आज हमारे सामने विकास बनाम पर्यावरण का मुद्दा है और दोनों में से किसी को भी त्यागना संभव नहीं इसलिए समन्वित दृष्टिकोण के साथ वैश्विक हितों को साझा किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि विकासशील देश चाहते थे कि उनको वह पूंजी और तकनीकी मिले ताकि वे पर्यावरण बचाने के साथ साथ अपने विकास को भी बनाए रख सकें। क्योंकि पर्यावरण की चिंताओं के बीच भी वे विकास को पर्यावरण के आगे क़ुर्बान करने के लिए तैयार नहीं थे और न होंगे। हाल में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अंतर-सरकारी समिति ने भारी-भरकम रिपोर्ट जारी करते हुए यह आगाह किया है कि अगर दुनिया के देश गर्म होने वाली गैसों के प्रदूषण में कमी नहीं लाते तो ग्लोबल वार्मिंग से होने वाला नुकसान बेकाबू हो सकता है। ग्लोबल वार्मिंग से सिर्फ ग्लेशियर ही नहीं पिघल रहे, बल्कि इससे लोगों की खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और रहन-सहन भी प्रभावित होने लगा है।
रिपोर्ट में आहार सुरक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया गया है। पर्यावरण परिवर्तन के अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक तापमान के कारण आने वाले समय में धान और मक्के की फसलों की बर्बादी का अंदेशा है। मछलियां बहुत बड़ी आबादी का आहार हैं। उन्हें भी क्षति होगी। बड़ी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे कम किया जाए।
कुछ देश और कुछ संगठन तब तक ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे जब तक दुनिया के धनी देश प्रयास न करें। भारत जैसे विकासशील देशों को आधारभूत ढांचा सुधारने, खाद्य सुरक्षा मजबूत करने, आपदा प्रबंधन तंत्र सुधारने, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और ताप वृद्धि के कारकों पर नियंत्रण की जरूरत है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुए ओला बारिश से गेहूं, कपास, ज्वार, प्याज जैसी फसल खराब हो गई थी। यह अनियमित वर्षा के कारण माना जा रहा है, जोकि ग्लोबल वार्मिंग का असर है। मौसम में अप्रत्याशित बदलाव से उपजी आपदाएं हमें ग्लोबल वार्मिंग के खतरे बताती रही हैं। दुनिया के संपन्न देश इसे अनदेखा करते रहे हैं। गरीब देशों की अपनी मजबूरियां हैं।
रिपोर्ट में किसानों और निर्माण कार्य में लगे मजदूरों जैसे घर से बाहर काम करने वाले वर्ग को नए संभावित खतरों के प्रति आगाह किया गया है। मनुष्य को बाढ़ और अत्यधिक गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। दुनिया की आबादी बढ़कर सात अरब के आसपास हो गई है। ग्लोबल तापमान में वृद्धि का सिलसिला जारी है। आबादी बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है और प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ीं हैं। इसके बावजूद हमने अंधाधुंध विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है। बीते दो दशक में यह स्पष्ट हुआ है कि नवउदारवादी और निजीकरण नीति ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। भूख, खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल गरीब देशों पर असर डाला है। बल्कि पूर्व के धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। हमारे जलवायु ईंधन और जैव-विविधता से जुड़े संकटों ने भी आर्थिक विकास पर असर दिखाया है।
कार्बन उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान विकसित देशों का ही है, मगर वे इस पर जरा भी कटौती नहीं करना चाहते। क्योटो प्रोटोकाल को लेकर उनका मनमाना रवैया रहा है। अमेरिका जैसे दुनिया के दूसरे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक ने क्योटो प्रोटोकाल को स्वीकार नहीं किया। अमेरिका ने अपने उद्योगों को नुकसान पहुंचाने वाले किसी भी समझौते का हमेशा विरोध किया है, भले ही पूरी दूनिया को उसकी कीमत चुकानी पड़े। 1997 में अस्तित्व में आए क्योटो प्रोटोकल के मुताबिक 2012 तक विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन में 1990 के स्तर से पांच फीसद तक की कटौती करनी थी।
