लीमा में नहीं बनी सहमति

9 Jan 2015
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पेरू की राजधानी लीमा में आयोजित पर्यावरण सम्मेलन को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। माना जा रहा है कि इस वजह से अगले साल पेरिस में होने वाले पर्यावरण सम्मेलन में आने वाले सालों में पूरी दुनिया के लिए पर्यावरण संरक्षण के अंतिम लक्ष्य तय करना मुश्किल होगा। हालांकि, इस सम्मेलन के बाद एक बार फिर से विकसित देश भारत पर कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी की प्रतिबद्धता देने के लिए दबाव बढ़ा रहे हैं।

लीमा में आयोजित पर्यावरण सम्मेलन में 190 देशों ने हिस्सा लिया। इन देशों में सहमति नहीं बनने की वजह से सम्मेलन अपने तय समय से 36 घण्टे अधिक चला। इसके बावजूद सभी देशों में सहमति को लेकर जो प्रारूप सामने आया, उसके बारे में पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि यह बेहद कमजोर है। क्योंकि इसमें उन लक्ष्यों को लेकर कोई ठोस बात नहीं कही गई है, जिन्हें पूरा करने के मकसद से यह सम्मेलन आयोजित हुआ था।

सम्मेलन से निकले प्रारूप में असहमति वाले मुद्दों पर यह कहा गया है कि आने वाले एक साल में इन पर सहमति बना ली जाएगी।

इस सम्मेलन का मकसद मुख्य तौर पर दो बातों पर सहमति बनानी थी। सबसे पहले तो यह तय होना था कि जलवायु परिवर्तन को लेकर पूरी दुनिया में जो कोशिशें चल रही हैं, उनमें से आखिर क्या करने को योगदान माना जाए।

हर देश को अपना योगदान खुद ही तय करना है। इसलिए इसे पर्यावरण को लेकर होने वाली बातचीत में ‘इंटेनडेड नैशनली डिटरमाइंट कांन्ट्रिब्यूशन’ यानी ‘आईएनडीसी’ कहा जाता है। इसी के आधार पर अगले साल पेरिस में आयोजित होने वाले पर्यावरण सम्मेलन में एक ऐसा समझौता होना प्रस्तावित है जिसके आधार पर आने वाले सालों में पूरी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की कोशिशें होंगी। इसके अलावा इस सम्मेलन का मकसद यह भी था कि अगले साल होने वाले समझौते के अन्य आयामों की पहचान की जाए और उन पर सहमति का एक माहौल तैयार किया जाए।

कुल मिलाकर कहा जाए तो लीमा सम्मेलन में अगले साल होने वाले पेरिस सम्मेलन में प्रस्तावित समझौते का मसौदा तैयार होना था। लेकिन इस दिशा में इस सम्मेलन में कोई खास प्रगति नहीं हुई।

अगले साल के समझौते का मसौदा तैयार नहीं हो पाया। आईएनडीसी को लेकर भी सहमति नहीं बन पाई। विकासशील देश इसमें उन कोशिशों को भी शामिल करना चाहते हैं जो पर्यावरण के अनुकूल हैं। लेकिन विकसित देश इसे सिर्फ उत्सर्जन कटौती तक ही सीमित रखना चाहते हैं।

बोलचाल की भाषा में समझा जाए तो अगर कोई देश पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुँचाने वाले सौर उर्जा जैसे तकनीक को अपनाता है तो उसे विकसित देश पर्यावरण संरक्षण की दिशा में योगदान नहीं मानेंगे लेकिन अगर वही देश कार्बन उत्सर्जन में सीधे तौर पर कमी करता है तो उसे योगदान माना जाएगा। इसमें विकसित देशों का फायदा है।

उत्सर्जन में कटौती का सीधा असर औद्योगिक विकास पर पड़ता है और इससे सबसे अधिक प्रभावित विकासशील देश होंगे। इसके अलावा सीबीडीआर को लेकर भी विवाद बना रहा।

