खेती से अनजान लोग

31 Dec 2012
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फसलों के साथ-साथ फसल आधारित कुटीर उद्योग भी हमारे देश में प्रचुर मात्रा में चलते थे, जिन्हें चलाने के लिये किसी भी प्रकार की बाहरी ऊर्जा की जरुरत नहीं होती थी। लेकिन अमेरिका की तरह इस विकेन्द्रीकृत खेती आधारित अर्थव्यवस्था को तोड़कर बड़े उद्योगों को देश में लाया गया। अमेरिका में उद्योगों का पेट भरने के लिए जिस प्रकार खेती चलाई जाती है लगभग वही प्रयास हमारे देश में भी चल रहा है। उसके लिए किसानों को अपनी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है। आज़ादी के बाद स्थापित केन्द्रीय मंत्रिमंडल और सचिवालय में सबसे ज्यादा उपेक्षित कृषि मंत्रालय रहा है। खेती को आधुनिक दर्जा देने की हड़बड़ाहट में शासन ने हमारी पारंपरिक और अनौपचारिक कृषि शिक्षा को पूरी तरह नकार दिया है और विदेशी खेती से भरपूर कृषि शिक्षा और अनुसंधान इस देश में प्रारंभ हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि खेतों और खेती को गांवों से अलग कर दिया गया। पर्यावरण, मौसम और सामाजिक ढांचे की समग्रता से समझ कर कार्य कर रही ग्रामीण अर्थ और शासन व्यवस्था को तोड़कर अंग्रेजों की तरह हमारे शासकों ने भी किसानों को नक़दी फ़सलों की ओर मोड़ा, आधुनिकता के नाम पर बड़े-बड़े रासायनिक खाद संयंत्र इस देश में लगाए। जो काम केन्द्र शासन ने किया वहीं काम अब राज्य सरकारें भी कर रही हैं। खेती को लाभकारी धंधा बनाया जा रहा है। धंधा वह कर सकता है, जिसे व्यापार-व्यवसाय की, लाभ हानि की, पूँजी निवेश की समझ हो। केवल मौसम के भरोसे शुष्क खेती करने वाले अधिकांश किसान दो जून की रोटी पैदा नहीं कर सकते उन्हें व्यापार, व्यवसाय, धंधा कैसे सिखाया जाए?

पर्यावरण की अनदेखी इस देश के आधुनिकता की सबसे बड़ी त्रासदी है। वनों में रहकर तप और अध्ययन कर रहे हमारे ऋषि मुनियों ने प्रकृति और पर्यावरण को सुरक्षित रखकर मौसम के अनुरूप उग रही विभिन्न वनस्पतियों से हमारी फ़सलों को खोजा था। हजारों साल पहले वराह मिहिर ने पर्यावरण को दो भागों में रखकर रेखांकित किया था।

एक भौतिक और दूसरा जैविक। बकौल उनके समुद्र, नदी, नाले पर्वत, भौतिक पर्यावरण में आते हैं। जबकि मानव, पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, जैविक पर्यावरण का भाग है और इन दोनों में आपसी समन्वय को पारिस्थितिकी या इकोलॉजी कहते हैं। इसी आधार पर हमारे देश को कई कृषि जलवायु में बाँटा गया था और उसी के आधार पर हमारे गाँवों की रचना हुई थी। जंगलों और पहाड़ों में बसे गाँवों की खेती और उनके खान-पान को ध्यान में रखकर ही हमारी फसल विविधता को अंजाम दिया गया था। आदिवासी तबके के लोगों और सीमांत कृषकों के लिए कोदो, कुटकी, रागी, राला, चना, मसूर, मटकी, बटले जैसे अनाजों की खेती और बोर, जामुन, खिरनी, शहतूत जैसे फल वहां लगाए जाते थे। लगभग जंगली किस्म के इन खाद्यानों में लोहा, तांबा, चूना और खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में रहते थे। उनकी खेती भी अक्सर बहुफसल होती थी। उनसे थोड़ी विकसित लेकिन वर्षा आधारित शुष्क खेती में ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, जई, दलहनी और फलों, फूलों और सब्जियों वाली फसलें बोना किसानों को सिखाया गया था।

फसलों के साथ-साथ फसल आधारित कुटीर उद्योग भी हमारे देश में प्रचुर मात्रा में चलते थे, जिन्हें चलाने के लिये किसी भी प्रकार की बाहरी ऊर्जा की जरुरत नहीं होती थी। लेकिन अमेरिका की तरह इस विकेन्द्रीकृत खेती आधारित अर्थव्यवस्था को तोड़कर बड़े उद्योगों को देश में लाया गया। अमेरिका में उद्योगों का पेट भरने के लिए जिस प्रकार खेती चलाई जाती है लगभग वही प्रयास हमारे देश में भी चल रहा है। उसके लिए किसानों को अपनी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है। इन उद्योगों को चलाने के लिए जो ऊर्जा चाहिए उसके लिए हमारे बेशकीमती प्राकृतिक जंगलों को डुबोकर और वहां बस रहे आदिवासियों को शहरों में भटकने के लिए विवश किया जा रहा है।