कोशिशों के बावजूद ऐसा नहीं हो सका। फिलहाल चीन विश्व में ग्रीन हाउस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाला देश है और भारत में भी इसकी मात्रा बढ़ रही है। विकसित देशों की मांग है कि ये दोनों देश पहले अपने उत्सर्जन में कटौती करें। जबकि चीन और भारत का तर्क है कि उनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अब भी विकसित देशों, खासकर अमेरिका की तुलना में काफी कम है। साथ ही उनका यह भी कहना है कि विकसित देश पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचा चुके हैं, पहले उनकी भरपाई की जानी चाहिए।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में एक अमेरिकी एक साल में 17.6 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है, जबकि एक भारतीय मात्र 1.7 टन। ऐसे में और उत्सर्जन का बढ़ना हम सबके लिए घातक होगा, लेकिन सवाल तो यह है कि रास्ता कैसे निकेलगा।
सचमुच आज हमारे सामने विकास बनाम पर्यावरण का मुद्दा है और दोनों में से किसी को भी त्यागना संभव नहीं इसलिए समन्वित दृष्टिकोण के साथ वैश्विक हितों को साझा किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि विकासशील देश चाहते थे कि उनको वह पूंजी और तकनीकी मिले ताकि वे पर्यावरण बचाने के साथ साथ अपने विकास को भी बनाए रख सकें। क्योंकि पर्यावरण की चिंताओं के बीच भी वे विकास को पर्यावरण के आगे क़ुर्बान करने के लिए तैयार नहीं थे और न होंगे। हालांकि यह कहते हुए भी विकासशील देश यह चाहते थे पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में वे पूरी तरह से दुनिया के साथ हैं और ये कभी नहीं चाहेंगे कि धरती पर प्रदूषण का खतरा बढ़े।
लेकिन विकसित देश अपने लाभ और विकास के साथ किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहते हैं। जाहिर है कि विकसित देश पर्यावरण को हानि पहुंचाने में सबसे अधिक भूमिका निभा रहे हैं और सीमित प्राकृतिक संसाधनों का उन्होंने ही जमकर शोषण किया है, इन स्थितियों में विकासशील देशों से पर्यावरण के प्रति अधिक पहल करने की उम्मीद करना तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है।
दरअसरल ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है।
ईमेल : ravishankar.5107@gmail.com
रिपोर्ट में आहार सुरक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया गया है। पर्यावरण परिवर्तन के अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक तापमान के कारण आने वाले समय में धान और मक्के की फसलों की बर्बादी का अंदेशा है। मछलियां बहुत बड़ी आबादी का आहार हैं। उन्हें भी क्षति होगी। बड़ी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे कम किया जाए।
कुछ देश और कुछ संगठन तब तक ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे जब तक दुनिया के धनी देश प्रयास न करें। भारत जैसे विकासशील देशों को आधारभूत ढांचा सुधारने, खाद्य सुरक्षा मजबूत करने, आपदा प्रबंधन तंत्र सुधारने, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और ताप वृद्धि के कारकों पर नियंत्रण की जरूरत है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुए ओला बारिश से गेहूं, कपास, ज्वार, प्याज जैसी फसल खराब हो गई थी। यह अनियमित वर्षा के कारण माना जा रहा है, जोकि ग्लोबल वार्मिंग का असर है। मौसम में अप्रत्याशित बदलाव से उपजी आपदाएं हमें ग्लोबल वार्मिंग के खतरे बताती रही हैं। दुनिया के संपन्न देश इसे अनदेखा करते रहे हैं। गरीब देशों की अपनी मजबूरियां हैं।
