खेतों पर रसायनों की बारिश

खेती में रासायनिक खाद और कीटनाशक के बेतहाशा बढ़ते उपयोग से पैदा हो रहे खतरों पर खूब सीटी बजती रही है, पर व्यवहार नही बदले। मध्यप्रदेश के झाबुआ का पेटलावद ब्लाक तो यह बता रहा है कि वहां खेत, फसल और किसान पूरी तरह से घातक रसायनों में ही डूब चुके हैं। यहां एक हेक्टेयर खेत में 600 से 800 किलोग्राम रासायनिक उर्वरक और 5 से 10 लीटर रासायनिक कीटनाशक छिड़के जा रहे है।

झाबुआ के इस इलाके के किसानों द्वारा कपास, टमाटर, मिर्ची जैसी नकद फसलों से खूब फायदा लेने के लिये उपयोग में लाये जा रहे रसायनों की यह मात्रा भारत के औसत उपयोग (94.4 किलो) से 6 से 8 गुना और मध्यप्रदेश के औसत से 10 से 12 गुना ज्यादा है।

इतना ही नहीं देश में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करके सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले राज्य पंजाब (209.59 किलो) आंध्रप्रदेश (219.48) और तमिलनाडु (186.68 किलो) भी इससे कहीं कम रसायनों का छिड़काव करते हैं। झाबुआ में बेहद ऊंची लागत वाली नकद खेती का विस्तार होने से न केवल किसानों पर उनकी सालाना आय से चार गुना ज्यादा कर्ज हो गया है बल्कि खेतों के उपजाऊपन पर भी नकारात्मक असर पड़ा है।

लगातार सूखे के कारण उनके जीवन में अनिश्चितता बढ़ रही है क्योंकि मौजूदा फसलें ज्यादा पानी की मांग करती है, जो अब वहां आसानी से उपलब्ध नहीं है। इन परिस्थितियों में झाबुआ में कपास की प्रति हैक्टेयर औसत उत्पादकता 151 किलोग्राम के सबसे निचले स्तर पर आ गयी है, सोयाबीन की उत्पादकता राज्य के औसत से 35 फीसदी कम रह गई है और टमाटर की उत्पादकता भी कम होने लगी है, जिसे ज्यादा रसायन डालकर बढ़ाने की कोशिश हो रही है। पिछले तीन वर्षों में यहां रसायनों का उपयोग हर साल 60 किलो प्रति हेक्टेयर के मान से बढ़ा है। यहां कृषि विस्तार अधिकारी किसानों को मार्गदर्शन नहीं देते; यहां तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एजेंट सीधे किसानों को प्रभावित करने में जुटे हुये हैं।

कभी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली दलहन, तिलहन और मोटे अनाज पैदा करने वाली झाबुआ की इस पट्टी में सरकार और बाजार के प्रोत्साहन के बाद किसानों नें चारों तरफ सोयाबीन, कपास, टमाटर और मिर्ची की फसलें लेना शुरू किया, जिनने शुरू-शुरू में तो फायदा दिया पर बाद में घाटा देना शुरू कर दिया। ये फसलें ऊंची लागत, ज्यादा निवेश, ज्यादा बीमारी की संभावना वाली और ज्यादा पानी पीने वाली फसलें रही हैं। इन खेती के उत्पादों को सरकार का कोई संरक्षण नहीं है। जिससे व्यापारी आढ़तिये अपनी मर्जी के मुताबिक इन किसानों का शोषण करते हैं। किसान क्या और कैसे पैदा करेगा यह तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तय कर ही रही हैं, साथ ही उस उत्पादन को कौन किस भाव से खरीदेगा, यह भी दिल्ली-मुम्बई की मण्डी के व्यापारी तय करते हैं। वर्ष 2006-07 में पेटलावद मे 50 पैसे प्रति किलो के भाव से टमाटर खरीदा गया था, जो लागत से भी 60 फीसदी कम था। किसानों की अर्थव्यवस्था के मामले में कपास सबसे अहम् फसल है। इसकी स्थिति अब खतरनाक है। पिछले पांच सालों (वर्ष 2004 से 2008 के बीच) जिले में कपास का उत्पादन 27225 गांठों (170 किलो की एक गांठ) से घटकर मात्र 3983 गाठों पर आ गया है।