जंगलों और खेतों को तोड़कर जो उद्योग लगाए गए हैं वो देश में समृद्धि लाने के लिए है। क्या हम मान लें कि इन उद्योगों से गांव समृद्ध हो रहे हैं? क्या समृद्धि की यह शर्त है कि उनके पुश्तैनी खेती व्यवसाय से उन्हें विदा करके उन्हें शहरों में रहने के लिए बाध्य किया जाए? जो रोटी, कपड़ा और मकान वे खेती से ही जुटा लेते थे, क्या उसकी आपूर्ति शहरों में संभव है? और यदि वह हो भी गई तो जीवनयापन के लिए आवश्यक चीजें खरीदने लायक मुद्रा उसकी जेब में हैं? या वो साधन जुटाने के लिए जो तकनीकी ज्ञान उसे चाहिए क्या उसके पास है? शहरों के आस-पास जो भीमकाय तकनीकी शिक्षा संस्थान खोले जा रहे हैं वहां पढ़ रहे और गाँवों से आए अधिकांश विद्यार्थियों के क्या हाल हैं? गुरु-शिष्य परंपरा की जो विरासत हमें इस देश में मिली थी आज उनके उल्टे इन शिक्षण संस्थाओं में चल रहा है। गाँवों से आए अधिकांश युवा गांव के बनिस्बत महंगे शहरी बसाहट में दिशाहीन होकर अनैतिक व्यापार और व्यवसायों में लिप्त है। विदेशों में स्कूलों में हो रही अंधाधुंध गोलीबारी की घटनाएँ हमें पढ़ने को मिलती है, क्या हमें उसका हमारे शांति प्रिय देश में इंतजार है? क्या यह समय नहीं है कि हम हमारी खोई विरासत को देखें, समझें और शहरों को छोड़ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फिर से संबल दें?

लाल अम्बाडीलाल अम्बाडीग्रामीण उद्योगों में कुछ उदाहरण बानगी के लिए देना अनुचित नहीं होगा। हमारे यहां गाँवों में देशी कपास बो कर गांव-गांव चरखे चलते थे, तेल की घानियां चलती थीं, रस्सी, साबुन, जूते, चप्पल गाँवों में बनते थे। लोगों को रोज़गार मिलता था। ये सब उद्योग धंधे बंद हो गए हैं और अब गाँवों में नरेगा जैसी योजनाएं चलाकर उन्हें धन बाँटा जा रहा है? हमारे यहां शीतलपेयों के लिए जो किसानों से जमीनें हड़पी जा रही है। वो शीतलपेय या उनसे कई गुना ज्यादा सुगंधी पौष्टिक और स्वादिष्ट शीतल पेय तो कुटीर उद्योगों द्वारा हमारे गाँवों में चलाए जा सकते हैं। लाल अम्बाडी, जिसे अंग्रेजी में रोजेली या गांगुरा कहते है। जिसका वानस्पतिक नाम है हिबिस्कस सबदरीफा। यह हमारी पारंपरिक फसल थी, जो अब लुप्त प्रायः है। वर्षा में बोई जाने वाली ये फसल वर्षा समाप्ति पर कट जाती है। इसकी डगालियों पर रक्त वर्ण के फूल लगते है। कटाई के बाद इन फूलों को डेंडुओं से अलग किया जाता है, उन्हें सुखाया जाता है और सूखे फूलों का चूरा बनाकर चाय, शर्बत, चटनी, मुरब्बा जैसे कई-कई व्यंजन बनाए जाते हैं।

लाल अम्बाडी स्वाद में खट्टी होती है इसमें शक्कर मिलाकर जो शर्बत बनता है, वह बाजारों में उपलब्ध शीतलपेयों से दस गुना ज्यादा सुगंधी, स्वादिष्ट और पौष्टिक है। यह शरीर का रक्त दोष दूर कर हिमोग्लोबिन बढ़ाती है। रक्तचाप सामान्य करती है। हृदय की बीमारियों को दूर करती है और मोटापा कम करती है।

आज जहां पूरा विश्व अन्न सुरक्षा से भयभीत है। आतंकवाद, बेरोज़गारी, आत्महत्याओं और एक दूसरे पर लादे गये युद्धों से जूझ रहा है-वह अनियंत्रित उपभोक्तावाद और बाजारवाद के ही दुष्चक्र का परिणाम है। भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था आधारित खेती ही विश्व शांति को दिशा दे सकती है बशर्ते हम अपनी ही खेती को ठीक से देखें और समझें।

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