खुशहाली के लिये राज्य को चाहिए स्पष्ट वन नीति


जल संरक्षण के साथ बन्जर, परती, जहरीली होती भूमि को बचाना सर्वोच्च प्राकृतिक प्राथमिकता है। रासायनिक खादों के स्थान पर जैविक खादों का उपयोग आवश्यक हो गया है। गोबर और वानस्पतिक अपशिष्टों – भूसा, पुआल, सब्जी के छिलके जैसे कचरों को मिलाकर बहुत-से कम्पोस्ट बनाए जाते हैं, जिनमें सबसे अधिक लाभदायक हैं- वर्मी कम्पोस्ट या केंचुआ खाद। ऋषि पराशर ने भी वेद में इसकी उपयोगिता बताई है। झारखंड राज्य के सृजन पर यहाँ की जनता ने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी। उन्होंने चाहा था अमन-चैन, विकास में भागीदारी और अविभाजित बिहार के क्षत्रपों के इस पठारी क्षेत्र के विकास के प्रति उदासीनता से मुक्त होकर एक सक्रिय सतत रोजगारपरक व्यवस्था। प्रत्येक प्रदेश की अपनी विशेषताओं के कारण अलग-अलग प्राथमिकताएँ होती हैं।

झारखंड प्रदेश छोटानागपुर एवं संताल परगना के पहाड़ी-पठारों का भू-भाग है। वनों से आच्छादित होने के कारण यहाँ के निवासियों का वनों के साथ गतिमान निर्भरता है। कोयले और लोहे के अकूत भंडार तथा अन्य खनिज पदार्थों की उपलब्धता के कारण प्राकृतिक वन एवं पर्यावरण के संरक्षण के साथ रोजगार सृजन एवं औद्योगिक विकास में सामंजस्य रखने की दिल और दिमाग को झकझोरने वाली चुनौतियाँ हैं। अशिक्षित एवं शिक्षित बेरोजगारों की फौज को गुमराह करते नक्सली, उपद्रवी एवं उग्रवादी संगठनों की चुनौती है। पानी के अभाव में दम तोड़ती खेती-बाड़ी पर आधारित ग्राम जीवन का बेबस पलायन है। झारखंड की 80 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष तौर पर यहाँ के पठारी भू-भाग पर आश्रित है। छोटानागपुर एवं राजमहल पहाड़ी श्रृंखलाओं के बीच फैले पठारी भू-भाग 29 प्रतिशत क्षेत्र अधिसूचित वन भूमि हैं। शेष भूमि का 48 प्रतिशत भूमि सालों भर परती रह जाती है। इसका कारण पथरीली होना तथा जल का अभाव होना है।

अधिकतर क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ एवं ऊँचा-नीचा होने के कारण नहरों के जल से सिंचाई के संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा सकते हैं। इस 48 प्रतिशत भूमि के वर्ष भर परती रह जाने के कारण एक बड़ा भू-भाग उत्पादन चक्र के बाहर रह जाता है। भू-क्षरण के कारण ढालू भूमि का उपजाऊ भाग नदी-नालों में बहकर बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। इस गम्भीर राष्ट्रीय क्षति का आकलन किसी ने किया नहीं है और इसकी गम्भीरता इससे बढ़ जाती है कि इस उपजाऊ भूमि को बंगाल की खाड़ी से वापस यहाँ के पठारों पर लाया जाना असम्भव है। नदियों को जोड़ने की महत्त्वाकांक्षा है, लेकिन आँखों के सामने से तेजी से ओझल होती उपजाऊ मिट्टी को कौन और कैसे रोके, इस पर चर्चा तक नहीं।

झारखंड राज्य में प्रतिवर्ष 1000 मिमी से 1400 मिमी तक वर्षा होती है। अधिकतर क्षेत्र ढालू होने के कारण तथा जल-संचयन की व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण नदियों और नालों के माध्यम से वर्षा से प्राप्त सारा जलस्रोत हमारे हाथों से निकल जाता है। राज्य के पलामू, गढ़वा, लातेहार, चतरा आदि जिलों में विशेष रूप से सुखाड़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

