खइके पान महोबा वाला


पान की खेतीफोटो साभार ‘डाउन-टू-अर्थ’
‘महोबा-कालिंजर-खजुराहो’ इनके वैभव का चरमोत्कर्ष चन्देल काल में विश्व को आकर्षित करने वाला रहा है। अपने अपूर्व वैभव को संजोये हुए कालिंजर राजनैतिक राजधानी और महोबा सांस्कृतिक राजधानी रही है। जहाँ एक ओर महोबा का नाम शूरवीर आल्हा- ऊदल, मलखान आदि वीरों के वीरत्व, शौर्य व पराक्रम के लिये जाना जाता है तो वहीं दूसरी ओर महोबा की प्रसिद्धि उसकी धरती पर उपजने वाले करारे एवं स्वादिष्ट पानों के लिये भी रही है। महोबा का देशावरी पान आज भी पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं अन्य खाड़ी के देशों में लोकप्रिय है।

पान की उत्पत्ति को लेकर भिन्न-भिन्न चर्चायें पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। तथापि कहा जाता है कि पान की बेल नागलोक से प्राप्त हुई है। कहते हैं कि नागलोक के राजा वासुकि ने अपनी कन्या के विवाहोत्सव में दहेज के रूप में नागबेल दी थी। एक अन्य कथा के अनुसार जब पृथ्वीलोक पर ब्रह्मा जी ने यज्ञ प्रारम्भ किया तब देवपूजनार्थ पान की आवश्यकता हुई। पान पाताल में नागों के पास थे। बृहस्पति अपने तपोबल, मनोबल और बुद्धिचातुर्य से नागदेव से पान का बेल लाये और नागलोक से पान के रक्षार्थ तक्षक, डेढ़ादेव और जाखदेव आदि भेजे गए। आज भी बरेजों पर इनकी वार्षिक पूजा नागपंचमी के दिन करने की लोक प्रथा पान कृषकों के मध्य चली आ रही है।

लेकिन महोबा में चंदेल नरेश ने पान की बेल राजस्थान के उदयपुर-बासवाड़ा से यहाँ मँगाई थी और गोरखगिरी के पश्चिमी क्षेत्र में रोपित कराया था। वहाँ आज भी नागौरिया का मंदिर स्थित है। बुंदेलखण्ड में पछुआ व दक्षिणी हवाएं कुछ ज्यादा ही गर्म होती हैं, अस्तु पान के बरेज भी मदनसागर, कीरत सागर व अन्य सरोवरों के किनारे-किनारे लगाने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई ताकि गर्म हवाओं से उनकी रक्षा की जा सके तथा सिंचाई हेतु पर्याप्त जल की उपलब्धता सुनिश्चित बनी रहे।

आधुनिक मत में ऐसा माना जाता है कि मलेशिया, इंडोनेशिया, सुमात्रा, जावा, यवदीप व अन्य पूर्वी द्वीप समूह में पान की उत्पत्ति हुई। वहाँ का यह देशी पौधा है जो धार्मिक अनुष्ठानों के लिये अपरिहार्य होने के कारण अपने देश में लाया गया। विदेशी विद्वानों में भी डिकैनडेस के अनुसार पान की उत्पत्ति मलाया प्रायद्वीप समूह है। उनके मतानुसार विगत दो हजार वर्षों से वहाँ पान की कृषि की जा रही है। जबकि बर्कहित के अनुसार पान मध्य तथा पूर्वी मलेशिया मूल की प्रजाति है। वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में सर्वप्रभम आसाम के जंगलों में वृक्षों पर लता के रूप में देखा गया, बाद में उसकी पहचान पान के रूप में की गई।

पान को संस्कृत में ताम्बूल कहते हैं। यह हमारे खान-पान, अतिथि सत्कार के रूप में प्राचीन काल से भारतीय संस्कार का अभिन्न अंग बनकर चला आ रहा है। इतना ही नहीं, पान पूजा का भी आवश्यक व अनिवार्य सामग्री के रूप में वैदिक काल से चला आ रहा है। ‘ताम्बूलम समर्पयामि’ का बार-बार उच्चारण भारतीय कर्मकाण्ड का अभिन्न हिस्सा बनकर आज भी सर्वत्र महिमामण्डित हो रहा है।