आज पेटलावद के किसान जिस स्थिति में पहुंच गये हैं वह खेती और खेती करने वालों का संकटकाल कहा जा सकता है। पारम्परिक, कम ऊर्वरक, कम कीटनाशक और कम पानी वाली फसलों को छोड़कर नकद फसलों को अपनाना अब इन किसानों को बेहद भारी पड़ रहा है। जब बीटी कपास अपनाया तब शुरूआत में तो जाहिर है उत्पादन बढ़ा पर दो साल बाद ही वर्ष 2004-05 में उत्पादन घटना शुरू हो गया। इन बीजों का जर्मींनेशन भी कम्पनियों के दावों के ठीक विपरीत 85 फीसदी से घटकर 27 प्रतिशत रह गया। कपास के नये बीजों ने पशुधन के लिये भी संकट पैदा किया क्योंकि इससे भूसा पैदा नहीं होता है।

बाजार अपने गुलामों को नहीं छोड़ता है। यह पेटलावद में साबित होता है। जब कपास का दर्द बढ़ा तो दिल्ली और मुम्बई के आढ़तियों ने स्थानीय साहूकारों, दुकानदारों और सरकारी ढांचों के जरिये टमाटर की दूसरी नकद फसल को अपनाने के लिये तैयार कर लिया। दावा था कि एक बीघा के खेत से 40 से 60 हजार रुपये का फायदा होगा। कपास से चोट खाये किसान ने टमाटर की खेती में इलाज खोजा। यहां के खेती चक्र को करीब से देख-समझ रहे किसान लक्ष्मण सिंह मुणिया बताते हैं कि जिस खेत में टमाटर होता है वहां पहली बार तो खूब उत्पादन होता है, परन्तु फिर अगले तीन-चार साल के लिये वह जमीन उत्पादक नहीं रह जाती है। ये नये बीज जमीन-मिट्टी के तमाम पोषण तत्व खींच लेते हैं। इसके लिये किसानों को खूब ऊर्वरक डालना पड़ते हैं। कितना ऊर्वरक? वे बताते हैं कि एक एकड़ में कम से कम 6 से 7 क्विंटल रासायनिक ऊर्वरक डाला जा रहा है। ये रासायनिक बनावटी तौर पर तो जमीन की ऊर्वरता में बदलाव दिखाते हैं किन्तु आने वाले कल के लिये मिट्टी को बंजर बनाते जा रहे हैं। तीस साल पहले के फसल चक्र की फसलों की तुलना में सबसे पहले ज्यादा सोयाबीन और कपास ने रासायनिक ऊर्वरक ज्यादा खाना शुरू किया। इसके आगे चलकर वर्ष 2005-06 में यहां पहुंचे टमाटर ने तो रसायनों की भूख की हदें ही तोड़ दी। झाबुआ में 1970 के दशक में एक हेक्टेयर में बीस किलो रसायन डलता था जो वर्ष 2009 की खरीफ की फसल तक बढ़कर 800 किलो तक पहुंच गया है। इसके कारण फसलें असफल हो रही हैं क्योंकि इनसे उत्पादन की लागत खूब बढ़ी।