झारखंड राज्य के वन क्षेत्रों में कोयला, लोहा, बॉक्साइट, मैग्नीज, क्रोमाइट आदि खनिजों की भरमार है। इनके खनन एवं उपयोग के लिये कई सरकारी एवं निजी संस्थाएँ बेचैन हैं। खनिजों के अत्यधिक और बेतहाशा दोहन से यहाँ के जन, जल, जमीन, वन एवं पर्यावरण के लिये एक गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। नदी-नालों का पानी प्रदूषित ही नहीं, बल्कि सूख रहा है। जमीन के भीतर आग लगी है। वन एवं पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर खनिजों के निष्कासन और उद्योगों से रोजगार सृजन करने के कार्य झारखंड राज्य के परिप्रेक्ष्य में एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। इस सामंजस्य में ही इस राज्य की खुशहाली का भविष्य छिपा है। राज्य के लिये स्पष्ट वन नीति की आवश्यकता है। शुक्र है कि यहाँ के अधिसंख्य गाँवों में सामुदायिक निर्णय लेने की प्रवृत्ति बची हुई है। प्राकृतिक संसाधनों का सामुदायिक प्रबंधन एक महत्त्वपूर्ण विषय है। कुछ पहल वन विभाग, झारखंड ने वन संरक्षण एवं प्रबंधन समितियाँ बनाकर की है। लेकिन, इस संस्थाओं को सरकारी विभाग का प्रसार के बदले पारम्परिक, स्वतः स्फूर्त, सामुदायिक व्यवस्था में समावेश करने की आवश्यकता है। हमारी पारम्परिक अर्थव्यवस्था में खेती को सबसे उत्तम रोजगार माना गया था। तथाकथित हरित क्रान्ति के बावजूद कृषि लागत और उत्पादन में असन्तुलन तो आ ही गया है, ग्रामीणों-किसानों में खेती के प्रति निराशा का भाव भी देखा जा रहा है।

जल संरक्षण के साथ बन्जर, परती, जहरीली होती भूमि को बचाना सर्वोच्च प्राकृतिक प्राथमिकता है। रासायनिक खादों के स्थान पर जैविक खादों का उपयोग आवश्यक हो गया है। गोबर और वानस्पतिक अपशिष्टों – भूसा, पुआल, सब्जी के छिलके जैसे कचरों को मिलाकर बहुत-से कम्पोस्ट बनाए जाते हैं, जिनमें सबसे अधिक लाभदायक हैं- वर्मी कम्पोस्ट या केंचुआ खाद। ऋषि पराशर ने भी वेद में इसकी उपयोगिता बताई है। जमीन को उपजाऊ बनाने में केंचुओं का उल्लेखनीय योगदान होता है। मिट्टी को भुरभुरा करने और फसल की जड़ों तक मिट्टी को ऊपजाऊ बनाने के कारण केंचुए कृषक मित्र कहे जाते हैं। जमीन विकास का अगला कदम जल संरक्षण है। इसका सबसे कारगर उपाय है वर्षा के पानी को खेत में ही पकड़ लेना। इस इलाके के आदिवासी एवं ग्रामीण वर्षा के पानी को पकड़ कर उसका महत्तम उपयोग करने की अच्छी जानकारी रखते हैं, उसी का उपयोग किया जाना है।

इस तकनीक के कारण मिट्टी के कटाव-बहाव में भी कमी आ जाती है। वर्षा का जल या तो जमीन के नीचे जाये या वाष्पित होकर ऊपर जाए, लेकिन सतह के ऊपर बहकर कम-से-कम जाए। जल संरक्षण का यह मूल मन्त्र है। झारखंड में व्यापक रूप से फैले टांड़, परती भू-भाग में कन्द-मूल, फल-फूल, ईंधन, लकड़ी औषधि आदि पौधों की व्यापक खेती कर उत्पादन चक्र में लाने की आवश्यकता ही नहीं मजबूरी है। वनभूमि के बाहर बेकार पड़े इस व्यापक भू-भाग को उत्पादन चक्र में लाने से स्थानीय तौर पर उगने वाली फसलें, घास, वनस्पति, वृक्ष आदि सभी अलग-अलग स्तर पर उगाए जा सकते हैं। इससे (1) लाखों एकड़ बेकार पड़ी जमीन में उपयोगी हरियाली लाकर उत्पादन चक्र में लाया जा सकेगा। (2) हजारों लोगों के लिये रोजगार सृजन होगा (3) प्राकृतिक वन भूमि पर बढ़ते जैविक दबाव को कम किया जा सकेगा तथा (4) स्थल विशेष की जैविक विविधता भी फिर से दृढ़ होकर निखरने लगती है, जिससे पर्यावरण सन्तुलन बेहतर होता है। हजारों ग्रामीणों के पास एक एकड़ से अधिक जमीन है, लेकिन वे बदहाल हैं। लेकिन पलामू के कृषक अर्जुन सिंह एक एकड़ में कृषिवानिकी कर परिवार का पालन-पोषण कर अपने आपको सरकारी कर्मचारी से बेहतर स्थिति में बताते हैं।

