कोसी त्रासदी : एक और घृणित सच

23 Oct 2020
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कोसी त्रासदी
कोसी त्रासदी

भारत की नदियों में कोसी एक ऐसी नदी है जिससे जुड़ी मिथक, कथाएँ और गीत सबसे अधिक प्रचलित हैं। कोसी नदी बेसिन के लोग कोसी के भौगोलिक से ज्यादा मिथकीय चरित्र को जानते हैं और उसमें विश्वास भी करते हैं। इसका सहज कारण भी समझा जा सकता है। दरअसल, कोसी नदी का बेसिन सघन जनसंख्या का क्षेत्र है। प्राचीन काल से ही यह अंचल मानवीय अधिवास के लिये उपयुक्त रहा है। यहाँ के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों ने मानव समुदाय को आकर्षित किया। वैदिक काल में यहाँ मानवीय अधिवास का उल्लेख मिलता है। बारहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी के बीच पश्चिम भारत की कई नदियाँ सूख गई। बड़े भू-भाग रेगिस्तान में बदल गया। इस अंचल के पशुचारक और कृषक समाज के लोगों ने गंगा के किनारे होते हुए कोसी बेसिन में आ कर बस गये। आरंभ में लोग नदी के बेसिन में सुरक्षित स्थल पर बसे, जहाँ नदियों के पानी का आवागमन नहीं था। कालांतर में जनसंख्या बढ़ी भोजन की आवश्यकता बढ़ी। लोगों ने नदी के बेसिन का अतिक्रमण किया। नदी का प्रवाह मार्ग अवरुद्ध हुआ। और नदी अभिशाप और सामाजिक समस्या के रूप में प्रकट हुई।

आरंभ में लोगों ने इस आहूत समस्या का सामना सामूहिक रूप से किया। नदियों से जुड़े ज्ञान सामाजिक ज्ञानकोष को समृद्ध किया। आर्थिक प्रगति हुई। सामाजिक संगठन बने। राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। राष्ट्र का निमार्ण हुआ। राजतंत्र और फिर गणतंत्र बना। सामाजिक समस्याओं के निदान का दायित्व, राजतंत्र और गणतंत्र के अधिपतियों ने लिया। राजगद्दी, पद और कॉर्सी पाने की प्रतिस्पर्धा में आश्वासन की संस्कृति समृद्ध होती गई। सामाजिक दायित्व बोध घटता गया। समाज पूरी तरह से सरकारी व्यवस्था पर आश्रित हो गया। लोग ठगे गये। विवश और हताश समुदाय ने मिथ और गीतों का सहारा लिया।

कोसी से जुड़े मिथ एवं गीतों का एक अद्भुत तथ्य यह है कि समाज ने विनती और शिकायत सिर्फ कोसी से ही की है। इस नदी की धाराओं की विकरालता ने आमजनों की आस्था को तोड़ा है। किसी सत्ता और सरकार ने भी इन लोगों में सुरक्षा का विश्वासभाव नहीं जगा पाई । लगता है कि आजादी से पहले तक किसी राजा या शासक ने कोसी को नियंत्रित करने या बाढ़ की समस्याओं से निजात दिलाने की पुरजोर कोशिश नहीं की। 1207 ई. में लक्ष्मण सेन द्वारा और 6वीं शताब्दी में अकबर के सामंत द्वारा बाँध बनवाने और कोसी को नियंत्रित करने का ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त होता है। 1965 ई. तटबंध बन जाने के बाद भी, दोनों तटबंधों के बीच फँसे लगभग 390 गाँव के लगभग 15 लाख लोगों को भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया। लोग अपनी पीड़ा कहे भी तो किससे। इडविन प्रीडो द्वारा संगृहित (1943, मार्च मेन इन इण्डिया में प्रकाशित) गीत संख्या-2 में लोग कोसी से कह रहे हैं कि- सरकार भी हमारी सहायता नहीं कर रही है इसलिए हे कोसी माय मैं पांव पड़ता हूं, तुम पश्चिम दिशा में चली जाओ।