एक हेक्टेयर में टमाटर के लिये 9700 रूपये केवल रसायनों के लिये खर्च करने पड़ रहे हैं। टमाटर को मक्का या दलहनों की तुलना में 6 गुना ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है जबकि झाबुआ में हर दूसरे साल सूखे के हालात बनने लगे हैं। इस साल यानी वर्ष 2009 में भी यही हालात हैं। सोयाबीन, टमाटर और मिर्ची में खूब पानी लगने के कारण मक्का और दलहनों के लिये पानी ही नहीं बच रहा है। अब फिर भी टमाटर ही बोया गया। चार सालों में असर दिखने लगा तो किसानों से मिर्ची लगवाना शुरू कर दिया गया। यह भी एक बहुत ऊचंी लागव वाली फसल साबित हुई। किासन ने फायदे के लिए इन नकद फसलों को चुना, किन्तु अब वह इनके जाल में फंस गया है। कारण साफ है बहुत बड़ी मात्रा में रासायनिक ऊर्वरकों ओर कीटनाशकों के उपयोग के कारण मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता लगभग खत्म हो चुकी हे। ठिकरिया गांव में मंगल कहते हैं कि पहले जहां हम 25 क्विंटल कपास लेते थे अब वह घटकर 3 क्विंटल पर आ गई है। यह तो लागत का भी एक चौथाई है, फायदा तो बहुत दूर है और अब उन पर 75 हजार रूपये का कर्जा है।

आज भी ये किसान यही फसलें लेने के लिए विवश हैं क्योंकि बीज, खाद और कीटनाशकों के लिऐ इनकी निर्भरता बाजार पर है। बाजार या कम्पनियाँ अब केवल इन्हीं खास फसलों पर ही उधार देती हैं। उधार इन किसानों की सबसे बुनियादी जरूरत है क्योंकि कर्ज में फंसे ये लोग नकद निवेश करके अपनी मर्जी की खेती करने की स्थिति में नहीं हैं। पारम्परिक फसलों के बीज तो किसान अपने ही खेत से ले लेता था और गोबर से खाद बनाता था पर अब वह बाजार से बीज लेने के लिये बाध्य है और चूंकि पशुधन भी 60 फीसदी कम हो चुका है इसलिये वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की खाद का उपयोग करने के लिये विवश हो गया है। वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश को जैविक राज्य बनाने के वायदे के साथ चुनाव जीता और सत्ता में आ गई।

रायपुरिया गांव के रासायनिक उर्वरक विक्रेता मुकेश चौधरी कहते हैं कि ‘‘लोगों के खेत जोत छोटे हैं जिनसे ज्यादा उत्पादन लेने की चाह में किसान ज्यादा रसायन उपयोग में ला रहा है। आज यहां एक एकड़ में 8 क्विंटल उर्वरक डल रहा है। उन्हें लगता है कि ज्यादा उर्वरक डालने से ज्यादा पैदावार होगी। यहां से टमाटर और मिर्ची ले जाने वाले मुम्बई-दिल्ली के खरीददार भी किसानों को बताते हैं कि ज्यादा उर्वरक से टमाटर का छिलका मोटा होगा जिससे वह जल्दी नहीं सड़ेगा और मिर्ची लम्बी होगी।’’ वह यह भी जोड़ते हैं कि ‘‘किसानों के पास अब कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं है और 99 फीसदी रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक या बीज उधारी में ही लिये जाते हैं।’’ मोरझरिया के छोटे किसान रूपचंद्र भूरिया कहते हैं कि ‘‘उधारी में कीमत दो गुनी हो जाती है। कर्जे से निकलने की कोशिश कर्जे में और गहरे फंसा देती है।’’ स्थानीय पत्रकार हरीश पवार कहते हैं कि ‘‘उन्नतबीज और रसायन बेचते समय केवल उत्पादन बढ़ने की जानकारी दी जाती है। उत्पादन किन परिस्थितियों में बढ़ेगा यह नहीं बताया जाता है, जैसे- टमाटर, मिर्ची में पानी खूब लगता है। यहां पानी कम है। तब पूरा निवेश घाटे का सौदा बन जाता है और एक ही बार में दो बीघे के छोटे से खेत का किसान 15 से 20 हजार के कर्जे में आ जाता है, मिट्टी बर्बाद होती है सो अलग। यहां 1991 में किसान पर औसत कर्ज ढाई हजार रूपये था जो 35 हजार रूपये से ऊपर पहुंच चुका है। कारण साफ है खेती की खूब बढ़ती हुई लागत।’’
 

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