घाटशिला के देवजीत ने 20 एकड़ में 16 हजार सागवान के पौधे उगाए थे तीन लाख लागत पर, जो 15 वर्षों में लगभग 8 करोड़ की सम्पत्ति हो गई है। लेकिन झारखंड में वनोत्पादों की बिक्री में परमिट की कठिनाई है। हरियाणा में अनाज एवं सब्जियों की तरह निजी जमीन पर, उगाई गई काष्ठ एवं वनोत्पाद की खुली बिक्री की अनुमति से किसान खुशहाल हुए हैं एवं हरियाली चारों ओर दृष्टव्य है। झारखंड में कृषि-वानिकी के वनोत्पाद की खुली बिक्री की अनुमति से कृषि-वानिकी को प्रोत्साहन मिलेगा। ग्रामीणों एवं आम जन के पास संसाधन एवं शुरुआती पूँजी नहीं है। संसाधन सरकार के पास है। तलाश है बहादुर भागीरथों की, जो संसाधनों की गंगा को बिचौलिये प्रदूषकों से बचाकर सीधे ग्रामीणों एवं आम जन के स्वतः स्फूर्त, सशक्त सामुदायिक संस्थाओं तक पहुँचाए और उपयोगी बनाएँ।

 

और कितना वक्त चाहिए झारखंड को

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

जल, जंगल व जमीन

1

कब पानीदार होंगे हम

2

राज्य में भूमिगत जल नहीं है पर्याप्त

3

सिर्फ चिन्ता जताने से कुछ नहीं होगा

4

जल संसाधनों की रक्षा अभी नहीं तो कभी नहीं

5

राज व समाज मिलकर करें प्रयास

6

बूँद-बूँद को अमृत समझना होगा

7

जल त्रासदी की ओर बढ़ता झारखंड

8

चाहिए समावेशी जल नीति

9

बूँद-बूँद सहेजने की जरूरत

10

पानी बचाइये तो जीवन बचेगा

11

जंगल नहीं तो जल नहीं

12

झारखंड की गंगोत्री : मृत्युशैय्या पर जीवन रेखा

13

न प्रकृति राग छेड़ती है, न मोर नाचता है

14

बहुत चलाई तुमने आरी और कुल्हाड़ी

15

हम न बच पाएँगे जंगल बिन

16

खुशहाली के लिये राज्य को चाहिए स्पष्ट वन नीति

17

कहाँ गईं सारंडा कि तितलियाँ…

18

ऐतिहासिक अन्याय झेला है वनवासियों ने

19

बेजुबान की कौन सुनेगा

20

जंगल से जुड़ा है अस्तित्व का मामला

21

जंगल बचा लें

22

...क्यों कुचला हाथी ने हमें

23

जंगल बचेगा तो आदिवासी बचेगा

24

करना होगा जंगल का सम्मान

25

सारंडा जहाँ कायम है जंगल राज

26

वनौषधि को औषधि की जरूरत

27

वनाधिकार कानून के बाद भी बेदखलीकरण क्यों

28

अंग्रेजों से अधिक अपनों ने की बंदरबाँट

29

विकास की सच्चाई से भाग नहीं सकते

30

एसपीटी ने बचाया आदिवासियों को

31

विकसित करनी होगी न्याय की जमीन

32

पुनर्वास नीति में खामियाँ ही खामियाँ

33

झारखंड का नहीं कोई पहरेदार

खनन : वरदान या अभिशाप

34

कुंती के बहाने विकास की माइनिंग

35

सामूहिक निर्णय से पहुँचेंगे तरक्की के शिखर पर

36

विकास के दावों पर खनन की धूल

37

वैश्विक खनन मसौदा व झारखंडी हंड़ियाबाजी

38

खनन क्षेत्र में आदिवासियों की जिंदगी, गुलामों से भी बदतर

39

लोगों को विश्वास में लें तो नहीं होगा विरोध

40

पत्थर दिल क्यों सुनेंगे पत्थरों का दर्द

 

 
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