रिपोर्ट में किसानों और निर्माण कार्य में लगे मजदूरों जैसे घर से बाहर काम करने वाले वर्ग को नए संभावित खतरों के प्रति आगाह किया गया है। मनुष्य को बाढ़ और अत्यधिक गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। दुनिया की आबादी बढ़कर सात अरब के आसपास हो गई है। ग्लोबल तापमान में वृद्धि का सिलसिला जारी है। आबादी बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है और प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ीं हैं। इसके बावजूद हमने अंधाधुंध विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है। बीते दो दशक में यह स्पष्ट हुआ है कि नवउदारवादी और निजीकरण नीति ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। भूख, खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल गरीब देशों पर असर डाला है। बल्कि पूर्व के धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। हमारे जलवायु ईंधन और जैव-विविधता से जुड़े संकटों ने भी आर्थिक विकास पर असर दिखाया है।
कार्बन उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान विकसित देशों का ही है, मगर वे इस पर जरा भी कटौती नहीं करना चाहते। क्योटो प्रोटोकाल को लेकर उनका मनमाना रवैया रहा है। अमेरिका जैसे दुनिया के दूसरे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक ने क्योटो प्रोटोकाल को स्वीकार नहीं किया। अमेरिका ने अपने उद्योगों को नुकसान पहुंचाने वाले किसी भी समझौते का हमेशा विरोध किया है, भले ही पूरी दूनिया को उसकी कीमत चुकानी पड़े। 1997 में अस्तित्व में आए क्योटो प्रोटोकल के मुताबिक 2012 तक विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन में 1990 के स्तर से पांच फीसद तक की कटौती करनी थी।
कोशिशों के बावजूद ऐसा नहीं हो सका। फिलहाल चीन विश्व में ग्रीन हाउस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाला देश है और भारत में भी इसकी मात्रा बढ़ रही है। विकसित देशों की मांग है कि ये दोनों देश पहले अपने उत्सर्जन में कटौती करें। जबकि चीन और भारत का तर्क है कि उनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अब भी विकसित देशों, खासकर अमेरिका की तुलना में काफी कम है। साथ ही उनका यह भी कहना है कि विकसित देश पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचा चुके हैं, पहले उनकी भरपाई की जानी चाहिए।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में एक अमेरिकी एक साल में 17.6 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है, जबकि एक भारतीय मात्र 1.7 टन। ऐसे में और उत्सर्जन का बढ़ना हम सबके लिए घातक होगा, लेकिन सवाल तो यह है कि रास्ता कैसे निकेलगा।
सचमुच आज हमारे सामने विकास बनाम पर्यावरण का मुद्दा है और दोनों में से किसी को भी त्यागना संभव नहीं इसलिए समन्वित दृष्टिकोण के साथ वैश्विक हितों को साझा किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि विकासशील देश चाहते थे कि उनको वह पूंजी और तकनीकी मिले ताकि वे पर्यावरण बचाने के साथ साथ अपने विकास को भी बनाए रख सकें। क्योंकि पर्यावरण की चिंताओं के बीच भी वे विकास को पर्यावरण के आगे क़ुर्बान करने के लिए तैयार नहीं थे और न होंगे। हालांकि यह कहते हुए भी विकासशील देश यह चाहते थे पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में वे पूरी तरह से दुनिया के साथ हैं और ये कभी नहीं चाहेंगे कि धरती पर प्रदूषण का खतरा बढ़े।
लेकिन विकसित देश अपने लाभ और विकास के साथ किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहते हैं। जाहिर है कि विकसित देश पर्यावरण को हानि पहुंचाने में सबसे अधिक भूमिका निभा रहे हैं और सीमित प्राकृतिक संसाधनों का उन्होंने ही जमकर शोषण किया है, इन स्थितियों में विकासशील देशों से पर्यावरण के प्रति अधिक पहल करने की उम्मीद करना तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है।
दरअसरल ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है।
ईमेल : ravishankar.5107@gmail.com
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