खेत को आस्था का विषय बनाएँ

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चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिशत है, जबकि भारत में यह गत् 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देश में हिंसक आन्दोलन भी हो रहे हैं। यह वक्त है कि हम खेती का रकबा बढ़ाने पर काम करें, इसे लिए जरूरी है कि उत्पादक जमीन पर हर तरह के निर्माण पर पाबन्दी हो। किसान को फसल के सुनिश्चित दाम, उसके परिवार के लिए शिक्षा व स्वास्थ्य की गारंटी हो और खेत व खेती को पावन कार्य घोषित किया जाए। तमिलनाडु से श्रीलंका की दूरी कम कर सालाना हजारों करोड़ की बचत करने वाले सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट की घोषणा 10 साल पहले हुई थी। हालांकि वैज्ञानिकों की इस बात से सहमति नहीं है कि यह रामायण में उल्लिखित नल-नील द्वारा निर्मित वह पुल है जिसे पारकर रामचन्द्रजी रावण को हराने लंका गए थे। चूँकि मामला आस्था का है सो किसी ने परवाह नहीं की कि इस परियोजना के लटकने से हर साल पाँच हजार करोड़ से अधिक का सम्भावित लाभ थम गया है। लेकिन विकास के लिए सड़क, औद्योगिक क्षेत्र, बाँध, पुल बनाने जैसे कामों के लिए लहलहाती फसल वाले खेत को अधिसूचना जारी कर कब्जा करने पर ना तो किसी की श्रद्धा आहत हो रही है और ना ही संवेदना।

केन्द्र सरकार के भूमि अधिग्रहण संशोधन पर घमासान मचा है, लेकिन सभी उचित मुआवजे व जमीन पर कब्जे की शर्तों पर उलझें हैं, जबकि होना तो यह चाहिए कि फसल देने वाली किसी भी जमीन का भू-उपयोग बदलने या खेत को उजाड़ने पर ही पूरी तरह पाबन्दी लगना चाहिए। खेत, किसान, फसल हमारे लोक व सामाजिक जीवन में कई पर्व, त्योहार, उत्सव का केन्द्र हैं, लेकिन विडम्बना है कि किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है।

अब जमीन की कीमत देकर खेत उजाड़ने की गहरी साज़िश को हम समझ नहीं पा रहे हैं। यह जान लें कि कार, भवन, जैसे उत्पादों की तरह पेट भरने के लिए अनिवार्य अन्न किसी कारखाने में नहीं उगाया जा सकता है और जब तक खेत है तभी तक हम खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर हैं। एक तरफ देश की आबादी बढ़ रही है, लोगों की आय बढ़ने से भोजन की मात्रा बढ़ रही है, दूसरी ओर ताज़ातरीन आँकड़ा बताता है कि बीते साल की तुलना में इस बार गेहूँ की पैदावार ही 10 फीसदी कम हुई है।

देश की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृषि है। आँकड़े भी यही कुछ कहते हैं। देश की 67 फीसदी आबादी और काम करने वालों का 55 प्रतिशत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खेती से जुड़ा हुआ है। एक अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में पिछले साल की तुलना में कोई तीन प्रतिशत कम, लगभग 85 लाख टन अनाज कम पैदा होगा। पिछले दो दशक के दौरान तीन लाख से ज्यादा किसान इसलिये खुदकुशी कर चुके हैं क्योंकि देश का पेट भरने के चक्कर में उन पर कर्जा चढ़ गया या फिर मौसम दगा दे गया या फिर मेहनत की फसल जब लेकर मण्डी गया तो वाजिब दाम नहीं मिला।

इस बीच मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअन्दाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आँकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इज़ाफा करते हैं।

यही नहीं मनरेगा भी खेत विरेाधी है। नरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मजदूर ना मिलने से हैरान-परेशान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं। गम्भीरता से देखें तो इस साज़िश के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएँ हैं जो कि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाश रही हैं। खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिये कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है।

हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है। नेशनल सैम्पल सर्वें के आँकड़े बताते हैं कि आन्ध्र प्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं। पंजाब और महाराष्ट्र जैसे कृषि प्रधान राज्यों में यह आँकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है। यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की ख़ुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएँ प्रकाश में आई हैं।

यह आँकड़े जाहिर करते हैं कि कर्ज किसान की चिन्ता का निराकरण नहीं हैं। परेशान किसान खेती से मुँह मोड़ता है, फिर उसकी जमीन को जमीन के व्यापारी खरीद लेते हैं। मामला केवल इतना सा नहीं है, इसका दूरगामी परिणाम होगा अन्न पर हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त होना तथा, जमीन-विहीन बेराजगारों की संख्या बढ़ना।

किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देश के चहुँमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है। किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका शोषण हर स्तर पर है।

किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भण्डारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूँजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध - जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं। चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिशत है, जबकि भारत में यह गत् 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है।

अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देश में हिंसक आन्दोलन भी हो रहे हैं। यह वक्त है कि हम खेती का रकबा बढ़ाने पर काम करें, इसे लिए जरूरी है कि उत्पादक जमीन पर हर तरह के निर्माण पर पाबन्दी हो। किसान को फसल के सुनिश्चित दाम, उसके परिवार के लिए शिक्षा व स्वास्थ्य की गारंटी हो और खेत व खेती को पावन कार्य घोषित किया जाए।

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