1965 में कोसी तटबंधों के अन्तिम चरण का निर्माण कार्य पूरा हुआ। बांध निर्माण के समय जनमत को किनारे रखा गया। विशेषज्ञों के बीच रस्सा -कस्सी इस बात को लेकर थी कि तटबंध का निर्माण हो या नहीं। जो भी हो अन्तत: दो तटबंधों के बीच कोसी की धाराओं को छोड़ा गया। लेकिन तटबंधों के निर्माण/मार्ग में जातिगत भेदभाव किया गया। भीमनगर बराज से आगे निकलने के बाद दोनो तटबंधों के बीच की दूरी 6 किलोमीटर है, जबकि सुपौल से आगे यह घटकर 09 किलोमीटर रह जाती है। तटबंधों को इस तरह से संकुचित करना अभियंत्रण विज्ञान के विपरीत है। बाँध का संकुचन तात्कालिन नेताओं और समाज के वर्चस्ववादी लोगों के दबाव में किया गया। सामान्य ज्ञान यही कहता है कि तटबंध ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगा त्यों-त्यों पानी का भंडारण भी अधिक होगा, क्योंकि नदी के आगे बढ़ने पर कई छोटी बड़ी नदियाँ उससे आकर मिलती हैं तथा वर्षा जल का भी विस्तार होता है। ऐसी स्थिति में तटबंधों को संकुचित करने से एक तो तटबंध के भीतर के गाँवों में कोसी का जलस्तर बढ़ने से बाढ़ की समस्या गंभीर हो जाती है। कोसी द्वारा अधिक मात्रा में गाद (सिल्ट) लाने के कारण नदी की पेटी भर जाती हे, पानी को आगे बढ़ने में मार्ग अवरुद्ध मिलता है, जिससे तटबंधों पर पानी का दबाव बढ़ जाता है और तटबंध बार-बार टूट जाता है। कहा जाता है कि जाति विशेष के लोगों के गाँवों को बचाने के लिये बांध को संकुचित किया गया। और वर्त्तमान स्थिति और तथ्यों का अवलोकन करने पर यह तर्क समीचीन भी है।

दो तटबंधों के बीच लगभग 390 गाँव और 15 लाख आबादी है। 15 लाख आबादी में 90% दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक हैं। दस प्रतिशत आबादी सवर्णों की है, जो लगभग इस इलाके को छोड़ तटबंध के बाहर कोसी मुक्त अंचल में बस गये हैं। तटबंध बनने से पहले कई सरकारी वादे किये गये थे मसलन शिक्षा की सुविधा, प्रभावित लोगों को सरकारी नौकरी में आरक्षण। नौकरी तो बाद में मिलती पहले शिक्षा तो मिले। आज भी दोनों तटबंधों के बीच 15 लाख आबादी के लिये 18 माध्यमिक विद्यालय तथा 6 उच्च विद्यालय है। कालेज और विश्वविद्यालय तो बहुत दूर है। ये सारे के सारे शिक्षण संस्थान कागजी ज्यादा है, है भी तो छ: महीने के लिये बंद ही रहता है। तटबंध बनने के बाद कोसी की धाराएँ ज्यादा आक्रामक हो गई और तब से अब तक 390 गाँवों में से लगभग 300 गाँव कोसी के कटाव से कटकर कम से कम दो से तीन बार विस्थापित हो चुके हैं। लगभग 150 गाँव के लोगों ने तटबंध के बाहर पुनर्वास केन्द्र में आश्रय लिया है। 

इन विस्थापित लोगों में जो सम्पन्न किसान हैं वे कोसी की धाराओं पर नजर रखते हैं, ज्योंही उनके खेतों से पानी हटता है या कटे हुए खेतों का भरना होता है, वहाँ वेलोग फसल लगाते हैं। परिवार के कुछ सदस्य अस्थायी फूस की झोपड़ी बनाकर अपने पशुओं के साथ कोसी केकिनारे रहते हैं। जो लोग सीमान्त किसान या श्रमिक थे, वे सभी गाँव कटने के बाद शहरों की ओर रोजगार की खोज में पलायन कर गये। पलायन कर रहे लोगों का प्रतिशत पीड़ित लोगों का 60% है। इनमें अधिकांश युवा और बच्चे हैं, जो दिल्ली, कलकत्ता, लुधियाना, भदौही जैसे शहरों में मजदूरी करते हैं। भारी संख्या में लोगों के पलायन से सामाजिक साहचर्य की बुनियादी और पारम्परिक ढाँचे को आघात लगा है। कोसी के किनारे लगने वाले मेले और उत्सवों में भीड़ घटने लगी है। विस्थापन का सबसे स्थायी और भयावह दुष्परिणाम है- लोगों में भवनात्मक क्षति। कोसी अंचल और वहाँ के लोग आतिथ्य सत्कार के लिए आस-पास के अंचलों में जाने जाते थे। अब वहाँ  उदासीनता देखी जा सकती है। नदी किनारे बसे गाँव में विशेषकर जहाँ नदी पार करने के लिये घाट बनी होती थी, प्रत्येक घरों में अतिथियों, मुसाफिरों के रहने की व्यवस्था होती थी। 

जिनकी शाम की अन्तिम नाव छूट गई तथा गाँव भी दूर है ऐसे लोग घाट के किनारे बसे गाँव में रात्रि विश्राम करते थे। लेकिन महानगरों के सम्पर्क में आने के बाद यहाँ के लोग किसी भी अजनवी अतिथि को आश्रय देने से कतराते हैं। प्रशासनिक दृष्टिकोण से यह अंचल अपराध मुक्त माना जाता रहा है। किसी तरह की सामाजिक अशांति या आतंकवाद जैसी समस्याओं से भी यह मुक्त अंचल है। यदि समय रहते यहाँ के निवासियों की समस्याओं की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया तो ये लोग भावनात्मक क्षति जैसी अपूरणीय समाजिक दाय के शिकार होते रहेंगे और परिणाम स्वरूप ये आक्रामक हो जायेंगे।

 

 

 

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