सीबीडीआर के तहत् विकसित और विकासशील देशों को एक ही लक्ष्य हासिल करने के लिए अलग-अलग रुख अपनाया जाता है और विकासशील देशों को विकसित देशों द्वारा आर्थिक मदद दी जाती है।

लीमा सम्मेलन के शुरुआती मसौदे से तो सीबीडीआर को हटा ही दिया गया था लेकिन जब विकासशील देशों ने दबाव बढ़ाया तो इसे फिर से शामिल किया गया। सम्मेलन में आईएनडीसी को लेकर कोई सहमति नहीं बनने का नतीजा यह है कि अगले साल के सम्मेलन में हर देश अपने-अपने हिसाब से अपने लक्ष्य सामने रखेगा और फिर इस पर नए सिरे से बातचीत शुरू करनी होगी।

इस सम्मेलन के नतीजों पर भारत ने आधिकारिक तौर पर सन्तुष्टि जताई है और कहा है कि उसके ज्यादातर हितों की रक्षा हुई है। केंद्रीय पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर के शब्दों में जो मसौदा तैयार हुआ है, वह और अच्छा हो सकता था लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा ही मसौदा तैयार हो सकता था।

लीमा में आयोजित पर्यावरण सम्मेलन में 190 देशों ने हिस्सा लिया। इन देशों में सहमति नहीं बनने की वजह से सम्मेलन अपने तय समय से 36 घण्टे अधिक चला। इसके बावजूद सभी देशों में सहमति को लेकर जो प्रारूप सामने आया, उसके बारे में पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि यह बेहद कमजोर है। वहीं इस सम्मेलन के बाद एक बार फिर से विकसित देश भारत पर कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी की प्रतिबद्धता देने के लिए दबाव बढ़ा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर पर्यावरण संरक्षण को लेकर चल रही वैश्विक राजनीति में भारत को क्या करना चाहिए।मालूम हो कि जब विकासशील देशों को इस सम्मेलन में ऐसा लगने लगा कि यह सम्मेलन तो एक ऐसी दिशा में बढ़ रहा है जिससे उनके लिए आने वाले दिनों में मुश्किलें पैदा होंगी तो भारत समेत इन सभी देशों ने अनौपचारिक बातचीत में इस बात कोलेकर सहमति बनाई कि गलत समझौते में पड़ने से अच्छा है कि इस सम्मेलन को नाकाम ही होने दिया जाए।

इस सम्मेलन के कुछ दिनों पहले दुनिया के दो सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देशों, चीन और अमेरिका में उत्सर्जन में कमी को लेकर जो समझौता हुआ है, उसका असर भी इस सम्मेलन पर दिखा। विकसित देश अब इसी आधार पर भारत जैसे विकासशील देश पर दबाव बना रहे हैं।

हालांकि, चीन-अमेरिका समझौते में कई कमियाँ हैं। सबसे पहली कमी तो यह है कि इसमें तय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कोई रोड मैप नहीं दिया गया है। दूसरी कमी यह है कि यह दो पक्षों के बीच हुआ ऐच्छिक समझौता है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर दो देशों में से कोई भी किसी लक्ष्य को नहीं हासिल कर पाता है या हासिल करने की दिशा में कोई कोशिश नहीं करता है तो उस पर कोई दण्ड नहीं लगाया जा सकता।

कोपेनहेगन में जो सहमति बनी थी उसमें अमेरिका ने 2005 के मुकाबले कार्बन उत्सर्जन में 30 फीसदी कमी की बात की थी। लेकिन नए समझौते में अब वह सिर्फ 26-28 फीसदी कमी की ही बात कर रहा है। वहीं इस समझौते ने चीन को 2030 तक धुँआधार उत्सर्जन बढ़ाने की आजादी दे दी है। बदले में वह 2030 तक अपने यहाँ वैकल्पिक उर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाकर 20 फीसदी करेगा। इस समझौते के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत पर इस तरह से दबाव बनाया जा रहा है कि अब पर्यावरण संरक्षण को लेकर किसी समझौते तक पहुँचने की जिम्मेदारी भारत की है और अगर भारत ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई तो पूरी दुनिया मुश्किल में पड़ जाएगी।

यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी हो जाता है कि 1997 में हुए क्योटो समझौते में जिन लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर सहमति बनी थी, उसे पूरा करने में जापान है। इसके बावजूद पूरा दबाव भारत पर बनाया जा रहा है।

भारत पर दबाव बनाने की कोशिश में इस तथ्य को हमेशा रखा जा रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत तीसरा सबसे बड़ा देश है और अब जब दो सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देशों ने सहमति बना ली है तो तीसरे देश को भी ऐसा कर लेना चाहिए। अब अगर इन तथ्यों को थोड़ा सा गहराई के साथ समझने की कोशिश की जाए तो दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा।

2012 में चीन ने 850 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन किया। अमेरिका का उत्सर्जन 540 करोड़ टन रहा। यूरोपीय संघ ने 380 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन किया। भारत का कार्बन उत्सर्जन 2012 में 190 करोड़ टन रहा। वहीं उसी साल रूस ने 180 करोड़ टन और जापान ने 130 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन किया। अब कहने को तो अन्य देशों के मुकाबले में कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से भारत तीसरे स्थान पर है लेकिन चीन भारत से पांच गुना, अमेरिका तीन गुना और यूरोपीय संघ दो गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन कर रहा है।

अगर भारत का कार्बन उत्सर्जन मौजूदा गति से भी बढ़े तो 2030 तक इसके 400 से 500 करोड़ टन के बीच रहने का ही अनुमान है। जो चीन और अमेरिका द्वारा तय किए गए लक्ष्य से काफी कम है। इन लक्ष्यों से साफ है कि भारत पर विकसित देशों और पश्चिमी देशों की मीडिया के जरिए बनाया जा रहा दबाव कितना गलत है।

अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर पर्यावरण संरक्षण को लेकर चल रही वैश्विक राजनीति में भारत को क्या करना चाहिए। भारत ने 2020 तक 2005 के मुकाबले कार्बन उत्सर्जन की सघनता में 20 से 25 फीसदी कमी लाने का लक्ष्य तय कर रखा है।

यहाँ यह समझना जरूरी है कि सघनता में कमी का मतलब कुल उत्सर्जन में कटौती से नहीं है। बल्कि यह कुल उत्सर्जन को जीडीपी से भाग देने पर निकलता है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत अपने आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण को चलाने की कोशिश कर रहा है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। क्योंकि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका भारत से दस गुणा, रूस सात गुणा, यूरोपीय संघ छह गुणा और चीन चार गुणा आगे हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में जानकार मानते हैं कि भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह बात रखना चाहिए कि भारत अब भी अपने विकास के शुरुआती दौर में है और अभी उत्सर्जन का स्तर स्थिर नहीं हुआ है।

भारत की अधिकांश आबादी अभी युवा है और विकास को लेकर कई चरण अभी पूरे किए जाने हैं। इसलिए भारत को कार्बन उत्सर्जन की सघनता की कमी की बात करने के साथ-साथ वैकल्पिक ऊर्जा माध्यमों के इस्तेमाल की बात दोहरानी चाहिए।

भारत को भी चीन की तरह 2030 तक अपनी कुल उर्जा जरूरतों में से 20 फीसदी वैकल्पिक माध्यमों से पूरा करने का लक्ष्य रखना चाहिए। अभी यह छह फीसदी है। कुछ समय पहले योजना आयोग ने भी अपने अध्ययन में पाया था कि भारत 2030 तक इस मामले में 18 फीसदी का लक्ष्य हासिल कर सकता है। ऐसे में इसे 20 फीसदी करना भारत के आर्थिक विकास को कोई झटका नहीं देगा। चीन ने यह कहा कि वह कार्बन उत्सर्जन का सर्वोच्च स्तर 2030 में हासिल करेगा और इसके बाद वहाँ इसमें कमी आएगी।

ग्लोबल वार्मिंगजानकारों के मुताबिक भारत को अपने लिए यह साल 2050 तय करना चाहिए। क्योंकि विकास के चरणों के मामले में भारत अब भी चीन से काफी पीछे है।

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