारत में इतना पानी बरसा कि बाढ़ आ गई जबकि असम सहित उत्तर भारत में सूखा पड़ गया। इसलिए इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर फिर से विचार करने की जरूरत है। इसके साथ ही विभिन्न राज्यों में प्रचलित कृषि प्रणालियों और उनमें आ रहे बदलावों को भी निगाह में रखना होगा क्योंकि नदियों का पानी मुख्य रूप से कृषि के उपयोग में लाया जाएगा।

आपदा को बुलावा


नदियों को कुदरत की महज एक भौतिक संरचना के रूप में देखना भी शायद एक भूल है। नदियां अपने बहाव के साथ जीवों की एक विशाल दुनिया भी साथ लेकर चलती हैं, जो नदी क्षेत्र की जलवायु के साथ विकसित हुई है। नदियों का मेल और पानी का बड़े पैमाने पर स्थानांतरण इन जीवों को कैसे प्रभावित करेगा, यह गहराई से जानने-समझने की जरूरत है। इसके साथ ही यह भी देखना होगा कि पानी की विशाल मात्रा का इधर-उधर जाना प्राकृतिक आपदाओं जैसे भू-स्खलन, भूकंप, हिमपात आदि को कैसे प्रभावित करेगा? दरअसल, अभी तक एक परियोजना के रूप में इस विचार पर हानि- लाभ का अध्ययन नहीं हुआ है और न ही ऐसा कोई डाटाबेस तैयार किया गया है, जो इससे संबंधित आंकड़ों को प्रस्तुत कर सके। नदियों में जल के आधिक्य-अभाव को लेकर भी व्यापक और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। आवश्यकता है कि इस प्रकार के वैज्ञानिक अध्ययन किए जाएं और उनके नतीजों को पारदर्शिता के साथ साधारण जनसमुदाय से लेकर योजनाकारों तक पहुंचाया जाय ताकि भ्रम और अविश्वास की स्थिति न उत्पन्न हो।

दूर तक काम नहीं आएंगे अमेरिकी अनुभव


इस महापरियोजना के पक्षकार कहते हैं कि यह विशुद्ध विकास का कार्यक्रम है और इस पर तुरंत अमल किया जाना चाहिए। वे उदाहरण अमेरिका का देते हैं, जहां नदियों को जोड़ने की कवायद 60-70 साल पहले पूरी कर ली गई थी। लेकिन यह तुलना ठीक नहीं है। अमेरिका की जलवायु, खेती, सामाजिक-आर्थिक दशा और बुनियादी ढांचा हमसे बहुत अलग है। वहां भूमि का क्षेत्र भारत की तुलना में लगभग पांच गुना ज्यादा है जबकि आबादी छह गुना कम। इसलिए हमें इस ओर नकल से नहीं, अकल से बढ़ना होगा। दूसरे, हमारे देश में नदियों को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भी देखा जाता है, इसलिए नदियों का जुड़ाव शायद कहीं न कहीं इनके सांस्कृतिक महत्व को प्रभावित करेगा।

दरअसल, इस प्रकार की किसी भी परियोजना को लागू करने से पहले अनेक सरकारी स्वीकृतियों और अनुमोदन के दौर से गुजरना पड़ता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि नदियों का जोड़ तकनीकी रूप से एक विचार है, इस पर अभी तक एक ‘परियोजना’ के रूप में कार्य नहीं हुआ है। सच तो यह है कि नदियों के प्रस्तावित 30 मेलों पर 30 परियोजना रिपोर्ट तैयार करनी होगी और इन पर नियमानुसार मंजूरी लेनी पड़ेगी। इस दिशा में शायद अभी तक कोई सार्थक काम नहीं हो पाया है। इस परियोजना के विशाल खर्च और पर्यावरणीय जोखिम को देखते हुए एक राय यह भी है कि इस परियोजना को भारत में जल के समग्र प्रबंध के नजरिये से देखा जाए। देश के सूखा त्रस्त क्षेत्रों जैसे राजस्थान, गुजरात और आंध्रप्रदेश में कुछ समय पहले तक जल संरक्षण की परंपरागत तकनीकें प्रचलित थीं, जो काल-प्रवाह में गुम हो गई। इन्हें पुनर्जीवित करके फिर से लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार जल के कुशल उपयोग और प्रबंध के लिए उन्नत तकनीकें मौजूद हैं, जिन्हें सरकार की आर्थिक सहायता से प्रचलित करके सूखे की आपदा के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसलिए इस महापरियोजना की ओर कदम बढ़ाने से पहले एक बार फिर से, नए नजरिये से, गहराई से सोच-विचार करने की जरूरत है।

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