लौटें मिट्टी की ओर

4 Oct 2009
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' हमने जो भी किया, कहा या गाया है वह सब हमें अपनी मिट्टी से मिला है।'

डा. वंदना शिवा, सॉइल नॉट ऑयल और अर्थ डेमोक्रेसी सहित कई पुस्तकों की लेखिका और 1993 के वैकल्पिक नोबेल शांति पुरस्कार की विजेता, हमारे समय की एक प्रमुख पर्यावरणविद् और कार्यकर्ता हैं। वैश्वीकरण के खतरे के खिलाफ भोजन के अधिकार की रक्षा हेतु उन्होंने विज्ञान, प्रौद्योगिकी और पारिस्थितिकीय के लिए रिसर्च फाउंडेशन नवदान्या की स्थापना की। 46 बीज बैंकों और उत्तर भारत में एक जैविक खेती के प्रोत्साहन के लिए बीज विद्यापीठ के निर्माण के साथ डॉ. शिवा लोगों को प्राकृतिक समाधान उपलब्ध करा रही हैं जो मिट्टी में रहकर सभी को जीवन देती है।

आपने ईकोलॉजिकल सस्टेनेबिलिटी मूवमेंट की अपनी यात्रा कैसे शुरू की?
ईकोलॉजिकल सस्टेनेबिलिटी की मेरी यात्रा मेरे जन्म के साथ शुरू हुई। मेरे पिता एक फारेस्ट कंजरवेटर थे और मेरी माँ ने किसान बनने को प्राथमिकता दी, ये बातें हमेशा मेरी जिंदगी का हिस्सा रहीं। न्याय और स्थिरता के बीच संपर्क की स्पष्ट समझ चिपको आंदोलन के साथ शुरू हुई, जब मैं अपना विद्यार्थी जीवन जी रही थी। कुछ लोगों के लालच के कारण हमारे क्षेत्र के जंगल और हिमालय गायब हो रहे थे। महिलाओं ने खुद को एकजुट किया और कहा, 'हम जंगल की कटाई नहीं होने देंगे। तुम्हें पेड़ काटने से पहले हमें मारना होगा।' यही बात थी जहां से चिपको के विचार ने जन्म लिया।

नवदान्या शुरू करने के लिए किस बात ने प्रेरित किया?

कभी-कभी कुछ अत्यंत नकारात्मक बातों से भी प्रेरणा मिल जाती है। नवदान्या की प्रेरणा मुझे जैव प्रौद्योगिकी पर आयोजित एक सम्मेलन के दौरान मिली।

इस सम्मेलन में जेनेटिक इंजीनियरिंग के बड़े खिलाड़ी और रसायन उद्योग के सभी दिग्गज थे। वे वहां बाते कर रहे थे कि कैसे सदी के अंत तक वे पेटेंट और जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिये छोटी कंपनियों को खरीद लें और सभी बीज व हमारे स्वास्थ्य को नियंत्रित कर लें। उनके मुताबिक उस वक्त सिर्फ पाँच कंपनियां ही सारा कारोबार करेंगी। वे जो कुछ कह रहे थे उसका मतलब जीवन पर तानाशाही के अलावा कुछ नहीं था। जब वे पेटेंट से परे विकल्प नहीं होने की बात कर रहे थे तो मुझे लगा कि इसका संबंध गुलामी से है। मैं दुनिया में किसी के लिए भी यह भविष्य नहीं देखना चाहती थी।