लेकिन महोबा में पान का खान-पान, अतिथि सत्कार तथा पूजा सामग्री के साथ-साथ युद्ध संस्कृति से भी चोली-दामन का साथ रहा है। महोबा में यह एक आम रिवाज रहा है कि जब किसी से युद्ध करना हो और युद्ध की भयंकरता विशिष्ट हो तब चाँदी के थाल में पान लगाकर रखा जाता था। उसे बीरा कहते थे और वह पान का बीरा वीरों के लिये चुनौती के रूप में आता था। तब कोई वीर शिरोमणि ही उसे सबके समक्ष लेकर अपने मुँह में रखकर अपने वीरोचित गुणों को सबके सामने प्रकट कर मोर्चा लेने की मानो स्वीकृति देता था। इस प्रकार युद्ध का सेनापतित्व पान का वीरा लेकर सुनिश्चित करने की सुदीर्घ परम्परा रही है। पान का वैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक महत्त्व रहा है। इसका वानस्पितिक नाम ‘पाइपर विटिल’ है। यह पाइपरेसी कुल का लतीय पौधा है। यह द्विबीजपत्रीय होता है। इसके पत्तों से वाष्पशील तेल एवं सुगंधित होने के कारण इसका आर्थिक महत्त्व भी है। शास्त्रों में कहा गया है कि पान कुछ कड़वा, तीखा, मधुर, कसैला व क्षारीय, पाँचों रसों से युक्त होता है। पान के सेवन से वायु कुपित नहीं होती है, कफ मिटता है, कीटाणु मर जाते हैं। मुख की शोभा बढ़ाता है, दुर्गन्ध मिटाता है तथा मुँह का मैल दूर करता है और कामाग्नि प्रदीप्त करता है।

मानवीय स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी इसमें सभी अपेक्षित तत्वों का समावेश है। आयुर्वेद के अनुसार “यह बल प्रदायक, कामोत्तेजक है। सोकर उठने पर पान सेवन से मनुष्य की समस्त सुषुप्त इंद्रियों में चैतन्यता रहती है। जल के अभाव में पान सेवन से प्यास भी बुझ जाती है।”

इस प्रकार आयुर्वेद ने पान को सेवनीय बताया है। फिर प्रश्न उठता है कि पान सेवन की विधि क्या होनी चाहिए? दरअसल पान में एक नफासत और नजाकत है तथा पान को खिलाना एक तहजीब भी है। महोबा का पान केवल लबों की शान ही नहीं है, यह तो यहाँ की शान ओ शौकत से जुड़ा रहा है। पान जो गिरकर टुकड़े- टुकड़े हो जाए वहीं महोबा का करारा देशावरी पान है। यह बेहद स्वादिष्ट होता है। इसका ख्याल आते ही सभी के मुँह में पानी आ जाता है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि पान के अग्रभाग में आयु, मूल अर्थात डंठल में यशकीर्ति, मध्य भाग में लक्ष्मी का निवास है। कारण चाहे जो हो मगर पान खाने वाले या पान लगाकर बेचने वाले पान के पत्ते का डण्ठल, नोंक तथा मध्य भाग की मोटी नस निकालकर, धोकर व पोंछकर कत्था, चूना, सुपारी के साथ लगाकर देता है जिसे पान का बीरा कहा जाता है। कहा जाता है कि पान की एक दर्जन जातियाँ तथा 300 प्रजातियाँ होती हैं किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से 5 या 6 किस्में होती हैं -

देसी, दिसावरी पान : इसमें करारापन, कम रेशे, हल्की कड़ुवाहट, स्वादिष्ट, पत्ता गोल व नुकीला होता है।

खाँसी पान : यह वन्य प्रजाति होती है। असमिया आदिवासी इसका औषधीय प्रयोग करते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटा और अधिक कसैला होता है।

साँची पान : यह पान मोटा, हरा तथा अधिक रेशेदार होता है।

कपुरी पान : यह हल्का कड़ुवा होता है। पत्ती हल्के पीले रंग की होती है। यह प्रजाति हल्के पीले रंग की है तथा पत्तियाँ चबाना लोग पसंद करते हैं।

बांग्ला पान : इसका स्वाद कड़ुवा होता है। इसका पत्ता ह्रदयाकार गोला है। इसकी शिरायें मोटी तथा रेशेदार होती हैं। इसमें बांग्ला पानों की सभी किस्में शामिल होती है। पान के साथ जो आयुर्वेदिक औषधियाँ सेवनीय हैं वे बांग्ला पान के साथ ही ग्रहण की जाती हैं।

सौफिया पान : इसमें रेशे कम, कड़ुवा, सौफ की सुगंध तथा मीठे स्वाद का होता है। पत्ता गहरे हरे रंग का होता है।

चंदेल काल में पान को कृषि व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया गया। मुगल काल में भी इसे महत्त्वपूर्ण स्थान मिला। 1905 के गजेटियर में महोबा को दरीबा पान विपणन केन्द्र कहा गया है। तत्कालीन ग्राम बारीगढ़, लौड़ी, गढ़ी मलहरा, महराजपुर, दिदवारा, स्योढ़ा, बल्देवगढ़ आदि प्रमुख स्थानों से घोड़े और बैलगाड़ियों में लादकर पान के टोकरे महोबा आते थे। महोबा तब पान की प्रमुख मंडी होता था। यहीं से पान रेलमार्ग से दिल्ली, मुंबई, सूरत, पुणे तथा देश के विभिन्न शहरों व पाकिस्तान आदि देशों को सप्लाई होता था।

