खेती को उद्योग बनने से बचाएँ


भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में छोटी-छोटी जोतों को बड़े-बड़े फार्म में तब्दील करके नकदी फसल उगाने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। खेती से पूँजी कूटने के बढ़ रहे लालच से हमारे खेत कुछ सालों में बाँझ या बंजर भूमि में तब्दील हो रहे हैं। हमारी पारम्परिक खेती में किसान और खेत के बीच में एक संवेदनशील रिश्ता हुआ करता था, लेकिन इस नई व्यवस्था से इन रिश्तों की चिंदी-चिंदी उड़ रही है।

पिछले दिनों भारत सहित पूरी दुनिया में इंडोसल्फान कीटनाशी पर प्रतिबन्ध लगाए जाने को लेकर बवाल मचा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय एक खण्डपीठ ने बीते दिनों जानलेवा कीटनाशी इंडोसल्फान के उत्पादन, बिक्री, इस्तेमाल और निर्यात पर पूरे देश में पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया है। डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इण्डिया (डीवाईएफआई-केरल विंग) द्वारा दायर की गई याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का यह अहम फैसला सामने आया। खण्डपीठ ने निर्देश दिया कि अगले आदेश तक इस विवादास्पद कीटनाशी के उत्पादकों को आवंटित किये गए लाइसेंस भी जब्त कर लिये जाएँ। खण्डपीठ ने दो समितियों को इस कीटनाशी के मनुष्य जीवन और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी है। भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद (आइसीएमआर) के महानिदेशक और कृषि आयुक्त इन समितियों के प्रमुख थे। खण्डपीठ ने विशेषज्ञ समिति से अपनी अन्तरिम रिपोर्ट में इंडोसल्फान के प्रतिकूल प्रभावों और उसके विकल्पों पर चर्चा करने का निर्देश दिया। विशेष समिति को मुख्यतः इंडोसल्फान पर प्रतिबन्ध लगाने, इसके मौजूदा स्टॉक को कई चरणों में समाप्त करने या इसके विकल्प क्या हो सकते हैं, पर चर्चा करनी है।

इंडोसल्फान पर प्रतिबन्ध क्यों लगाया जाना चाहिए, इसका मानव जीवन और पर्यावरण पर क्या प्रतिकूल असर पड़ रहा है? क्या दूसरे कीटनाशी मानव जीवन और पर्यावरण के लिहाज से ठीक हैं? क्या इंडोसल्फान के विकल्प सुरक्षित हैं? इसकी भारतीय बाजार में कितनी हिस्सेदारी है? क्या उस हिस्सेदारी पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर तो इस पर प्रतिबन्ध की बात नहीं की जा रही है? सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन सच यह है कि इस प्रतिबन्ध की अवधि में किसानों को कीटनाशी की जरूरत ही नहीं पड़ती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह प्रतिबन्ध मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए फौरी तौर पर लगाया है और दो समितियों को इंडोसल्फान के प्रतिकूल असर के बारे में विस्तार से रिपोर्ट देने को कहा, लेकिन क्या इसके विकल्प के तौर पर जो कीटनाशी इस्तेमाल में लाये जाएँगे, वे मानव जीवन और पर्यावरण के लिये नुकसानदेह नहीं होंगे?

हमारे देश में इंडोसल्फान के निर्माण में लगी कम्पनियाँ फिलहाल कीटनाशक दवाएँ 200-250 रुपए प्रतिलीटर उपलब्ध करा रही हैं, मगर इसके विकल्प के तौर पर जिन कीटनाशकों की पैरवी की जा रही है, उनकी कीमत 3200 रुपए प्रतिलीटर है। क्या भारत सहित उन गरीब मुल्कों के किसान, जहाँ इंडोसल्फान उपयोग में लाया जा रहा है, इन महंगे विकल्पों की कीमत चुका पाएँगे? इसके जोखिमों को देखते हुए कुल 87 देशों में इस पर प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है। अमेरिका और यूरोपीय संघ में इस रसायन पर ही पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।

एक अनुमान के अनुसार भारत में इसका कुल कारोबार 500 करोड़ रुपए से ज्यादा का है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ (एनआइओएच) ने केरल के कासरगोड जिले में आयोजित किये गए एक अध्ययन के आधार पर रिपोर्ट तैयार करके केन्द्र सरकार को सौंपी थी। इसके अनुसार कासरगोड जिले में इंडोसल्फान के इस्तेमाल से बच्चों में मंदता, बौद्धिक पिछड़ापन, सुनने की दिक्कतें आदि समस्याएँ पैदा होने लगीं। इसके अलावा कई अन्य अध्ययनों में यह पाया गया कि यह मानव जीवन और जलीय जीवन पर नकारात्मक असर डालती है। केरल में इस कीटनाशी की वजह से अब तक 400 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। मनुष्य और पशुओं में जन्म के समय विकलांगता या अन्य किस्म की दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। इसका जहर कैंसर जैसे जानलेवा रोग को जन्म दे रहा है। पंजाब के बठिंडा, मानसा और फरीदकोट जिले में कैंसर के व्यापक प्रसार की वजहों में से रासायनिक कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाया जाना है।

इंडोसल्फान पर प्रतिबन्ध लगाने और उसकी जगह दूसरे रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग की बात जिनेवा सम्मेलन (25 अप्रैल, 2011) में किये जाने के पीछे के उद्देश्यों को समझने की कोशिश होनी चाहिए। जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के चलन को खत्म करके उसकी जगह रासायनिक खाद और उर्वरकों के उपयोग के जरिए सरकार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खेती को उद्योग में तब्दील करना चाहती हैं। खेती के जरिए जीवन जीने के लिये जरूरी फसलों को उगाने की बजाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ नकदी फसलों के उत्पादन, उसमें सस्ते और आसानी से उपलब्ध खाद और कीड़ों को मारने के उपायों की जगह त्वरित असर के नाम पर रसायनों को बढ़ावा दे रही हैं। सरकार और कॉरपोरेट कम्पनियाँ खेती को उद्योग में तब्दील कर देना चाहती हैं। यही वजह है कि भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में छोटी-छोटी जोतों को बड़े-बड़े फार्म में तब्दील करके नकदी फसल उगाने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। खेती से पूँजी कूटने के बढ़ रहे लालच से हमारे खेत कुछ सालों में बाँझ या बंजर भूमि में तब्दील हो रहे हैं। हमारी पारम्परिक खेती में किसान और खेत के बीच में एक संवेदनशील रिश्ता हुआ करता था, लेकिन इस नई व्यवस्था से इन रिश्तों की चिंदी-चिंदी उड़ रही है। यही वजह है कि कम पानी वाले इलाके राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में अधिक पानी वाली फसल चावल उपजाए जा रहे हैं। खेती के इस नए तरीके में भूजल का बेतरतीब तरीके से दोहन करके, अत्यधिक रासायनिक उर्वरक और रासायनिक कीटनाशकों को इस्तेमाल में लाया जा रहा है। सरकार को किसान के हितों की अनदेखी करके कॉरपोरेट कम्पनियों की पूँजी बढ़ाने में साझेदारी निभाने से बचना चाहिए, क्योंकि सरकार की अन्तिम जवाबदेही आम जनता के प्रति बनती है, न कि कॉरपोरेट कम्पनियों के प्रति।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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