शहरी फैलाव की हमारी दुनिया में, जहां भी नजर जाती है, कॉर्पोरेट ब्रांड नजर आते हैं। लेकिन जब कारपोरेट कंपनियां उन चीजों पर कब्जा जमाने लगें जो लोगों की आजीविका से जुडी हुई हैं और जिन पर प्रकृति और धरती का अधिकार है तो ऐसे में क्या किया जाए? कुछ ऐसा ही बीजों के वैश्विक पेटेंट और पानी के निजीकरण के मामले में हो रहा है। बड़े व्यापारी प्रकृति के अधिकार पर कब्जा कर रहे हैं। जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से उपज में बढोतरी और दुनिया की भूख मिटाने के नाम पर खडा हुआ बायोटेक उद्योग, बीज पर प्राइस टैग लगाकर समस्याओँ को बढावा दे रहा है, खास तौर पर उन किसानों के लिए जो अपने परिवार को दो वक्त की रोटी तक खिला नहीं पाते।नवदान्या ने अपने मिशन और लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कौन से तरीके अपनाए?
मेरे अनुसार सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि हम प्रकृति, विभिन्न प्रजातियों और लोगों के अधिकारों को जोडकर देखें। ये अलग नहीं है और हम निश्चित रूप से इस मान्यता के साथ आरंभ करें प्रकृति को अधिकार है।

हम इसे जैव विविधता की रक्षा करते हुए करते हैं, इस मामले में हमारा लक्ष्य बहुत स्पष्ट है। हम ऐसी दुनिया के लिए रहते हैं जहाँ हर प्रजाति के लिए जगह और भविष्य है। जैव विविधता का संरक्षण हमारी सबसे महत्वपूर्ण सेवा है, लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह हुई कि हमने जैव विविधता का उपयोग करते हुए विष से छुटकारा पा लिया, जैविक खाद के जरिये रासायनिक उर्वरक, नीम और पोंगम पेड़ों की मदद से कीटनाशकों से पीछा छुड़ाया, इसके बाद हमने पाया कि यह एक कम लागत वाली प्रणाली है, क्योंकि अब किसान अपने खेत में वृक्ष लगाकर खुद खाद बना सकता है। शुरुआत में मुझे इसकी उम्मीद भी नहीं थी। मैंने लोगों के अधिकारों और प्रकृति के संरक्षण के लिए इसे शुरू किया था। अब 20 वर्षों में हमने पाया कि इन प्रणालियों से अधिक भोजन, पोषण और अधिक आय हासिल हो रहा है।

प्राकृतिक संसाधनों पर कॉर्पोरेट अधिपत्य की सही कीमत क्या है?
कॉर्पोरेट कई तरीकों से प्राकृतिक संसाधनों पर अधिपत्य कायम करते हैं। एक फर्म पेटेंट के माध्यम से जैव विविधता को सर्वसाधारण से दूर करता है। फिर पानी के निजीकरण के माध्यम से भी। इसके अलावा क्योटो प्रोटोकॉल के तहत जलवायु परिवर्तन और कार्बन ट्रेडिंग के जरिये भी, जिसके बारे में मैंने अपनी किताब सॉइल नॉट ऑयल में काफी लिखा है। इससे साबित होता है कि यह सब कार्पोरेटों की संपत्ति है, आम लोग उन चीजों के बदले कार्पोरेटों को कीमत चुका रहे हैं जो प्रकृति का एक उपहार है। इसका नतीजा यह है कि भारत में किसान बीजों के लिए 17000 से 20000 रुपए खर्च कर रहे हैं, जिनकी कीमत शायद पाँच या छह रुपये प्रति किलोग्राम होगी। फिर बीज को रसायनों की जरूरत पडती है। आखिरकार बीज पेटेंट कराने वाली कंपनियां मूलतः रासायनिक कंपनियां है उनकी रुचि उर्वरक बेचने में है। वे रसायन का प्रयोग कम करने के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग नहीं करते, वे जेनेटिक इंजीनियरिंग करते हैं रसायन का प्रयोग बढ़ाने के लिए।

इसी क्रम में पिछले दशक में भारत के 2 लाख किसानों ने खुदकुशी कर ली। इनमें से अधिकांश बीटी [आनुवांशिक इंजीनियरिंग] कपास उपजाने वाले क्षेत्रों में केंद्रित थे। दूसरा रास्ता जिससे कॉर्पोरेट प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण करते हैं इसलिए तकलीफदेह है क्योंकि वे संसाधनों का संरक्षण नहीं करते बल्कि शोषण करते हैं। इसलिए सर्वाधिक नवीकृत संसाधन दुर्लभ हो गए हैं। जल एक अक्षय स्रोत है, लेकिन कार्पोरेटों ने पानी खोदकर निकालना शुरू कर दिया चाहे भारत में हो या अमेरिका में, पानी की कमी पडने लगी है। कार्पोरेटों के कारण हमें जलवायु अव्यवस्था भी मिली है जिसका असर हम जीवन में सभी स्तर पर देख रहे हैं। मेरे लिए बीज पर नियंत्रण सबसे गंभीर मामला है इसलिए बीज को मुफ्त रखना मेरे जीवन का मिशन बन गया है।