एक अनुमान के अनुसार महोबा में 1960 के आस-पास लगभग 150 एकड़ क्षेत्र में पान की पैदावार होती थी। कालान्तर में यह रकबा घटा है। क्योंकि पान की कृषि अतिवृष्टि, अनावृष्टि, पाला, गर्मी, आग, आँधी, तूफान एवं ओलावृष्टि आदि सभी कारणों से बुरी तरह प्रभावित होती है और पान कृषक की कमर टूट जाती है। क्योंकि इसमें रकबा कम लागत अधिक और भरपूर जोखिम है। फलत: इसका कृषि क्षेत्रफल निरंतर घट रहा है और पान कृषक भुखमरी की कगार पर जी रहा है।

पान कृषि का वैज्ञानिक ढंग


पान की कृषि अपने देश में लम्बे समय से चली आ रही है। सांस्कृतिक व धार्मिक रीति रिवाजों में पान रचा बसा है। इसमें विटामिन ए, बी और सी के अतिरिक्त औषधीय गुण भी है। इसके महत्त्व का वर्णन यजुर्वेद में किया गया है। यह एक नगदी और व्यापारिक फसल है। पान के निर्यात से विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जा सकती है।

जलवायु : पान के लिये छायादार, नम व ठंडे वातावरण की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा सामान्य और अधिक होती है वहाँ इसकी पैदावार अच्छी होती है।

मिट्टी : क्षारीय भूमि को छोड़कर लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में इसकी कृषि की जा सकती है। उत्तम जल निकास, ढालू तथा टीलेनुमा और अधिक जीवांश वाली भूमि उत्तम होती है।

भूमि की तैयारी : जिस जगह पान की खेती करनी हो उसे मई जून में जोतकर छोड़ देना चाहिए तथा अगस्त में भी दो-तीन जुताई करा देनी चाहिए। यह विशेष रूप से देखना चाहिए कि मिट्टी भुर-भुरी हो जाए।

भूमिशोधन : यह दृष्टव्य है कि पान की फसल में लगने वाले रोगों के जीवाणु मिट्टी में लंबी अवधि तक जीवित रहते हैं। अत: इनसे बचने के लिये पान की रोपाई के कम से कम 24 घण्टे पूर्व चूना और तूतिया के घोल द्वारा भूमि का शोधन कर लेना चाहिए जिससे आगामी कीट व्याधि से पान कृषक बच सके।

खाद व उर्वरक : पान कृषि के पूर्व मृदापरीक्षण कराकर वैज्ञानिक परामर्शानुसार ही उर्वरक देना चाहिए। प्रति हेक्टेयर 25-30 कुंतल नीम खली तथा 50-60 कुंतल तिल की खली सड़ाकर कई बार प्रयोग करना चाहिए।

पान बरेजों का निर्माण : पान कृषकों को चाहिए कि वो प्रत्येक दशा में बरेजों का निर्माण फरवरी तक अवश्य पूरा कर लें। बरेज निर्माण के कम से कम 25 दिन पूर्व फावड़े से गहरी गुड़ाई तथा देशी हल से अंतिम जुताई करके पाठा आदि चलाकर मिट्टी को भुर-भुरा बना लें। विशेष सावधानी इस बात की रखनी चाहिए कि पान की रोपाई हेतु जो पंक्तियाँ बनाई जाएँ वे लंबाई की दिशा में रहें तथा यदि सम्भव हो सके तो बरेजों की लंबाई पूर्व से पश्चिम दिशा में रखें ताकि तेज हवाओं और तूफानों का असर कुछ कम हो सके।

पान की बेल का चुनाव : रोपाई हेतु स्वस्थ एवं निरोग पान की बेल का चुनाव करना चाहिए। कम से कम एक वर्ष पूर्व वाली बेल से पान की पौध छाँटनी चाहिए और इसे रोग रहित करने हेतु बोडो मिश्रण 500 पीपीएम स्टेप्टोसाइक्लीन के घोल में 10 से 15 मिनट तक डुबोकर निकाले और बाद में रोपाई करें।

रोपाई का समय : फरवरी से मार्च तक का समय उपयुक्त होता है। इस समय तापक्रम अधिकतम 22-23 डिग्री सेंटीग्रेड और न्यूनतम 9 से 12 डिग्री सेंटीग्रेड सर्वथा उपयुक्त है अन्यथा इससे अधिक तापक्रम में बेल सूखने की सम्भावना बढ़ जाती है। पान की फसल में कीट प्रकोप की स्थिति हो तो पान कृषि वैज्ञानिकों से परामर्श लेना चाहिए।

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