खाद्य सुरक्षा, प्रदूषण और स्वास्थ्य की दृष्टि से कैसे छोटे कार्बनिक फार्मों की तुलना औद्योगिक मेगा फार्मों से हो सकती है?
छोटे पारिस्थितिक फार्मों के बारे में पहली बात यह है कि वे रसायनों का प्रयोग नहीं करते है। चूंकि वे रसायनों का प्रयोग नहीं करते, लिहाजा वे छोटे किसानों को कर्ज में नहीं फसने देते। हम मिट्टी, पानी या हवा को अपवित्र भी नहीं करते। मृदा प्रदूषण का अर्थ मिट्टी और उसकी उर्वरता को मारना है।

जल प्रदूषण के मामले में, यह भूजल में कीटनाशक और जल निकायों में नाइट्रेट प्रदूषण है। खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में, औद्योगिक कृषि हमें जो दिया है वह खाली द्रव्यमान है। उनके द्वारा उत्पादित खाद्यान्न में पोषक तत्व नहीं के बराबर है, हालांकि इससे संबंधित बहुत कम अध्ययन हुए हैं मगर उनके नतीजों से स्पष्ट है कि अधिकांश फसलों में 40 से 70 प्रतिशत तक महत्वपूर्ण पोषण तत्व गायब हो रहे हैं। ऐसे में इस पोषण विहीन खाद्यान्न को खाकर कुपोषित होना स्वभाविक है। कुल मिलाकर, आप औद्योगिक कृषि के दो उत्पाद हासिल करते हैं, प्रदूषण और बीमारियां। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा तो यह है कि औद्योगिक कृषि ने दुनिया के सामने एक बडा झूठ पेश किया है और सरकार ने भी इस मसले पर उनका समर्थन किया है, वह यह कि औद्योगिक कृषि लोगों का पेट भरती है और यह काफी लाभप्रद है। आज सौ करोड लोग भूखें हैं क्योंकि रासायनिक खेती उन्हें वह अनाज खाने नहीं देती जिसे वह पैदा करता है, बजाय इसके उनके सिर पर कर्जे का बोझ होता है।

क्या आप ऐसा मानती हैं कि जलवायु परिवर्तन और गरीबी का समाधान एक ही है?
वैश्वीकरण, जो जीवाश्म ईंधन से चलता है ही जलवायु परिवर्तन की वजह है। लोगों को उनकी जमीन पर खेती करने देना जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ी हल है। रसायन या जानवरों पर हिंसा के बिना मृदा संरक्षण के द्वारा कृषि ही आजीविका का स्थायी आधार है। यह एक तरफ जलवायु परिवर्तन को कम करता है तो दूसरी तरफ गरीबी मिटाता है।

आपके अनुसार मानवता का अगला कदम क्या होना चाहिए?
मैंने अपनी किताब सॉइल नॉट ऑयल में लिखा है कि मानवता का अगला कदम तेल और जीवाश्म ईंधन यानी पूंजी, शक्ति के केंद्रीकरण-लोकतंत्र के अभाव वाली दुनिया से विकेन्द्रीकरण, नवोन्मेषी और प्रकृति के सहचर वाली दुनिया की ओर संक्रमण है।

इस परिवर्तन का एक हिस्सा मानव काम को पुनर्परिभाषित करना भी है। तेल को दौर में शारीरिक श्रम को घटिया मान लिया गया है और विस्थापन को उदारीकरण।

Tags- Vandana Shiva, Navdanya, Earth Democracy, Soil not oil.

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